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आपात काल का क्रांति पर्व

आपात काल का क्रांति पर्व

by अरुण कुमार भगत
in सामाजिक, सितंबर- २०१४
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नागार्जुन        अभिव्यक्ति मानव का नैसर्गिक स्वभाव है। इसकी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखना लोकतांत्रिक सरकार की सब से बड़ी कसौटी है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सन १९७५ में पहली बार आपात काल की घोषणा के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया। आपात काल की काल-कोठरी में कानून के नाम पर प्रशासन ने अकांड- तांडव मचाया। हजारों-हजार कलमकारों को रातों-रात जेल की सीखचों के अंदर बंद कर दिया गया। रचनाकार कराह उठे। फिर रचनाकारों की लेखनी लहूलुहान होकर कोरे कागज को लाल करने लगी।
सन १९७४ के बिहार आंदोलन और उसके बाद २५ जून, १९७५ को घोषित आपात काल के दौरान बिहार के साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस आंदोलन के दौरान पहली बार साहित्यकार नुक्कड़ों पर उतरे और भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शैक्षणिक अराजकता और महंगाई के खिलाफ आवाज बुलंद की। संपूर्ण-क्रांति के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने न सिर्फ स्वयं कविताएं लिखीं; अपितु अहसास भी किया कि इसमें जन-जागरण की क्षमता है। बिहार के दर्जनों कवियों ने तानाशाही सरकार के खिलाफ लेखनी उठाई और अग्निवर्षा की।
आपात काल की घटना को आज लगभग ३७ वर्ष हो गए हैं। भारतीय लोकतंत्र के स्वर्णिम इतिहास मेंआपात काल को काले अध्याय के रूप में देखा जा रहा है। इसमें सक्रिय अनेक साहित्यकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से आपात काल साहित्य को श्रीसम्पन्न किया। आपात काल की पीड़ा, आतंक और टीस का आक्षरिक साक्ष्य भारत की अनेक भाषाओं में कविता के माध्यम से उतर आया है।

वेदना, करुणा और विषाद की भावभूमि से रचना उत्पन्न होती है। ये सर्जनात्मकता के प्रेरणा-स्रोत हैं। आदिकवि वाल्मीकि क्रौंच-वध को देख कर ही मर्माहत हुए थे और इनके कंठ से पहली कविता फूट पड़ी थी। कहने का तात्पर्य यह है कि वेदनावाद काव्य की सर्जना के मूल में है। जनजीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं को छंदों में गुंफित कर ही जीवन के निर्मम यथार्थ को टटोला जा सकता है। यह ठीक है कि संसार में सुख की कल्पना और कामना अनादि काल से होती रही है, किंतु ट्रेजेडी की पठनीयता अपेक्षाकृत अधिक है। आपात काल की घोर अलोकतांत्रिक और अमानवीय सत्ता के कारण जनजीवन में व्याप्त छटपटाहट और विदग्ध मानस की तस्वीर ने अनेक कविताओं को कालातीत बना दिया है। तानाशाही और बंजर होती संसदीय राजनीति की कथा-व्यथा का सजीव चित्रण कर कवियों ने उसमें प्राणों का संचार किया है।

कवि-गीतकार गोपी वल्लभ सहाय की ‘जहां-जहां जुल्मों का गोल, बोल जवानों, हल्ला बोल’ या फिर ‘नेताओं को करो प्रणाम; भज लो राम, भज लो राम’ सरीखी पंक्तियां सुनते ही जयप्रकाश नारायण की याद ताजा हो जाती है। सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ जे. पी. के इस अभियान में बिहार में लेखकों-कवियों, रंगकर्मियों की सक्रिय हिस्सेदारी रही थी और स्वतंत्रता आंदोलन के बाद शायद यह पहला मौका था कि सृजनकर्म से जुड़े लोग सड़कों पर उतरे और ‘तख्त बदल दो, तानाशाहों का राज बदल दो’ सरीखे नारों के साथ लोगों को सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बिहार के चर्चित कवि कलेक्टर सिंह केसरी, आचार्य निशांतकेतु, गोपी वल्लभ सहाय, डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद, डॉ. शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव, सत्य नारायण, सच्चिदानंद सिंह आजाद, डॉ. केदार नाथ सिंह कलाधार, डॉ. अमर नाथ सिन्हा, परेश सिन्हा, जय गोविंद सहाय उन्मुक्त, बाबूलाल मधुकर, रवींद्र राजहंस इत्यादि कवियों ने सन् १९७४ के आंदोलन और आपात काल के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। इनकी रचनाओं ने जन-जीवन को न केवल प्रभावित किया और जनमत-निर्माण किया, अपितु उन्हें आंदोलित भी किया।

