तिब्बतियों का आत्मक्लेश

चीन के आक्रामक दावे को तिब्बतियों ने कभी स्वीकार नहीं किया है। वे चीन से संघर्ष कर रहे हैं। चीन ने दावा किया कि तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है। भारत सहित किसी ने भी इस दावे का कड़ा विरोध नहीं किया है, इसलिए तिब्बती संघर्ष अकेले चल रहा है।

भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ और तिब्बत में 1950 में चीनी सेना ने कब्जा कर लिया। भारत की आज़ादी की लड़ाई इतिहास के जिस कालखण्ड में समाप्त हुई, तिब्बत की आज़ादी की लड़ाई उस कालखण्ड में शुरु हुई। तिब्बत में चीनियों द्वारा सात दशकों से भी अधिक काल से किए जा रहे अत्याचार भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता और चुनौती का विषय है। चीन ने तिब्बत में मानवाधिकारों का जितना उल्लंघन किया है, तिब्बतियों पर जितने जघन्य अत्याचार हुए हैं और अभी भी कर रहा है, वैसा निकृष्ट उदाहरण विश्व इतिहास में मिलना मुश्किल है। 1950 से तिब्बत पर चीन के कब्जे को लेकर अब तक लगभग 12 लाख तिब्बती मारे जा चुके हैं। तिब्बत के ढाई हजार बौद्ध मठों में से कुछ ही मठ शेष बचे हैं जबकि 93 प्रतिशत लामाओं को देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया।

इतना सब कुछ होने के बाद भी वैश्विक स्तर पर तिब्बत को न्याय क्यों नहीं मिलता? उसके कुछ विशेष कारण हैं। तिब्बत भौगोलिक दृष्टि से वैश्विक शक्तियों के लिए अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। अमेरिका तिब्बत से पश्चिम एशियाई राजनीति में प्रवेश नहीं करना चाहता। जब ईराक ने कुवैत पर आक्रमण किया था तब अमेरिका ने इसका विरोध किया था परंतु चूंकि तिब्बत में कुवैत जैसा तेल नहीं मिलता अत: अमेरिका को तिब्बत के प्रति गंभीरता दिखाने का कोई कारण नहीं है। तिब्बत चीन जैसी महाशक्ति के नियंत्रण में है। चीन का भौगोलिक, राजनीतिक, सैन्य और अब आर्थिक ’प्रभुत्व’ इतना विशाल है कि दुनिया के किसी भी देश में इसे चुनौती देने का साहस नहीं बचा है।  सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से इतने बड़े चीन को कौन छेड़ेगा? इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि जब चीन की केंद्र सरकारें कमजोर थी तो उन्होंने तिब्बत पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। तिब्बत स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा, लेकिन जब चीनी शक्ति मजबूत होती गई, तो चीनी सरकार ने हमेशा तिब्बत पर अपना दावा किया है। चीन के इस आक्रामक दावे को तिब्बतियों ने तब भी स्वीकार नहीं किया था और आज भी इसे स्वीकार नहीं किया जा रहा है। वे चीन से संघर्ष कर रहे हैं। चीन ने दावा किया कि तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है। भारत सहित किसी ने भी इस दावे का कड़ा विरोध नहीं किया है, इसलिए तिब्बती संघर्ष अकेले चल रहा है।

तिब्बत पर पू. श्री गुरुजी के विचार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तिब्बत की स्वतंत्रता का पक्षधर रहा है। संघ ने तो अनेक स्थानों पर यह मत भी व्यक्त किया है कि तिब्बत को स्वतंत्र कराने का उत्तरदायित्व भारत को लेना चाहिए। 1962 के चीनी आक्रमण के बाद जब कुछ लोग भारत सरकार को कमजोर स्थिति में चीन से समझौता करने का परामर्श दे रहे थे, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पू. श्री गुरुजी ने सभी को सचेत किया कि जनता को शिक्षित और संचालित कर समाज की सामूहिक इच्छा को जागृत करना हमारा कर्तव्य है। जिससे कि हमारे नेतागण आक्रान्ताओं से कोई अपमानजनक समझौता न कर सकें। शत्रु को तिब्बत से बिना निकाल बाहर किये युद्धबन्दी स्वीकार करना सामरिक दृष्टि से भयंकर भूल होगी।

