डॉ. हेडगेवार का वैचारिक अधिष्ठान और संघ

हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान की जीवन-सांस है। यह इसलिए स्पष्ट है कि यदि हिंदुस्थान की रक्षा करनी है तो हमें पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा। अगर हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान में ही नष्ट हो जाती है और अगर हिंदू समाज का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो यह उचित नहीं होगा कि हम केवल भौगोलिक सीमाओं की बात करें, जो हिंदुस्थान के नाम पर बची रह जाएंगी। केवल भौगोलिक पिंड कोई राष्ट्र नहीं बनाते।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने साल 1925 में विजयदशमी के दिन की। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार रविवार 1 अप्रैल, 1889 को तथा भारतीय पंचांग के अनुसार वर्ष प्रतिपदा के दिन जन्मे डॉ. हेडगेवार ने लगभग 36 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत नागपुर में की। वह संघ के प्रथम सरसंघचालक थे। साल 2025 में संघ 100 वर्ष का होने जा रहा है लेकिन आज भी उसका वैचारिक अधिष्ठान वही है जो डा. हेडगेवार ने स्थापित किया था इसलिए बीतते समय के साथ यह संगठन और अधिक विस्तार भी ले रहा है और मजबूत भी हो रहा है। आखिर यह वैचारिक अधिष्ठान है क्या? इस संदर्भ में कुछ प्रसंगों के माध्यम से चर्चा करने का प्रयास यहां करेंगे, जिससे संभवत: इस संबंध में स्पष्टता मिल सकेगी।

वर्ष 1933 में डॉ. हेडगेवार द्वारा की गई टिप्पणी उनके द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संरचना को लेकर उनकी परिकल्पना को स्पष्ट करती हैं, जो कि डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए की थी।

1.मैं इस तथ्य के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक हूं कि मैं संघ का उद्भावक नहीं हूं, न ही इसका संस्थापक हूं; संघ के अस्तित्व का श्रेय आप सबको है।

2.आपकी इच्छा और मांग के अनुसार मैं संघ के लिए एक पालक का कार्य कर रहा हूं, जिसे आप लोगों ने स्थापित किया है।

3.भविष्य में भी मैं इसे जब तक आप चाहेंगे और जब तक आप मुझे ऐसा करने का आदेश देते रहेंगे, मैं संघ का पोषण करता रहूंगा। मैं कभी भी किसी समय पर अपनी जिम्मेदारी से दूर नहीं भागूंगा, चाहे मुझे किसी खतरे का आभास भले ही हो या फिर मेरी व्यक्तिगत प्रसिद्धि और मानहानि की संभावना हो।

4.परंतु कभी भी यदि आपको लगे कि मैं इस कार्य में अब अक्षम हूं और यह कि इससे संघ की उन्नति में बाधा आ रही है, मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप किसी अन्य को मेरे स्थान पर नियुक्त कर दें।

5.जब आप मेरा उत्तराधिकारी चुनें तो मैं उसे स्वेच्छा से, उसी खुशी के साथ, जिसके साथ मैंने कार्यभार संभाला था, संघ की बागडोर सौंप दूंगा और उसी क्षण से आगे के लिए एक साधारण स्वयंसेवक के रूप में कार्य शुरू कर दूंगा तथा संघ के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहूंगा।

6.क्योंकि जहां तक मेरा प्रश्न है, मेरे व्यक्तित्व का कोई महत्त्व नहीं है; संघ का कार्य ही एक ऐसा क्षेत्र है, जो सर्वोपरि है और मैं कोई भी ऐसा कार्य करने में, लेशमात्र भी अपमान महसूस नहीं करूंगा, जो संघ की उन्नति में सहायक होगा।

7.यह अति आवश्यक है कि स्वयंसेवकों को निस्संदेह सरसंघचालक का आदेश पालन करना होगा। संघ कभी भी उस अवस्था में नहीं जाना चाहिए कि जहां पूंछ सारे शरीर को हिलाती रहे। यही संघ की सफलता का राज है।

  1. इसलिए प्रत्येक स्वयंसेवक का मूल कर्तव्य है कि वह दिए गए निर्देश का अनुपालन करे और यह सुनिश्चित करे कि अन्य स्वयंसेवक भी उसका अनुसरण कर रहे हैं।