कविता में लोगों को संबोधित करने का एक दौर १९७४-७७ का था। वह कठिन समय था, जिसे हम ‘रेणु समय’ कहते हैं। सातवें दशक में उत्तर भारत की सप्त क्रांति बीस साल बाद देश की धड़कनों में पूर्ण क्रांति बन कर गूंजने लगी थी। जेलों में राजनीतिक बंदी कवि सत्य नारायण के नुक्कड़ गीत ‘जुल्म का चक्कर और तबाही कितने दिन’ गाने लगे। १९७४ को आंदोलन में अपनी कविताओं के साथ सड़कों पर उतरने वाले कवियों का सामना नुक्कड़ों-चौराहों पर ऐसे लोगों से हुआ, जो हिंदी-कविता के न तो कभी पाठक थे, न श्रोता। डॉ. रघुवंश के अनुसार, यह एकदम नया अनुभव था और कविता की नई भूमिका थी, जब इतिहास में पहली बार इतने व्यापक जनांदोलन के साथ रचनाकार एकरस हो गया।

१६ अप्रैल, १९७४ को पटना में फ्रेंजर रोड चौराहे पर एक ओर साहित्यकार धरने पर बैठे तो दूसरी ओर विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों के प्राध्यापक। जो साहित्यकार-कलाकार धरने पर बैठे थे, उनमें रेणु तो थे ही, वाममंथी नागार्जुन और कथाकार मधुकर सिंह भी थे, वरिष्ठ चित्रकार दामोदर प्रसाद अंबष्ठ और प्रसिद्ध व्यंग्य-कवि डॉ. रवींद्र राजहंस भी थे। लोग धरना स्थल पर उपस्थित होते और अपना हस्ताक्षर कर आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करते। नागार्जुन को किसी ने टोका- ‘आप यहां कैसे? आप तो वामपंथी हैं।’ नागार्जुन ने तुरंत काव्यात्मक उत्तर दिया- ‘होंगे दक्षिण होंगे वाम, जनता को रोटी से काम।’ इधर नागार्जुन नारे गढ़ रहे थे और उधर निशांतकेतु। शाम तक इतने नारे बन गए कि बाद में उन्हें लघु पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया गया- ‘नारे और नारे’। कालांतर में यह छोटी-सी पुस्तिका आंदोलनकारियों के लिए बहुत काम की सिद्ध हुई और जगह-जगह ये नारे जनता के बीच दुहराये जाने लगे।

सन ७४ के आंदोलन में लोग सड़कों पर उतर आए। साहित्यकार हो या प्राध्यापक, कलाकार हो या कथाकार सभी सड़कों पर सरकार के खिलाफ नारे लगाते हुए दिख रहे थे। लोगों की विविधता और बहुलता ने इसे जन-आंदोलन का रूप दे दिया था। नुक्कड़ों पर काव्य पाठ किया जाना प्रमाणित कर रहा था कि जन मानस का असंतोष कितना व्यापक था।

सत्य नारायण, रवींद्र राजहंस हो या बाबूलाल मधुकर या बाद में जुड़े विकट लाल धुआं हों, सब एक से एक तीखी व्यंग्यात्मक कविताएं लिखते थे और नुक्कड़ों पर जमा भीड़ यह सब सुनकर कांग्रेस के खिलाफ मानस बनाती थी। आजादी के बाद पहली बार इस तरह कवियों और साहित्यकारों ने अपने को सीधे जनता से जोड़ने का साहस किया था। इसमें से अनेक लोग बिहार सरकार की नौकरी में थे, फिर भी व्यवस्था का विरोध करने से हिचकते नहीं थे।

