उत्तर प्रदेश की राजनीति को एक नया आकार आ रहा है?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के उभरते माहौल के बीच नयी जातीय पटकथाएं रखी जाने लगी थी। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में जाति के प्रत्यक्ष इस्तेमाल पर रोक लगा रखी है। इसलिए चुनाव में जाती की बात खुले तौर पर आज ना तो जातियों के नेता कर रहे हैं और ना ही अपने समर्थन आधार को बढ़ाने में जुटी पार्टियां। लेकिन समाज व्यवस्था में बसे जाति समूह को एक साथ लाकर अपनी संख्या बढ़ाने की तैयारी बड़ी जोर से हो रही थी।

रशिया युक्रेन युद्ध के कारण उत्तर प्रदेश चुनावी मुद्दा थोडा हमारे नजरों से ओझल हुआ हैं। ऐसा होते हुए भी संपूर्ण देश की नजर आज भी उत्तर प्रदेश के चुनाव पर  हैं।  403 मतदारसंघ में 7 किस्तो में चुनाव संपन्न होने कि बड़ी लंबी प्रक्रिया है। अब तक पांच पड़ाव के चुनाव पूर्ण हुए हैं । चुनाव का पहला पड़ाव 10 फरवरी को प्रारंभ होकर आखिरी पड़ाव 7 मार्च को संपन्न होने वाला है। 10 मार्च को मतपेटी खुलने वाली हैं। लोकसभा चुनाव के 543 जगह में से 80 सीट्स सिर्फ उत्तर प्रदेश से आते हैं। इस कारण उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को विशेष महत्व दिया जाता है। 2017 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में 403 से जगह से कुल मिलाकर 312 पर भाजपा ने अपनी मुहर लगाई थी। राष्ट्रीय राजनीति पर अत्यंत गहरा परिणाम  करने वाले चुनाव के रूप में उत्तर प्रदेश को दिखा जाता है।  2024 में केंद्र में सत्ता हासिल करनी है तो उत्तर प्रदेश में बढ़-चढ़कर विजय पाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगले 2 साल में होने वाले  राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति चुनाव पर भी  उत्तर प्रदेश अभी हो रहें  चुनाव का गहरा असर होने वाला है।

चुनाव का रुझान जानने वाली कुछ संस्थाओं ने भाजपा की जीत चुनाव से पहले ही भाजपा के पल्ले में डाल दी है। ऐसा होने पर भी उत्तर प्रदेश के चुनाव मनोरंजक होते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में गत 25 सालों में किसी भी पक्ष को सत्ता कायम रखने में कामयाबी नहीं मिली है । हर चुनाव में उत्तर प्रदेश की सरकार बदलने का निर्णय जनता ने लिया है। इस चुनाव में निश्चित क्या होने वाला है?  इस बात पर प्रचंड उत्सुकता संपूर्ण देश में है।

2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ों का समर्थन बीजेपी के लिए संजीवनी साबित हुआ था। लेकिन इस बार विपक्ष विशेषकर समाजवादी पार्टी को लगता है कि अति पिछड़ों का वोट उसके पाले में आ सकता है ।2014 में अति पिछड़ों का मतदाता नरेंद्र मोदी के साथ ऐसी जुड़ा की चुनाव दर चुनाव  वह भाजपा के लिए वोट करता रहा ।‌ विपक्षी दलों को लगता है कि इस बार सत्ता विरोधी रुझान का असर पड़ा है और अति पिछड़ा वर्ग के लोग भी योगी सरकार को हराने में लगेंगे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव  के उभरते माहौल के बीच नयी जातीय पटकथाएं रखी जाने लगी थी। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में जाति के प्रत्यक्ष इस्तेमाल पर रोक लगा रखी है।  इसलिए चुनाव में जाती की बात खुले तौर पर आज ना तो जातियों के नेता कर रहे हैं और ना ही अपने  समर्थन आधार को बढ़ाने में जुटी पार्टियां। लेकिन समाज व्यवस्था में बसे  जाति समूह को एक साथ लाकर अपनी संख्या बढ़ाने की तैयारी बड़ी जोर से हो रही थी।

