साहिर लुधियानवी की एक नज़्म है कि, “ख़ून अपना हो या पराया हो; नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर। जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में, अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर।।” वर्तमान दौर में ये पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं, क्योंकि जिस दौर में आज हम जी रहें हैं या कहें मानव सभ्यता जिस तरफ बढ़ रही है। उस मौजूदा हालात को देखकर यही अंदेशा लगाया जा रहा है कि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की तरफ़ बढ़ रही है। दुनिया में अमन चैन जैसे शब्द अब बेमानी से लग रहे हैं।
अभी चंद समय पहले ही दुनिया कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के भयाभय दौर से गुज़री है। एक ऐसी महामारी जिसका कोई इलाज़ नहीं, चंद पलों में ही लोगो ने अपनो को दम तोड़ते देखा है और ये किसी एक राष्ट्र की तस्वीर नहीं थी, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में इस महामारी के चलते जो मौत का तांडव हुआ उसे भला कौन भूल सकता है? देखा जाए तो इस महामारी के ज़ख्म अभी भरे भी नहीं है कि दुनिया तीसरे विश्व युद्ध की तरह बढ़ चली है। कोरोना महामारी ने विश्व को यह आईना जरूर दिखाया कि भले भी कोई देश कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो? भले ही परमाणु बम और अणुबम पर इतरा लें और महाशक्ति होने का गुमान क्यों न हो? लेकिन जब कोई महामारी मौत बनकर आती है। फिर 2022 में भी उसे सहजता के साथ टाला नहीं जा सकता है। इतना ही नहीं कोरोना काल में न सिर्फ अर्थव्यवस्था के पहिये लड़खड़ाये, बल्कि उल्लेखनीय बात है कि इस दौरान इंसान तक का मनोबल डगमगा गया।
लोग डर के माहौल में जीने को मजबूर हो गए, लेकिन इस दौरान की जो एक विशेष बात रही। वह ये थी कि इस दौरान प्रकृति ने अपनी प्रवृत्ति नहीं बदली। ऐसे में दुनिया योग, प्राणायाम व शाकाहार की तरफ बढ़ी और आज इसी से प्रेरणा लेकर अमेरिका ने भी अपने 40 विश्व विद्यालयों में ‘अहिंसा परमो धर्मा:’ का संदेश देते हुए सात्विक आहार से जुड़े पाठ्यक्रम को संचालित करने का निर्णय लिया है। जो न केवल कर्णप्रिय और सुकून देने वाला है, बल्कि एक सराहनीय पहल भी है। भले ही यह बहुत छोटी पहल हो पर अमेरिका जैसे देश का अहिंसा के प्रति झुकाव कई मायनों में अहम हो जाता है। पर मानव अपने स्वार्थ को त्याग दे यह भला कहाँ तक सम्भव है? आज यह कौन नहीं जानता कि युद्ध भले ही रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा हो, लेकिन इस युद्ध में अमेरिका का योगदान भी कम नहीं है। यूक्रेन को युद्ध के लिए उकसाने का काम अमेरिका ने ही किया है। इस युद्ध के अपने कई मायने है और इतना ही नहीं सबके अपने-अपने स्वार्थ भी है, लेकिन क्या युद्ध किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है? नहीं ना!
गौरतलब हो कि दूसरी तरफ वर्तमान दौर में समूचा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसे वैश्विक संकट को झेल रहा है। जिसका परिणाम आए दिन भूकम्प, बढ़ते जल संकट के रूप में सामने आ रहा है। इंसान स्वच्छ हवा-पानी तक को तरस रहा है। तो वहीं कोरोना का संकट भी अभी टला नहीं है। आए दिन नये-नये वेरिएंट लोगो पर मौत बनकर मंडरा रहे हैं। पर हमें इन सब बातों से भला कहाँ फर्क पड़ने वाला है? हमें तो आधुनिकता का नंगा नाच जो करना है। नित नए प्रयोग करना है, अणुबम बम से लेकर परमाणु बम तक का परीक्षण करना है। विश्व शक्ति बनना है। ऐसे में सर्वश्रेष्ठ बनने की चाहत में हम अपने ही विनाश की इबारत लिख रहे हैं। इसमें समूचा विश्व बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है।