१४ अप्रैल, १९७४ को पटना में अनेक स्थानों पर अनशन और धरने के कार्यक्रम आयोजित हुए, जिनमें लगभग १५ हजार लोगों ने भाग लिया था। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के बरामदे पर सम्मेलन-अध्यक्ष राम दयाल पांडेय के नेतृत्व मेें कई साहित्यकार भी अनशन पर बैठे जिसमें रेणु जी, डॉ. मुरलीधर श्रीवास्तव, डॉ. सीताराम दीन और डॉ. अमर नाथ सिन्हा आदि शामिल थे।

सम्पूर्ण क्रांति के दौरान पटना के नुक्कड़ों-चौराहों पर जब गोपीवल्लभ काव्य पाठ करते तो छात्र-नौजवानों की नस-नस में खून खौलने लगता था और वे लोग व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लिए उतावले हो उठते थे। उन्मत्त, उन्मादी और उद्वत। नेताओं के कुकृत्य को इन्होंने अपनी रचनाओें में बेनकाब किया और नौजवानों का दोहरी नीति-रीति वाले ऐसे सफेदपोशों से दो-दो हाथ करने का आह्वान किया। ‘बंजर के बीज’ नामक काव्य संग्रह में सन १९७४ में लिखी उनकी रचना ‘हल्ला बोल’ शामिल है। उनकी यह रचना युवाओें के बीच काफी चर्चित हुई थी।

साहित्यकार एवं पूर्व सांसद डॉ. शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव ने लिखा है- बिहार-आंदोलन को जिन प्राध्यापकों ने वैचारिक सहयोग देकर पुष्ट किया, आंदोलन समर्थक साहित्य का सर्जन किया, आपात काल में भी विभिन्न प्रकार की मौलिक और अनूदित पाठ्य-सामग्री तैयार करते रहे एवं अपनी लेखनी से उसे जाग्रत और उद्दीप्त करते रहे, उनमें डॉ. अमर नाथ सिन्हा का स्थान सर्वोपरि है। बिहार-आंदोलन के दौरान जून १९७५ तक उन्होंने ‘प्रदीप’ में जो लेख-मालाएं लिखी थीं और उनके माध्यम से बिहार आंदोलन की जो वैचारिक पीठिका बनाई थी, उसे बिहार भूल नहीं सकता।

८ अप्रैल, १९७४ को पटना में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कदमकुआं से ऐतिहासिक जुलूस निकला। इसमें छात्रों-शिक्षकों, वकीलों, महिलाओं और कलाकारों के साथ-साथ साहित्यकार भी बड़ी संख्या में थे। सबने अपने मुंह पर केसरिया पट्टी बांध रखी थी। सबके हाथों में तख्तियां थीं- ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा।’ जुलूस में शामिल लोगों में प्रमुख थे महामाया प्रसाद सिन्हा, देवेंद्र प्रसाद सिंह, कविवर राम दयाल पांडेय, कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु, त्रिपुरारी शरण, भवेश चंद्र पसाद, डॉ. शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव, राधारमण, श्रीमती सावित्री सहाय, डॉ. वीणा श्रीवास्तव, किरण घई आदि।
बिहार प्रांत देश का नेतृत्व कर रहा था और आपात काल में अन्य प्रांतों की नजरें बिहार की ओर लगी हुई थीं। बुद्धिजीवी वर्ग के नैतिक समर्थन के साथ-साथ सक्रिय समर्थन भी प्राप्त होने लगा था और भूमिगत साहित्य काफी तेजी से बढ़ने लगा था। इस कार्य को करने में कठिनाइयां ही कठिनाइयां थीं। साथ ही खतरा ही खतरा नजर आता था, लेकिन इस कार्य में लगे कार्यकर्ताओं की सावधानी और पुलिस विभाग की निष्क्रियता के कारण कठिनाइयां कभी बाधक नहीं बन पाईं।

जयप्रकाश नारायण का आंदोलन सिर्फ सामाजिक और सियासी नहीं था, बल्कि उसने देश में एक नए काव्य आंदोलन की भी शुरुआत की, वहीं कविताओं ने अपना व्यापक श्रोता वर्ग बनाया। १९७४ आंदोलन की बुनियाद दरअसल जे. पी. की इस सोच पर आधारित थी कि भ्रष्ट सरकारों के खिलाफ आंदोलन का अधिकार जनता के पास हों।