उत्तर प्रदेश के जातिगत राजनीति का सिलसिला बहुत पुराना है । जब किसी भी राजनीतिक दल ने कथित सोशल इंजीनियरिंग के बहाने जातीय गोलाबंदी की और उसका राजनीतिक फायदा उठाया।  हर बार कहा गया कि उसके समीकरणों में फिट बैठने वाली जातियों में आपसी समानता बढ़ेगी और भाईचारा भी कायम होगा।  हालांकि यह उम्मीद बार-बार टूट गई है। समाजवादी आंदोलन के पुरोधा राम मनोहर लोहिया ने  समाज के पिछड़े समाज को एक करने के लिए नारा दिया था “संसोपा ने बांधी गांठ , पिछड़े पांव सौ में साठ।” इसका असर यह हुआ कि समूची समाजवादी राजनीति पिछड़े वर्ग के रचना पर केंद्रित हो गई । हालांकि पिछड़ी जातियों में इससे आपसी एक होने या एक दूसरे में समाहित होने की कोई कहानी सामने नहीं आई। उल्टे पिछड़ों में यादव- कुर्मी जैसी जातियां जरूर राजनीतिक रुप में ताकतवर होती गई। हालांकि सामाजिक समीकरण में जातीय समूह स्वतंत्र रूप में ताकत नहीं बना पाए ।

राम मनोहर लोहिया की सोच को पिछली सदी के आखिरी दशक में और आगे बढ़ाया काशीराम ने। उन्होंने नारा दिया था ” जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी”  इस बहाने अनुसूचित समूह की जातियों को एक साथ लाकर मजबूत वोट बैंक बनाने में काशीराम सफल हो गए। लेकिन उस समूह की जातियों के बीच एक दूसरे में समाहित होने का भाव नहीं बन पाया। सोशल इंजीनियरिंग की सहारे जातीय समूहों के बीच राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए कुछ हद तक आपसी समझ जरूरी बनी थी। उससे जाति  समाज को और बढ़ाने का रास्ता नहीं खुला।‌ हर जाति समूह  सामर्थवान बनकर उभरा। सच पूछिए तो लोकतंत्र में  व्यक्ति महत्वपूर्ण होना चाहिए । शायद संविधान निर्माताओं ने भी ऐसा ही सोचा था ।  लेकिन अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिर्फ समुदाय और जाति  सामर्थ्य शाली बनती गई।  सत्ता हासिल करने के खेल में जाति व्यवस्था अलग-अलग जातियों को औजार की तरह इस्तेमाल करती रही है ।

लगातार बढ़ती शिक्षा और सूचनाओं की बाढ़ में से नई पीढ़ी प्रभावित हुई बिना नहीं रह सकती ‌। वह गोला बंद के इस खेल को समझने लगी है। यही वजह है कि राजनीति आज समान स्तर की जातियों को एक दूसरे में समाहित करने और उन्हें संख्या बल के हिसाब से मजबूत बनाने की तैयारी में जुट गए हैं।  इसका फायदा जातियों को बाद में मिलेगा। पहला लाभ तो उसे बढ़ावा देने वाली राजनीतिक व्यवस्था ही उठाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान किसी का होना है तो वह व्यक्ति की अपनी स्वाधीनता का । लोकतांत्रिक समाज का बुनियादी आधार व्यक्ति होना चाहिए लेकिन उसका समुदाय या उसकी जाति आधार पर उस व्यक्ति की  राजनीतिक कीमत निर्धारित हो रही है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इस व्यवस्था को उचित तो नहीं माना जा सकता।

अब उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनाव के समय वहां की जमीनी हकीकत की पड़ताल करने के बाद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समाजवादी पार्टी अति पिछड़ों को अपनी और करने का भरपूर प्रयास कर रही थी। लेकिन कोई बहुत बड़ी सेंद इस बार नहीं लगा पाई है। बीजेपी का  कुछ वोट कटा है लेकिन केंद्र और राज्य की लोक लुभावनी योजनाओं ने बहुत गहरा असर छोड़ा है।बहुत से मतदाता बीजेपी के साथ जुड़े हैं। अति पिछड़े वर्ग का समर्थन जिसकी ओर से खिसका तो सत्ता उसके हाथ से खिसक जाएगी।  विपक्षी दल विशेषकर समाजवादी पार्टी इस वर्ग पर गहरी नजर जमाए हुए था।  इसी कारण इस चुनावी तैयारियों में अति पिछड़ों के लिए भी राजनीतिक दांवपेच तय होते जा रहे थे।

