स्वयं को वेटिकन और ईसायत के जाल से मुक्त कर, वैदिक धर्म अपनाकर अपना नाम सैमुअल इवान से सत्यानंद स्टोक्स कर लिया और सच्चे ईश्वर की खोज में निकल पड़े। अंग्रेजी में भगवत गीता का अध्ययन किया और फिर इसे समझने के प्रयास में संस्कृत सीखी और वेद, उपनिषद का अध्ययन किया।
कहानी सैमुअल इवान स्टोक्स से सत्यानन्द स्टोक्स बनने की या यूं कहे स्वामी सत्यानन्द स्टोक्स की जो भारत में आया तो ईसाइयत के प्रचार करने के लिए था, लेकिन यहां की संस्कृति और वेदों का अध्ययन करके, गीता का अध्ययन करके पूरी दुनिया आर्य समाज व सनातन धर्म का प्रचार – प्रसार करने लगा। यह कहानी हिमाचल प्रदेश के कोटगढ़ में थानाधर से छह किलोमीटर की दूरी पर 1843 में अंग्रेजों द्वारा बनाये गये एक चर्च से शुरू होती है और अंत में एक आर्य समाज मंदिर में रूकती है।
यह एक ऐसे शख्स की कहानी है, जिसने विश्व को भारत के साथ वेद और वैदिक धर्म का परिचय कराया। परन्तु इसके लिए हमें 100 वर्ष से भी अधिक पीछे जाना होगा, जब अमेरिका के एक उद्योगपति पिता की संतान 21 साल के सैमुअल इवान स्टोक्स सन 1900 में ईसाई मिशनरी बनकर हिन्दुओं के धर्मांतरण के लिए भारत आते हैं। जो आते तो हैं भारतीयों को ईसा मसीह का संदेश देने, किन्तु आर्य समाज के सम्पर्क में आकर वेद का सन्देश देने लग जाते हैं, और पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति का प्रसार करते हैं।
सैमुअल इवान स्टोक्स को धर्म के काम करने व लोगों के लिए काम करने के प्रेरणा पहले से ही थी इसलिए ही उन्होंने वेटिकन के आदेश पर सन 1900 में भारत आने का निर्णय लिया था। उस समय मिस्टर एंड मिसेज कार्लटन नाम एक डॉक्टर दंपती थे, जो भारत में कुष्ठ रोग मिशन की रोकथाम के लिए काम कर रहे थे। इवान स्टोक्स भी इन्हीं के साथ मिलकर सेवा-भावना की आड़ में अपने धर्मांतरण के कार्य को आगे बढ़ाने लगे। शुरूआती दिनों में मुम्बई समेत देश के कई मैदानी इलाकों में रहे लेकिन गर्मी के कारण बाद में हिमाचल के पहाड़ों में आ गये।
समय बीतता गया और वे अपने धर्मांतरण के कार्य को पूरे जोर से करते गए, पूरे परिवार में विरोध होने के बावजूद 12 सितम्बर 1912 को सैमुअल इवान स्टोक्स ने एक भारतीय ईसाई महिला एग्नेस से ईसाई रीति-रिवाज से शादी कर ली। जबकि इनके पिता चाहते थे कि वापिस अमेरिका आकर इनका कारोबार सम्भाले, क्योकि ये एक समृद्ध व्यवसाय के उत्तराधिकारी थे। लेकिन इनकी जिद के आगे इनके परिवार को झुकना पड़ा क्योंकि इन्होंने भारत में ही जीवन यापन करने का मन बना लिया था।
सैमुअल इवान स्टोक्स की जिद को देखकर उनकी मां ने उन्हें शिमला के बारोबाग में 30,000 रुपये की कीमत का लगभग 200 एकड़ में फैला एक चाय का बगीचा उपहार के रूप में खरीदकर दे दिया। जिसे बाद में सैमुअल इवान स्टोक्स ने सेब के बगीचे में बदल दिया। सैमुअल इवान स्टोक्स विदेशों से अच्छी किस्म के सेब के पोधे लाते और उनको मां के द्वारा उपहार में मिली लगभग 200 एकड़ की जमीन पर लगाते, इसी तरह इन्होने हिमाचल में सेब की शुरुआत की, वो हिमाचल आज अपने गुणकारी सेबो को भारत ही नहीं अपितु विदेशो में भेजने का काम करता है। साथ में हिमाचल की अर्थव्यवस्था को को भी सुदृढ़ करने का काम करता है और हजारों करोड़ का व्यापार करता है।