आजादी के बाद साहित्यकारों की जन आंदोलन से जुड़ने की भूमिका लगभग समाप्त हो गई थी, लेकिन जे. पी. आंदोलन ने लेखक, कवियों को भी नई सोच के साथ सामने आने के लिए प्रेरित किया।

बिहार आंदोलन ने न केवल विवेचनशील गद्यकार प्राध्यापकों को कुरेदा, बल्कि प्राध्यापकों में भावुक कवि भी उद्वेलित हुए। आंदोलन समर्थक प्राध्यापकों, कवियोें ने न केवल पत्र-पत्रिकाओं, बुलेटिन और पर्चों में लिखा, बल्कि नुक्कड़ कवि सम्मेलनों में भी भाग लिया और संघर्षशील रचनाकारोंे का एक संवर्ग बनाया, जिसने छात्र-आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप देने की चेष्टा की। ऐसे प्राध्यापक कवियोंे में डॉ. रामवचन राय, प्रो. रवींद्र राजहंस, डॉ. श्याम सुंदर घोष, डॉ. शंभु शरण, डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद आदि उल्लेख्य हैं।

सन १९७४ के जे. पी. आंदोलन के साथ जुड़कर खासकर बिहार के रचनाकारों ने रेणु के नेतृत्व में सड़कों पर उतरकर जागरण का काम किया। रचनाकारों ने पहली बार बिहार में जुझारू भूमिका अपनाई थी। रेणु की वह भूमिका उन्हें बाकी रचनाकारों की तुलना में एक विशिष्ट धरातल देती है। आंदोलन के दौरान गीतकार गोपीवल्लभ सहाय ने दर्जनों गीत रचे। इस नुक्कड़ काव्य आंदोलन का उल्लेख वे अकसर करते थे। अपनी कविता पुस्तक ‘बंजर के बीज’ में उस दौर को याद करते हुए उन्होंने लिखा था कि रेणु के साथ शुरुआत में परेश सिन्हा, गोपीवल्लभ सहाय, रवींद्र राजहंस, बाबूलाल मधुकर, बालेश्वर विद्रोही, विकट लाल धुआं, सत्यनारायण, रॉबिन शॉ पुष्प, राज इंकलाब और रवींद्र भारती सहित दूसरे कवि इस आंदोलन में शामिल हुए।

बाबूलाल मधुकर ने अपनी मगही कविताओं से आंदोलन की जमीन तैयार की। बाबूलाल मधुकर ने अपनी मगही कविताओं का अलग संसार रचा। ‘हमारे हाथ में भाला हो’ में जब वे कहते हैं ‘अब तो तनिक न रूकबो देखा। पेट में तहकल जोआल हो। तू बंदूक-पिस्तौल संभाल। हमो हाथ में भाला हो,’ तो आक्रोश पूरा का पूरा दिखाई देता है।

सम्पूर्ण-क्रांति आंदोलन में कवियों ने इस रचनात्मक हिस्सेदारी से जे. पी. भी प्रभावित थे। जे. पी. ने एक बार खुद आग्रह कर आंदोलन से जुड़े इन कवियों को अपने निवास पर बुलाकर उनकी कविताएं सुनी थीं। आंदोलन के दिनों के चर्चित कवि गोपावल्लभ सहाय के शब्दों में ‘चौहत्तर आंदोलन के कवियों के नसीब में एक ऐसी शाम भी आई, जब उस क्रांतिकारी आंदोलन के शिल्पकार लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने उन्हें बुलाकर तीन घंटे तक कविताएं सुनीं।

‘बिहारी-आंदोलन वार्षिकी’ (सम्पादक : श्री राम बहादुर राय) में बाबा नागार्जुन की वह कविता छपी है, जो नुक्कड़ कविता के रूप में १९७४ ई. में काफी चर्चित हुई थी। इसमें बाबा नागार्जुन ने श्रीमती गांधी को दुत्कारा है। ‘रानी-महारानी’, ‘नवाबों की नानी’ ‘सेठों-दलालों की सगी माई’, ‘काले-बाजार की कीचड़’, ‘काई’ जैसे संबोधन से बाबा नागार्जुन ने श्रीमती गांधी को संबोधित किया है। पटना के नुक्कड़ों पर बाबा नागार्जुन जब हाथ नचाकर जादूगर की तरह इस कविता का पाठ करते थे तो अनायास ही सैकड़ों की भीड़ जमा हो जाया करती थी। बाबा नागार्जुन की यह कविता इस प्रकार है