इस चुनाव में ब्राह्मण जाति के मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की ओर नहीं रहा है। एक समय ऐसा था कांग्रेश पक्ष ने ब्राह्मण जाति के  हित संबंधों की रक्षा की थी । कांग्रेस की ओर से पहले चार ब्राह्मण मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश को दिए गए थे। जिसमें गोविंद बल्लभ पंत,  कमलापति त्रिपाठी ,हेमवती नंदन बहुगुणा और एनडी तिवारी यह चार मुख्यमंत्री। एक समय ऐसा था ब्राह्मण जाति के वर्चस्व को उत्तर प्रदेश की राजनीति में अधिमान्यता थी। लेकिन आज भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस की तरह ब्राह्मण जाति को उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा स्थान नहीं दे रही है। यह बात भाजपा की विधायक की संख्या ,मुख्यमंत्री पद और सत्ता में ब्राह्मणों की सहभागिता के माध्यम से स्पष्ट दिखाई दे रही है।  इस कारण कांग्रेस ने भाजपा के आज के राजनीति की तुलना अपने ब्राह्मण हित की राजनीति से करना प्रारंभ किया था। इस तुलना का सीधा-साधा अर्थ ब्राह्मण समाज भाजपा पर  पूरी तरह से समाधान नहीं है, यह बात कांग्रेस बताना चाहती थी। इस चुनाव में  कांग्रेस यह बात कहना चाहती थी लेकिन ऐसा होने के बाद भी ब्राह्मण समाज का लाडला पक्ष  बीजेपी ही है। चुनाव के समय इस तरह की प्रतिक्रिया तो होती रहती है।  कांग्रेश सहित सभी विपक्ष ने इसका एक गुब्बारा फुलाने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के राजकीय पक्ष और नेता नए तरीके से जातियां, सामाजिक  शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते नजर आ रही थे।

उत्तर प्रदेश में  ब्राह्मण 7%,  ठाकुर समाज ११% ,ओबीसी  40% है। यादवों का सबसे ज्यादा वर्चस्व है। उत्तर प्रदेश की राजनीति समझना हो तो वहां का जातिगत समीकरण समझना अत्यंत आवश्यक है। इसी जातिकरण को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीति हर दशक में अलग-अलग मोड़ लेती नजर आई है। चुनाव के सामाजिक समीकरण और सामाजिक समीकरण के माध्यम से एक दूसरे पर परिणाम करने वाली राजनीति वहां होती है। उस राजनीति की आयुध भी हर समय अलग-अलग रहे हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पक्ष अपना खाता भी नहीं खोल पाया था। विधानसभा में उनकी कामगिरी चौथे स्थान पर थी। इस चुनाव में अपना अस्तित्व सिद्ध नहीं किया तो आने वाले समय में उनके हाथ में कुछ नहीं रहने वाला है। एक समय अपने पीछे समर्थक रूप में खड़ा होने वाला दलित समाज इतने गति से उससे क्यों बिछड़ गया? इस प्रश्न का उत्तर भी मायावती ढूंढ रही है। इसी मायावती ने सन 2007 के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग किया था जो आज भी देश में चर्चा का विषय है। ” हाथी नहीं गणेश है ,ब्रह्मा विष्णु महेश है” इस प्रकार की भावनिक घोषणा देकर दलित और ब्राह्मण वर्ग को अपने मत पेटी की ओर आकृष्ट करने की क्रिया मायावती ने की थी। मायावती की तरह कांग्रेस भी अस्तित्वहीन होने की कगार पर है ।एक समय उत्तर प्रदेश पर कांग्रेश निर्विवाद सत्ता स्थापित करने वाली पार्टी थी। मंडल आयोग का आरक्षण जाहिर होने के बाद कांग्रेस को सत्ता के आस पास जाना भी मुश्किल हो गया।

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर दौड़ाई तो बीजेपी अपने मुद्दों के साथ योजना बद्ध तरीके से आगे बढ़ती दिखाई दे रही है। चुनावी दृष्टि से देखें तो इस पायदान पर बीजेपी सबसे आगे दिखाई देती है।  मंदिर निर्माण का फैसला आने से पहले ही योगी सरकार ने अयोध्या के पुनर्निर्माण की योजना बनाकर उस पर काम शुरू कर दिया था । अयोध्या में दीपोत्सव महिमामंडित त्योहार के रूप में स्थापित किया गया। वाराणसी के समान अयोध्या को प्रमुख धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात करने की कोशिश हुई। उसमें काफी हद तक सफलता भी मिली। ऐसे में विपक्ष भला कैसे बाजी मार सकता है।  जब विपक्षी नेता राम मंदिर को मुद्दा बनाते हुए कहते हैं कि वह भी असली राम भक्त है ,तो उनके पास अपना किया दिखाने के लिए कुछ नहीं था ।