लेकिन बात यह आती है कि ऐसा क्या हुआ कि इनके मन ने इन्हें धर्मांतरण से परिवर्तित होकर समाज सेवा और आर्य समाज और सनातन संस्कृति को पूरे विश्व में प्रसार करने के लिए मजबूर कर दिया। जब सैमुअल इवान स्टोक्स हिमाचल में धर्मांतरण कर रहे थे, तो उस समय पूरे विश्व में प्लेग की बीमार फैली हुई थी। धर्मांतरण करते समय इन्होंने देखा की गांव में स्वस्थ लोग रोगियों को भगवान भरोसे छोड़ कर दूसरे सुरक्षित स्थानों पर चले जाते हैं। लेकिन आर्य समाज के कुछ लोग उन रोगियों की सेवा में लगे हैं और वो भी बिना किसी स्वार्थ के। उन लोगों के कार्य को देख कर उनका मन परिवर्तित हुआ और उन्होंने लोगो की सेवा करने का मन बना लिया। उसके बाद एक दिन उनका संवाद वैदिक धर्म के अनुयायी, महात्मा पंडित रुलियाराम से हुआ, जिनकी लोकसेवा को देख कर उनके मन में सनातन धर्म को जानने की इच्छा और जागृत हुई। उन्होंने इस बात का अनुभव किया कि सच्ची सेवा मानव धर्म में है और वह सनातन में ही संभव है। जहां पर पंडित रुलियाराम जैसे व्यक्ति समाजसेवा में लगे हैं। अंत में उन्होंने यह अनुभव किया कि जिस मिशनरी काम में वे लगे थे, वह मानवता के साथ धोखा है और केवल स्वार्थ है।
उसके कुछ समय बाद इवान स्टोक्स लाला लाजपत राय से मिले, उनके अन्दर देश की स्वतंत्रता की तड़प देखी, समाज के प्रति उनके सेवा भावना के कार्यों से प्रेरित हुए, आर्य समाज वैदिक धर्म और ऋषि दयानन्द के विचारों को समझा और सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन किया। तत्पश्चात सैमुअल स्टोक्स भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले एकमात्र अमेरिकी बन गये। ब्रिटिश शासन के विरोध में आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित एक ऐसे क्रन्तिकारी बन गये जिसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजद्रोह और घृणा को बढ़ावा देने के लिए जेल में 6 माह के लिए डाल दिया गया।
पंडित रुलियाराम के समाज के प्रति त्याग, निरंतर उत्साह , निष्काम सेवा-भाव और अपनी जिन्दगी की परवाह किये बिना काम करने के भाव को देखकर और लाला लाजपत राय को देखकर अपने आप को सनातन को समर्पित कर दिया और पूरे विश्व में प्रचार – प्रसार को अपने जीवन का ध्येय बना दिया।
1932 आते-आते एक अदभुत घटना घटी, इवान स्टोक्स का ह्रदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने स्वयं को वेटिकन और ईसायत के जाल से मुक्त कर, वैदिक धर्म अपनाकर अपना नाम सैमुअल इवान से सत्यानंद स्टोक्स कर लिया और सच्चे ईश्वर की खोज में निकल पड़े। अंग्रेजी में भगवत गीता का अध्ययन किया और फिर इसे समझने के प्रयास में संस्कृत सीखी और वेद, उपनिषद का अध्ययन किया। बारोबाग में ही घर के एक हिस्से में आर्य समाज मंदिर की स्थापना की। उसमें लकड़ी के खंभों पर उपनिषदों और भगवद्गीता के शिलालेखों को उकेरा। गुरुकुल के महत्व को समझाया।
यानि अब सत्यानंद स्टोक्स अब एक वैदिक आर्य संन्यासी बन गये। पत्नी एग्नेस ने अपना नाम बदलकर प्रियदेवी तथा बच्चों के नाम प्रीतम स्टोक्स, लालचंद स्टोक्स, प्रेम स्टोक्स, सत्यवती स्टोक्स, तारा स्टोक्स और सावित्री स्टोक्स कर दिया। वर्ष 1937 में थानाधर में आर्य समाज मंदिर का निर्माण इतिहास की इबारत लिख चुका था। उनकी आर्थिक सहायता के लिए उस समय भारतीय उद्योग जगत के एक दिग्गज जुगल किशोर बिड़ला ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए 25,000 रुपये का योगदान दिया। आज उनके द्वारा बनाए गये इस मंदिर को परमज्योति मंदिर या अनन्त प्रकाश का मंदिर कहा जाता हैं।
14 मई, 1946 को सत्यानंद स्टोक्स के प्राण तो अपनी महायात्रा पर निकल गये पर आज तक मंदिर की दीवारों पर लिखे वेदों और उपनिषदों के मन्त्र आर्य समाज की इस धर्म रक्षा का गुणगान गाते सुने जा सकते है।
जो कहानी 1900 में सैमुअल इवान स्टोक्स से शुरू हुई वह अंत में आकर 1946 में आकर सत्यानंद स्टोक्स पर खत्म हुई, जिन्हें हम सनातन धर्म का अध्ययन करने वाले और प्रचार – प्रसार के कारण स्वामी सत्यानंद स्टोक्स के नाम से जानते हैं।
सुनील शर्मा