जैसे-जैसे संघ का विस्तार हुआ, ऐसी खबरें आने लगीं कि कांग्रेस और ’हिंदुस्थानी सेवा दल’ इसके खिलाफ हैं। दादा परमार्थ और कृष्ण राव मोहरीर को लिखे एक पत्र में डॉ. हेडगेवार ने कहा, आपने अपने पत्र में मुझे एक महत्त्वपूर्ण घटना के बारे में सूचित किया। हमारी भगवान से प्रार्थना है कि वे इन आलोचकों का मार्गदर्शन करें। जहां तक हमारा प्रश्न है, हम ईश्वर में निष्ठा रखते हुए कार्य करते हैं और अपनी आत्मा की आवाज सुनते हैं। अगर हम अपनी इस प्रक्रिया में कुछ वर्गों को खुश नहीं रख पाते या कुछ ऐसे हैं, जिनका हमारी आलोचना करना मुख्य कार्य है, तो हम क्या कर सकते हैं? इन सब बातों के मूल में राजनीति है। हमें औरों के इन संकेतों से डरना नहीं चाहिए, जो हमारे प्रति दुर्भावना से पैदा हुए हैं।

वास्तव में जब कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि उन्हें संपूर्ण स्वराज चाहिए, डॉ. हेडगेवार ने तुरंत एक परिपत्र सभी शाखाओं को जारी किया, इस वर्ष कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें उन्होंने ’संपूर्ण स्वतंत्रता’ को लक्ष्य घोषित किया है। कांग्रेस की कार्यसमिति ने संपूर्ण राष्ट्र का आह्वान करते हुए रविवार, 26 जनवरी, 1930 को ’स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाने के लिए कहा है। हम संघ से सम्बंधित लोग स्वाभाविक रूप से इस बात से अत्यधिक प्रसन्न हैं कि अखिल भारतीय कांग्रेस ने हमारे ’संपूर्ण स्वतंत्रता’ के नारे का समर्थन किया है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम किसी भी उस संस्था के साथ मिलकर सहयोग करें, जो उस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रही है; इसलिए यह सुझाव दिया जाता है कि रविवार, 26 जनवरी, 1930 के दिन शाम छह बजे सभी शाखाओं के स्वयंसेवक एक बैठक में इकट्ठे हों, जो उनके अलग-अलग संघ स्थानों पर हों। भगवा ध्वज को प्रणाम करने के बाद स्वतंत्रता की अवधारणा और कारण कि क्यों न इसे सिर्फ एक आदर्श के रूप में अपनाया जाए, की व्याख्या की जाए। समारोह का समापन कांग्रेस के प्रति एक बधाई दिए जाने के रूप में किया जाए कि उन्होंने संपूर्ण स्वतंत्रता के आदर्श विचार को अपना लिया है।

इस परिपत्र के जारी होने के फलस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सभी शाखाओं ने ’स्वतंत्रता दिवस’ मनाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ने इस संदर्भ में जो टिप्पणी की उसे देखना भी रुचिपूर्ण होगा।

हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान की जीवन-सांस है। यह इसलिए स्पष्ट है कि यदि हिंदुस्थान की रक्षा करनी है तो हमें पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा। अगर हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान में ही नष्ट हो जाती है और अगर हिंदू समाज का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो यह उचित नहीं होगा कि हम केवल भौगोलिक सीमाओं की बात करें, जो हिंदुस्थान के नाम पर बची रह जाएंगी। केवल भौगोलिक पिंड कोई राष्ट्र नहीं बनाते। बदकिस्मती से कांग्रेस ने हिंदू धर्म तथा हिन्दू संस्कृति की सुरक्षा के लिए कोई विचार नहीं किया है। यह संस्था हिंदू समाज पर बाहरी व्यक्तियों द्वारा लगभग प्रतिदिन किए जाने वाले आक्रमणों के प्रति अपनी आंखें मूंदे बैठी है। हिंदू समाज को सुरक्षा प्रदान करना हमारा का कर्तव्य है, जिसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया है, परंतु संघ कांग्रेस के प्रति कोई दुर्भावना नहीं रखता। संघ स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयत्नों में कांग्रेस से सहयोग करेगा, जब तक कि ये प्रयत्न राष्ट्रीय संस्कृति को बचाने के काम में बाधा नहीं बनते।

इन कुछ एक प्रसंगों और उनके संदर्भ में डॉ. हेडगेवार के विचारों से स्पष्ट होता है कि वह संघ को एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में एक देशव्यापी विस्तार लिए हुए देखना चाहते थे जो क्षुद्र राजनीति से प्रभावित न होकर व्यापक हिंदू समाज के संगठन के लिए काम करे और इस संगठन का श्रेय भी स्वयं न लेकर समाज को ही दे। इसी वैचारिक अधिष्ठान के साथ संघ आज भी आगे बढ़ रहा है।

 

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