धार्मिक, सांस्कृतिक रूप से प्रमुख स्थलों के मुद्दों पर बीजेपी को घेरना विपक्ष के लिए अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी कुल्हाड़ी मारने जैसा हो गया है। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद ,सुरक्षा और आतंकवाद तथा जम्मू-कश्मीर आदि मुद्दों पर बीजेपी को जितना घिरते हैं भाजपा के लिए चुनाव अभियान उतना ही आसान होती जाता है। कुल मिलाकर देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में विपक्ष ने बीजेपी के खिलाफ एकजुट तो नहीं हो पाई। ठीक से अपने मुद्दे भी नहीं बना पाये है । विपक्षी दलों का ग़लत अभियान ही चुनाव में बीजेपी के विजय का माध्यम  हो गया है।

5 सालों में बीजेपी ने क्या किया है ? विरोधी पक्ष जब यह सवाल खड़ा करते हैं तब  बताने के लिए बीजेपी के पास बहुत कुछ है। इस बार सिर्फ धार्मिक और जातीय मुद्दों पर भाजपा को वोट मिलने वाले नहीं है,  तो उन्होंने किए हुए विकास कार्य पर भी  मतदाता बीजेपी की झोली भर देने वाले हैं। यूपी के किसी भी हिस्से में चले जाइए साफ दिखाई देता है कि बीजेपी की वापसी हो रही है। यूपी में बीजेपी को दो स्तर पर फायदे मिल रहे हैं, केंद्रीय रोजगार केंद्रीय योजनाएं बहुत ही जनकल्याणकारी साबित हो रही है । केंद्र सरकार की इन योजनाओं से राज्य की जनता भी खुश है। केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा चलाई गई तमाम योजनाओं का लाभ  पूरे समाज को हुआ है। लेकिन सर्वाधिक लाभ अति पिछड़ों और दलितों को हुआ है। इसका असर भी दिखाई दे रहा है।

उत्तर प्रदेश में सिर्फ ब्राह्मण और अन्य उच्च जाति के आधार पर सत्ता पाना संभव नहीं है। यह दिक्कत दूर करने के लिए भाजपा ने अपना जाति का विस्तार 2017 के चुनाव में बढ़ाया। उच्च वर्गों के साथ ओबीसी और  दलितों को अपने पक्ष में समाहित कर लिया।  भाजप के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह के ‘बिगर यादव, बिगर जाटव’ इस शब्द प्रयोग का अर्थ सभी राजनीतिक पक्ष को ध्यान में आने लगा है।  इस सोशल इंजीनियरिंग के कारण भाजपा समाज के सभी जाति उपजाति तक अपना प्रभाव निर्माण करने में कामयाब रही है। भाजप का यह  जातीय समीकरण  अन्य राजनीतिक पक्ष भी अपना रहे हैं।विशेषकर समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव इस में अग्रसर है । आज वर्तमान में उत्तर प्रदेश में कोई भी राजनीतिक पक्ष  किसी एक जाति, धर्म या संप्रदाय से जुड़ा हुआ नहीं है। उत्तर प्रदेश की राजनीति सभी जातियों में  हो रही है। यह बात समाज तक पहुंचाने का प्रयास आनन-फानन में सभी पक्ष कर रहे हैं।

इस चुनाव के रुझान जो भी आए लेकिन एक बात इस चुनाव में नयी  दिखाई दि है। ‘ एक जात एक पक्ष’ सूत्र अब बीते जमाने की बात होती जा रहा है।इस चुनाव में एक पक्ष, बहु जातियों का संगठन करने का प्रयास करता दिखाई दे रहा है । इस पद्धति का उत्तर प्रदेश के चुनाव में उदय हो रहा है। इस कारण जाति के अलावा संगठन की राजनीति ज्यादा महत्व में आने वाली है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक जाति  को लेकर राजनीति का समय अब खत्म होगा? इस सवाल का जवाब आने वाला समय ही देगा।  इस विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की राजनीति को एक नया आकार आ रहा है, यह बात भी सही है।

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