अद्भुत चित्रकार राजा रवि वर्मा

आज तो चित्रकला की तकनीक बहुत विकसित हो गयी है। अब पेन्सिल, रबड़, रंग या कूची की आवश्यकता ही समाप्त हो गयी लगती है। संगणक (कम्प्यूटर) द्वारा यह सब काम आज आसानी से हो जाते हैं। एक साथ छह रंगों की छपाई भी अब सम्भव है।

पर कुछ समय पूर्व तक ऐसा नहीं होता था। तब एक-एक चित्र को बनाने और उसमें सजीवता लाने के लिए कई दिन और महीने लग जाते थे। चित्र के रंगों में भेद न हो जाये, यह बड़े अनुभव और साधना का काम था। ऐसे युग में भारतीय चित्रकला को पूरे विश्व में प्रसिद्ध करने वाले थे राजा रवि वर्मा।

राजा रवि वर्मा का जन्म केरल के किलिमनूर में 29 अप्रैल, 1848 को हुआ था। इनके घर में प्रारम्भ से ही चित्रकारी का वातावरण था। इसका प्रभाव बालक रवि पर भी पड़ा। वे भी पेन्सिल और कूची लेकर तरह-तरह के चित्र बनाया करते थे।

इनके चाचा राजा राज वर्मा ने इनकी रुचि देखकर इन्हें विधिवत चित्रकला की शिक्षा दी। इसके बाद तो रवि वर्मा ने मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने आगे चलकर चित्रकला की अपनी स्वतन्त्र शैली भी विकसित की। उनकी चित्रकारी सबका मन मोह लेती थी।

एक बार प्रसिद्ध अंग्रेज चित्रकार थियोडोर जौन्सन त्रावणकोर आये। वे रवि वर्मा की चित्रकारी देखकर दंग रह गये। रवि वर्मा ने अपने चित्रों में पात्रों के चेहरे पर रंगों के जो प्रयोग किये थे, उससे थियोडोर जौन्सन बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने रवि वर्मा को कैनवास पर तैल चित्र बनाने का प्रशिक्षण दिया और इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे रवि वर्मा इस प्रकार के तैल चित्र बनाने में भी निष्णात हो गये।

रवि वर्मा अपने चित्रों में हिन्दू पौराणिक कथाओं से पात्रों का चयन करते थे। 1873 में उन्होंने मद्रास में आयोजित एक प्रतियोगिता में भाग लिया। इसमें उनके द्वारा निर्मित नायर महिला के चित्र को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। फिर उन्होंने अपने चित्रों की प्रदर्शिनी पुणे में लगाई। इससे उनकी प्रसिद्धि देश भर में फैल गयी। उन दिनों कैमरे का चलन नहीं था। अतः उन्हें दूर-दूर से चित्र बनाने के निमन्त्रण मिलने लगे।

अनेक राजा-महाराजाओं और धनिकों ने उनसे अपने परिजनों के व्यक्तिगत और सामूहिक चित्र बनवाये। 1888 में बड़ौदा नरेश श्री गायकवाड़ ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया। वे दो वर्ष तक वहाँ रहे और महल की कला दीर्घा के लिए अनेक चित्र बनाये। उनके चित्रों की इतनी माँग थी कि बड़ौदा नरेश ने उन्हें मुम्बई में तैल चित्रों की छपाई के लिए प्रेस स्थापित करने की सलाह दी, जिससे उनके चित्र सामान्य लोगों को भी उपलब्ध हो सकें।

राजा रवि वर्मा ने चित्रकला में एक नया युग प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने कौशल से विश्व भर में भरपूर ख्याति और सम्मान अर्जित किया। उनके चित्र भारत के अनेक महत्वपूर्ण घरानों, राज परिवारों और कला दीर्घाओं में आज भी सुरक्षित हैं। इनमें तिरुअनन्तपुरम् की श्रीचित्र कला दीर्घा प्रमुख है। अब तो उनके चित्रों का मूल्य लाखों-करोड़ों रु. में आँका जाता है।

अपने अन्तिम दिनों में राजा रवि वर्मा अपने जन्मस्थान किलिमनूर ही आ गये और यही कला साधना करते रहे। 2 अक्तूबर, 1906 को त्रिवेन्द्रम के पास अत्तिगल में उनकी कलम और कूची के रंग सदा के लिए मौन हो गये।

 संकलन – विजय कुमार 

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