आज भले ही हम अपनी तकनीकी पर इतरा ले लेकिन आने वाली पीढ़ी को हम बारूद के ढेर पर बैठा रहे है। हमें समझना होगा कि मानव मात्र की भलाई अणुबम और परमाणु बम पर नहीं बल्कि सत्य, अहिंसा और दयाभाव पर टिकी हुई है। इसे केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। बल्कि हर मानव का यही धेय्य होना चाहिए कि उनके मन में दया और करुणा हो। लेकिन वर्तमान परिदृश्य को देखकर तो यही लगता है जैसे दो देशों का युद्ध महज़ समूचे विश्व के लिए मनोरंजन का साधन बन गया हो। किसी के दुःख दर्द को देखकर मानव संवेदना जैसे मर सी गई हो। दुनिया में भुखमरी, कुपोषण पर चर्चा हो न हो लेकिन किस देश के पास क्या और कितने हथियार है, कितने बम मिसाइल है इसकी चर्चा जोरों से शुरू हो गई है। ऐसे में हमें समझना होगा कि एक भूखे इंसान को हथियार नहीं बल्कि पेट भर अनाज चाहिए। अणुबम और परमाणु बम पर बैठकर अमन चैन की आस करना बेमानी है।
देखा जाए तो दुनिया में यूं तो समय-समय पर कई युद्ध लड़े गए। खून की नदियां बहा दी गई ,परमाणु हथियारों तक का प्रयोग हुआ। पर इन युद्ध से किसका भला हुआ? युद्ध के केवल दुष्परिणाम ही सामने आते है। रूस यूक्रेन युद्ध भी कुछ समय के बाद थम जाएगा, लेकिन इस युद्ध में जिन लोगो ने अपनो को खोया है क्या उसकी भरपाई की जा सकेगी? प्रकृति के प्रदूषण को हम युद्ध के कारण पल भर में कई गुणा बढ़ा देंगे क्या उसको कम कर सकेंगे? कीव जो कि यूक्रेन की राजधानी है। आज जहरीले हवा का गुब्बारा उसके आसमान में घूम रहा है। ऐसे में सवाल कई हैं, लेकिन प्रभुत्व की लड़ाई ऐसी है जिन्हें हम देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। आज नहीं तो कल हमें इसके दुष्परिणाम भुगतने ही होंगे। तब कोई हथियार कोई असलहा- मिसाइल काम नहीं आएगी।
आंकड़ो की बात करें तो 2020 में भारत सैन्य खर्च के मामले में अमेरिका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया है। फिर भी आए दिन पाकिस्तान और चीन अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाये हुए है। भले ही पाकिस्तान में भुखमरी चरम पर हो लेकिन वहां की सरकार हथियार खरीदने में कोई कंजूसी नहीं करती है। भारत में अशांति फैलाने के लिए इन हथियारों का प्रयोग करती रहती है। वैसे यह पाकिस्तान को तय करना है कि उसके देश वासियों के लिए रोटी जरुरी है या फिर हथियार। वहीं अब कई देशों ने अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने के लिए अपना सैन्य बजट बढ़ाने की तैयारी कर ली है, जिसमें जर्मनी ने अपना सैन्य बजट 47 अरब यूरो से बढ़ाकर 100 अरब यूरो कर दिया है। ऐसे में समझ सकते हैं कि दुनिया अब अपने बच्चों को शिक्षा देने से ज्यादा हथियारों को इकट्ठा करने पर उतावली है। फिर मानव सभ्यता और उसके मानवीय मूल्य कहाँ टिकेंगे? यह अपने आपमें बड़ा सवाल है।
ऐसे में निष्कर्ष स्वरूप यह कहें कि आज हर देश की सम्पन्नता का पैमाना बदल गया है, तो यह अतिश्योक्ति नहीं और अब जिस देश के पास जितना ज्यादा हथियार है। वह देश उतना ही शक्तिशाली माना जाने लगा है। दो देशों के युद्ध में समूचा विश्व अपना नफ़ा नुकसान तलाशने लगता है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध के परिणाम क्या होंगे? कितने निर्दोष लोगों की जान चली जाएगी? लोग बेघर हो जाएंगे। मानव की प्रवृत्ति भी कितनी अजीब है कि कभी एक छोटे जीव की हत्या पर विश्व भर में कोहराम मचा देते है। आंदलोन की बाढ़ लग जाती है, लेकिन आज कोई देश आगे बढ़कर यह पहल करना ही नहीं चाहता कि युद्ध थम जाए। ऐसे में सवाल तो वैश्विक स्तर के संगठनों और महाशक्ति का दम्भ भरने वाले देशों पर भी है, लेकिन ये मानव प्रवृत्ति जो न करा दें। वह कम है, लेकिन अंतिम सत्य यही है कि युद्ध से किसी देश के संसाधनों पर कब्जा किया जा सकता, न कि वहां के लोगों के दिल जीते जा सकते। ऐसे में युद्व और उसमें इस्तेमाल होने वाले उपकरणों से सृष्टि विनाश की तरफ ही बढ़ेगी, लेकिन यह समझने को तैयार कौन है। सवाल तो यही है, वरना महाशक्ति बनने की होड़ तो सबमें है।
– सोनम लववंशी