…ताकि पृथ्वी बची रहे

दुनिया भर के वैज्ञानिक अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं, आकाशगंगा और उसके बाहर जीवन के तत्व तलाशने में। सबकी सोच है कि पृथ्वी के बाहर कोई बेहतर जगह तलाश की जाए ताकि अपने देश के लोगों को वहां बसाकर बेहतर जिंदगी दी जा सके। बड़ी अच्छी बात है। लेकिन यदि उसी पैसे को इस धरा धाम की प्रगति में लगा दिया जाए तो यहां का प्रदूषण तो समाप्त हो ही जाए, तमाम गरीब देशों के बाशिंदे जीवन प्रगति के कुछ ऊंचे सोपान भी छू जाएं। लेकिन विकसित देशों के लिए छोटे और गरीब देश उन तिलचट्टों की तरह हैं जो अनादि काल से इस धरती के बाशिंदे हैं और यदि परमाणु बम से किसी दिन कोई सिरफिरा इस दुनिया को खत्म कर दे तब भी जिंदा रहेंगे। इसलिए इन तिलचट्टों को खत्म कर दिया जाए या उनकी सभ्यता खत्म कर आधुनिक सभ्य बना दिया जाए। उन गरीब देशों को सभ्य बनाने के लिए इनके पास केवल बम हैं। हरिशंकर परसाई के शब्दों में, विकसित राष्ट्र बम गिराते हैं और लोगों को लगता है कि सभ्यता बरस रही है। तथाकथित नव अगुआ चीन ने तो एक नया बम तैयार कर लिया है। छोटे देशों का इतना दोहन करके पंगु बना दो कि वे दिवालिया हो जाएं।

 नए अनुसंधान होने चाहिए, लेकिन किस कीमत पर? इस बात की क्या गारंटी है कि कोई नई जगह मिल ही जायेगी! और यदि मिल गई तो मानवों के लिए पूर्णतया अनुकूल ही होगी? इसलिए बेहतर है कि अपनी पृथ्वी को ही इस लायक बना दिया जाए कि आने वाली पीढ़ियां सुकून से रह सकें। इसी स्वप्न को साकार करने के लिए अमेरिकी सीनेटर गेलार्ड नेल्सन ने सबसे पहले, अमेरिकी औद्योगिक विकास के कारण हो रहे पर्यावरणीय दुष्परिणामों पर अमेरिका का ध्यान आकर्षित किया था। इसके लिये उन्होंने अमेरिकी समाज को संगठित किया, विरोध प्रदर्शन एवं जनआन्दोलनों के लिये प्लेटफार्म उपलब्ध कराया। वे लोग जो सांता बारबरा तेल रिसाव, प्रदूषण फैलाती फैक्ट्रियों और पावर प्लांटों, अनुपचारित सीवर, नगरीय कचरे तथा खदानों से निकले बेकार मलबे के जहरीले ढेर, कीटनाशकों, जैवविविधता की हानि तथा विलुप्त होती प्रजातियों के लिये अरसे से संघर्ष कर रहे थे, उन सब के लिये यह जीवनदायी हवा के झोंके के समान था। वे सब उपर्युक्त अभियान से जुड़े। देखते-देखते पर्यावरण चेतना का स्वस्फूर्त अभियान पूरे अमेरिका में फैल गया। दो करोड़ से अधिक लोग आन्दोलन से जुड़े। ग़ौरतलब है, सन् 1970 से प्रारम्भ हुए इस दिवस को आज पूरी दुनिया के 192 से अधिक देशों के 10 करोड़ से अधिक लोग 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाते हैं। प्रबुद्ध समाज, स्वैच्छिक संगठन, पर्यावरण-प्रेमी और सरकार इसमें भागीदारी करती हैं।

वैसे  नेल्सन के प्रयासों के बहुत साल पहले महात्मा गांधी  ने भारतवासियों से आधुनिक तकनीकों का अंधानुकरण करने के विरुद्ध सचेत किया था। गांधी मानते थे कि पृथ्वी, वायु, जल तथा भूमि हमारे पूर्वजों से मिली सम्पत्ति नहीं है। वे हमारे बच्चों तथा आगामी पीढ़ियों की धरोहरें हैं। हम उनके ट्रस्टी भर हैं। हमें वे जैसी मिली हैं, उन्हें उसी रूप में भावी पीढ़ी को सौंपना होगा। उनका यह भी मानना था कि पृथ्वी लोगों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये पर्याप्त है किन्तु लालच की पूर्ति के लिये नहीं। विकास के त्रुटिपूर्ण ढांचे को अपनाने से असंतुलित विकास पनपता है। यदि असंतुलित विकास को अपनाया गया तो धरती के समूचे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाएंगे। वह जीवन के समाप्त होने तथा महाप्रलय का दिन होगा। गांधी ने बरसों पहले भारत को विकास के त्रुटिपूर्ण ढांचे को अपनाने के विरुद्ध सचेत किया था। उनका सोचना था कि औद्योगिकीकरण सम्पूर्ण मानव जाति के लिये अभिशाप है। इसे अपनाने से लाखों लोग बेरोजगार होंगे। प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होगी। बड़े उद्योगपति कभी भी लाखों बेरोजगार लोगों को काम नहीं दे सकते।

गांधी के ही शब्दों में कहें तो, सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत स्वयं से करनी चाहिए। दुनिया के छठवें हिस्से की जनसंख्या वाला देश होने के नाते हमें इस दिशा में सार्थक कदम उठाने चाहिए क्योंकि हमारे कई महानगर गंदगी और प्रदूषण के मामले में अंतरराष्ट्रीय मानक के आधार पर निचली पायदानों पर हैं। प्रकृति ने हमें उपहार स्वरूप लाखों प्रजातियां दी थीं  इनमें से कई प्रजातियों को जान पाने में हम अब भी असक्षम हैं। हमारे द्वारा उत्पन्न प्राकृतिक असंतुलन और प्रदूषण से अब तक कई प्रजातियां विलुप्त भी हो चुकी है। हमारा कर्तव्य बनता है कि बची हुई प्रजातियों को बचाने की दिशा में प्रयत्न करें तथा पेड़ लगाकर धरती के श्वसनतंत्र को मजबूत बना सकें।

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