जाहिर है कि पू. श्री गुरुजी तिब्बत की स्वतन्त्रता को भारत की सुरक्षा के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते थे। हम तिब्बतियों को उन्हें अपने देश की स्वाधीनता का संघर्ष चलाने के लिये सब प्रकार की सहायता दें। बिना स्वाधीन एवं मैत्रीपूर्ण तिब्बत के हमारी सम्पूर्ण उत्तरी सुरक्षा केवल उपहास मात्र है। एक प्रकार से गुरुजी ने जनता को शिक्षित करने की बात कहकर कार्य की दिशा का संकेत कर दिया था। तिब्बती राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल ने अपने राष्ट्रीय सम्मेलन को सम्बोधित करने के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन हिमगिरि प्रान्त प्रचारक इन्द्रेश कुमार को निमंत्रित किया। यह सम्मेलन 27 सितम्बर 1998 को धर्मशाला में हुआ था। सम्मेलन में इन्द्रेश कुमार ने कहा – हम भारत के लोग तिब्बती दोस्तों के उस प्रत्येक मार्ग के समर्थक हैं, जिससे तिब्बत को चीन के चंगुल से मुक्त करवाया जा सके। मेरा यह पूरा विश्वास है कि तिब्बत अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त करके रहेगा। भारत की ताकत में तिब्बत की ताकत है। भारत की इज्जत में तिब्बत की इज्जत है। अपने हर दु:ख में आप लोग हमें अपने साथ पाओगे। इन्द्रेश कुमार का तिब्बत को यह आश्वासन दरअसल भारत के लोगों की आन्तरिक भावना को प्रकट करने वाला था। इसी काल में भारत-तिब्बत सहयोग मंच का अमूर्त बीजारोपण भी हो गया था। मई, 1999 को धर्मशाला में ’भारत-तिब्बत सहयोग मंच’ का गठन किया गया।

तिब्बती अपनी भाषा और संस्कृति को बचाकर अपनी प्रादेशिक पहचान को बनाए रखना चाहते हैं। तिब्बतियों में यह भावना है कि चीन उनकी क्षेत्रीय पहचान का गला घोंट रहा है। दलाई लामा को 17 मार्च 1959 को रात में तिब्बत से भागना पड़ा और भारत में

शरण लेनी पड़ी। अब तो दलाई लामा पूर्ण स्वतंत्रता की बात छोड़ तिब्बत के स्वायत्तशासी क्षेत्र की ही बात कर रहे हैं। 1959 में तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के भारत में शरण लेने के बाद से तिब्बती संघर्ष कर रहे हैं। चीन तिब्बत की क्षेत्रीय पहचान के मुद्दे को स्वीकार नहीं करता है। उन्होंने कहा, तिब्बत चीन का ही है और तिब्बत की पहचान चीनी संस्कृति से ही जुड़ी है। चीन अपने अड़ियल रुख से पीछे हटने को तैयार नहीं है। दलाई लामा ने स्वायत्तता का विकल्प चुना है। तिब्बती चाहते हैं कि चीन रक्षा, सेना, विदेशनीति संबंधों और अर्थव्यवस्था को छोड़कर तिब्बतियों के प्रशासन और संस्कृति में हस्तक्षेप न करे। तिब्बतियों को उम्मीद है कि चीन तिब्बतीयों के जीवन की व्यापकता पर कब्जा नहीं करेगा। चीन नहीं चाहता कि तिब्बत की क्षेत्रीय पहचान बनाए रखने के लिए उसे स्वायत्तता प्रदान की जाए और न ही चीन ने दलाई लामा के स्वायत्तता के प्रस्ताव को स्वीकार किया है। भारत ने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। भारत ने निर्वासन में दलाई लामा और उनकी सरकार को आश्रय और समर्थन दिया है, लेकिन इससे आगे, भारत ने तिब्बतियों की स्वतंत्रता को लेकर चीन पर अब तक कोई भी दबाव नहीं डाला है।

भारत की सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो, तिब्बत की स्वतंत्रता भारत की उत्तरी सीमा की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी है। तिब्बत शुरू से ही भारत, चीन और सोवियत रूस के बीच ’बफर राज्य’ के रूप में स्थित रहा है। तिब्बत पर चीनी कब्जे से भारत-तिब्बत सीमा अब भारत-चीन सीमा में परिवर्तित हो गई है। इस कब्जे से पहले भारत-तिब्बत की 3320 किलोमीटर लंबी सीमा विश्व की सबसे लंबी शांत सीमा मानी जाती थी। तब 100 से भी कम जवान भारत-तिब्बत सीमा के दक्षिणी भाग की रक्षा में तैनात होते थे। अब भारत को इसकी रक्षा के लिए 7-8  डिवीजन सेना स्थायी रूप से रखनी पड़ रही है। तिब्बत पर अपना कब्जा जमा कर वहां के गोरमो से ल्हासा तक रेल लाइन, सड़क और अन्य आधुनिकतम सुविधाओं का जाल चीन बिछा रहा है। इससे चीनी सैनिकों के लिए बहुत कम समय में भारतीय सीमा पर भारी अस्त्र-शस्त्र पहुंचाना सरल हो जाएगा। आज चीन तिब्बत में अत्याधुनिक प्रक्षेपास्त्रों से युक्त अड्डे बना चुका है। यहां 13 हजार किलोमीटर की दूरी तक मार करने वाले मिसाइल हैं, जो एशिया के विभिन्न दूरस्थ क्षेत्रों तक निशाना साध सकती हैं। बड़ी संख्या में मिसाइलों और परमाणु हथियारों को तिब्बती पठार पर तैनात किया गया है। अगर चीन का अमेरिका या किसी महाशक्ति के साथ परमाणु युद्ध होता है, तो इसका तिब्बत से मुकाबला किया जाएगा। जो होगा वह नुकसान तिब्बत का होगा, चीन की मुख्य भूमि का नहीं। भारत सरकार इसे चीन का आंतरिक मामला बता कर चुप्पी साधे हुए है।विगत छह दशकों से भारत सरकार का रवैया भले ही तिब्बत के मसले पर हैरान करने वाला हो, परंतु यहां के लोग तिब्बत के साथ हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कभी तिब्बत के पक्ष में कहा था कि ’मैं भी इतिहास के उन मूर्खों में हूं जो निरंतर उन आदर्शों के लिए लड़ते रहते हैं, जिन्हें दुनिया के समझदार, व्यावहारिक लोग हारी हुई लड़ाई मानते हैं।’