‘इंदु जी! क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को।
छात्रों के खून का चस्का लगा आपको,
काले चिकने माल का मस्का लगा आपको,
किसी ने जो टोका, तो ठस्का लगा आपको,
बेटे को याद रखा, भूल गईं बाप को,
क्या हुआ आपको?
रानी महारानी आप।
नवाबों की नानी आप।
सेठों दलालों की सगी माई आप,
काले बाजार की कीचड़ और काई आप।
सुन रही, गिन रही,
हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को।
बेटे को तार दिया। बोर दिया बाप को।

७४ के आंदोलन के बाद बाबा नागार्जुन की भूमिका हास्यास्पद हो गई। जेल जाने के बाद तो उनकी भूमिका पूरी तरह बदल गई। वे क्षमा याचाना कर जेल से लौटे और आंदोलनकारियों की कब्र खोदने लगे। कभी इंदिरा गांधी को धिक्कारने वाले बाबा नागार्जुन अब लोकनायक जयप्रकाश को काहिल, आरामपसंद, असहनशील, डरपोक, कपटी, क्रूर कहने लगे।

बिहार की सुप्रसिद्ध साहित्यकार मृदुला सिन्हा की कहानी ‘जब-जब होहिं धरम की हानि’ आपात काल की व्यथा और पीड़ा को अभिव्यंजित करती है। जेल की यातना भोगते हरिपद और बेबस सुनयना के विलाप मन-प्राणों को स्पर्श करने वाले हैं। आपात काल में जबरदस्ती की जाने वाली नसबंदी पर इस कहानी के ताने-बाने बुने गए हैं। अंत में सुनयना और हरिपद की मृत्यु हो जाती है। दुखांत होने के कारण यह कहानी स्मरणीय बन गई है।

आपात काल के दौरान काव्य-रचना करने वाले बिहार के रचनाकारोंे में कविवर परेश सिन्हा, रॉबिन शॉ पुष्प, प्रो. डॉ. तपेश्वर नाथ, सत्य नारायण, रवींद्र राजहंस, पद्मश्री पोद्दार राम अवतार अरुण, केदार नाथ लाभ, डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद, मुकुट बिहारी पांडेय, सच्चिदानंद आजाद, चंद्रशेखर सिंह, पं. राम दयाल पांडेय, कलेक्टर सिंह केसरी, डॉ. अमर नाथ सिन्हा, प्रो. आनंद नारायण शर्मा, जय गोविंद सहाय उन्मुक्त, भागवत प्रसाद सिंह, लक्ष्मी नारायण सिंह, डॉ. मनोरंजन झा, मिश्री लाल जायसवाल, आचार्य निशांतकेतु, प्रकाश चंद्रायन, चंद्र प्रकाश माया, फणीश्वर नाथ रेणु, शिव प्रसाद लोहानी, शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

कुल मिलाकर बिहार के रचनाकारों की कविताओं में चुनौती और ललकार के   स्वर अनुगुंजित होते हैं। कवियों ने न केवल कागजों पर सत्ता के विरोध को रेखांकित किया अपितु चौक-चौराहों पर अपनी रचनाओं का पाठ भी किया। किसी ने लोक चेतना जागृत की तो किसी ने सत्ता के खिलाफ संघर्ष के लिए छंदोबद्ध नारे लिखे। नुक्कड़ों पर कभी गीत गाए तो कभी तुकांत कविताओं का सस्वर पाठ किया। इसलिए उस समय की अधिकतर रचनाएं तुकांत हैं। आजादी की दूसरी लड़ाई के रूप में इसे लड़ा गया। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों ने आपात काल के भुक्तभोगियों को पेंशन देने की भी घोषणा की है। भारतीय लोकतंत्र के स्वर्णिम इतिहास में आपात काल के काले अध्याय पर लेखनी चलाने वाले कवि-साहित्यकारों को सरकार के साथ-साथ अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने भी सम्मानित किया है।
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