चीन द्वारा तिब्बत कब्जे को लेकर भारतीय नेताओं के विचार

भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा 24 मई 1964 को लिखा गया अंतिम पत्र का वाक्य- तिब्बत में जो कुछ हुआ हम उससे उदासीन नहीं हैं लेकिन इस बारे में कुछ प्रभावी कदम उठाने में हम असमर्थ हैं।

चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया है, जिसका केवल एक मतलब हो सकता है कि एक शिशु को मसल डालने के लिए राक्षस ने कदम बढ़ा लिया है। तिब्बत में घुसकर चीन की वर्तमान सरकार ने न केवल अंतरराष्ट्रीय सदाचार की अवहेलना की है बल्कि हिंदुस्तान के हितों पर भी आघात किया है। अच्छा होगा कि भारत सरकार चीनी सरकार को अपनी फौजें हटा लेने की सलाह दे। -डॉ. राम मनोहर लोहिया

अभी भी दुनिया ऐसे ‘मूर्खों’ से खाली नहीं हुई है। तिब्बत की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे तिब्बती और उन्हें समर्थन दे रहे लोगों को वैसे ही ’मूर्खों’ में गिना जा रहा है। तिब्बत की अपनी एक अलग राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, प्राकृतिक और सांस्कृतिक पहचान है। मगर चीनी सरकार द्वारा उसकी इस पहचान को मिटाने की साजिश रची जा रही है। चीन की इसी अदूरदर्शिता की वजह से तिब्बत का मसला बजाय सुलझने के और उलझता चला जा रहा है। अगर ऐसा कहें कि तिब्बत में सांस्कृतिक संहार चल रहा है तो गलत नहीं होगा। पूरे तिब्बत में पिछले छह दशकों से रह रहे तिब्बती जिन्हें चोल्खा-सम (यू-शांग, खाम और आमदो) के नाम से जाना जाता है, चीनी सरकार की दमनकारी नीतियों के साये में सहम कर जीने को मजबूर हैं। उनकी धार्मिक मान्यताओं, अनोखी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीयता बोध ने उन्हें इस आस से बांधे रखा है और उन्हें उम्मीद है कि कभी तो आजादी मिलेगी।

   पंचशील समझौता

1954 का साल भारत-तिब्बत सम्बन्धों का आधिकारिक स्तर पर सबसे निराशाजनक साल था। इसी वर्ष भारत ने चीन के साथ पांच साल के लिए पंचशील का समझौता किया। जिसमें पहली बार तिब्बत को ‘चीन का तिब्बत’ लिखा गया। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने तो राज्यसभा में पंचशील पर हुई बहस में बोलते हुए कहा कि राजनीति में पंचशील का कोई स्थान नहीं है। मुझे नहीं पता भविष्य में क्या होने वाला है परन्तु भारत के प्रधान मंत्री ने चीन को तिब्बत पर अधिकार जमाने देकर चीनी सेनाओं के भारतीय सीमा तक आने में मदद की है। पांच साल का यह काल तिब्बत के लोगों के लिए अपने अस्तित्व को किसी न किसी रूप में बचाने के प्रयासों का काल था। चीन धीरे-धीरे तिब्बत को निगल रहा था। सारा विश्व मौन था। तिब्बत के लोगों को भारत से ही सर्वाधिक आशा थी लेकिन पंडित नेहरू तिब्बत के प्रश्न को चीनी चश्मे से ही देख रहे थे।

चीन का तिब्बत पर 1951 से कब्जा है। उसकी स्वायत्तता की मांग तिब्बती लगातार करते रहे हैं। वह अलग देश की मांग नहीं कर रहे हैं, सिर्फ अपनी उस स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं जिससे वे खुली हवा में सांस ले सकें। अपने धर्म, संस्कृति और रीति-रिवाजों की रक्षा कर सकें। संक्षेप में, चीन तिब्बत पर आक्रमण कर रहा है, वर्तमान दलाई लामा के बाद अगले दलाई लामा पर चीन का नियंत्रण होने की संभावना है। ऐसे में अगले कुछ वर्षों में तिब्बत में वास्तव में क्या होगा? क्या वे चीन के खिलाफ लड़ाई में सफल होंगे? क्या सोशल मीडिया के इस्तेमाल से, भाषणों से फर्क पड़ेगा? क्या चीन तिब्बतियों को वह स्वतंत्रता देगा जो वे चाहते हैं? फिलहाल तो इन सब प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक ही हैं। हालांकि, तिब्बत का स्वतंत्रता संग्राम लंबे समय से चल रहा है। उसे भारत की मदद चाहिए।

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