युद्ध के साये में विश्व

आज जब सारा विश्व एक गांव का स्वरूप ले चुका है तो दो देशों के बीच हो रहे युद्ध का प्रभाव केवल उन देशों तक सीमित रहना असंभव है। वैश्विक भूराजनैतिक तर्क को मानें तो पुतिन उन सभी क्षेत्रों को वापिस पाना चाहते हैं, जो सोवियत के टूटने के बाद रूस से अलग हो गए थे। अगर यह सच है तो इस युद्ध के लंबा खिंचने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगी।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के बारे में दुनिया के महत्वपूर्ण दृष्टिकोणों में से एक सैमुअल पी हंटिंगटन का विख्यात सभ्यताओं का संघर्ष है। हंटिंगटन ने शीत युद्ध के बाद के संघर्ष की स्थिति को मुख्य रूप से सभ्यतागत अंतर्द्वंद्व के रूप में देखा। हंटिंगटन के अनुसार जिन्होंने इतिहास तथा भौगोलिक निकटता और एक आम संस्कृति साझा की थी उनके बीच संघर्ष अवश्यंभावी है। परन्तु मेरे विचार में रूस और यूक्रेन के बीच चल रही संघर्षपूर्ण स्थिति शीत युद्ध सिंड्रोम का उपोत्पाद है, जिसमें रुसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन सोवियत रूस के पुराने गौरवशाली इतिहास को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर पश्चिमी देश सैन्य संगठन नाटो का लगातार विस्तार कर रहे हैं।

1991 में सोवियत संघ का पतन कम्युनिस्ट प्रयोग की एक शर्मनाक विफलता थी। सोवियत संघ के पतन और उसके स्थान पर 15 स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई, सबसे बड़ा और केंद्रीकृत गणराज्य रूस, रूसी संघ के रूप में उभरा। सोवियत संघ के पतन के बाद से रूस की रणनीति ने विश्व शक्ति के रूप में पुन: उभरने पर ध्यान केंद्रित किया और क्षेत्रीय प्रभुत्व स्थापित करने के लिए एक अभियान शुरू कर दिया।

पूर्व रुसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के बाद व्लादिमीर पुतिन का पहला उद्देश्य था रूस के पुराने गौरव को प्राप्त करना तथा पुनः वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित होना, जिसमें सबसे बड़ी चुनौती थी पूर्व में सोवियत संघ में शामिल यूरोप तथा एशिया के देशों पर अपनी पकड़ को मज़बूत रखना।

वर्ष 2008 में पुतिन ने जॉर्जिया की पश्चिमी देशों से बढती नजदीकी तथा नाटो सैन्य संगठन में शामिल होने की नीति से नाराज होकर उसपर आक्रमण कर दिया जिसके परिणामस्वरुप पुतिन ने जॉर्जिया से दो प्रान्तों (अब्खाजिया एवं दक्षिण ओस्सेतिया) को अलग कर उन्हें अलग देश का दर्जा प्रदान कर दिया। आज ऐसे ही हालात यूक्रेन-रूस के बीच भी बने हुए हैं। ऐतिहासिक रूप से रूस-यूक्रेन सम्बन्ध काफी प्रगाढ़ रहे हैं, स्लाविक सभ्यता का केंद्र रहा कीव रुसी शहरों की मां के नाम से प्रसिद्ध है। यूक्रेन की स्थिति पूर्व सोवियत गणराज्य में सैन्य, भौगोलिक और कूटनीतिक रूप से एक अद्वितीय थी। यूक्रेन की अनूठी स्थिति के कारण आज भी रूस इस सम्प्रभु देश पर अपनी नीतियों के द्वारा इस देश की संप्रभुता पर अपना नियंत्रण रखना चाहता है।

लगभग 75 दिनों के सैन्य संघर्ष के पश्चात यह प्रश्न उठ रहा है कि आखिर रुसी राष्ट्रपति का यूक्रेन के विरूद्ध सैन्य अभियान कब रुकेगा। यदि इस युद्ध की पृष्ठभूमि में तीन परिकल्पनाएं रखें, जैसे-

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मैक्सीमिलिस्ट समूह का तर्क है कि रूस 1991 में खोए हुए प्रमुख क्षेत्रों को इकट्ठा करके णडडठ को पुनर्स्थापित करने की ओर अग्रसर है।

यह परिकल्पना कि पुतिन रूस के नक्शे को फिर से बनाना चाहते हैं और सोवियत के बाद के राज्यों के क्षेत्रों को जोड़ना चाहते हैं, पश्चिम में व्यापक रूप से लोकप्रिय है। क्रीमिया पर उनका कब्जा, डोनेट्स्क और लुहान्स्क को अलग-अलग राज्यों के रूप में मान्यता, और यूक्रेन के आक्रमण ने इस तर्क को विश्वसनीयता प्रदान की है।

बाल्टिक देश- एस्टोनिया, लाटविया और लिथुआनिया वास्तव में यह मानते हैं कि पुतिन के पास खोए हुए सोवियत क्षेत्रों को फिर से शामिल करने और पिछले गौरव को बहाल करने का एक बड़ा लक्ष्य है। वे यूक्रेन के घटनाक्रम से चिंतित हैं। उन्हें डर है कि अगर कीव इस युद्ध में हार गया, तो पुतिन अगले बाल्टिक राज्यों की ओर रुख करेंगे। इस विचार के समर्थकों का मानना है कि पुतिन ज़ारिस्ट रूस या णडडठ 2.0 को फिर से बनाना चाहते हैं।

पुतिन अटलांटिक उदार व्यवस्था को नष्ट करने, पश्चिमी लोकतंत्रों को नष्ट करने, अमेरिका और यूरोप के बीच दरार पैदा करने और चीन और अन्य निरंकुश देशों के साथ एक नई भू-राजनीति को पुनर्जीवित करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।

उदारवादी समूह का मानना है कि एक बार कीव में शासन परिवर्तन का उद्देश्य प्राप्त हो जाने के बाद, रूसी सेना पीछे हट जाएगी।

रूस यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को एक पश्चिम-प्रायोजित कठपुतली मानता है जिसके पास राजनितिक वैधता का अभाव है और वह नाटो के नियंत्रण को सुविधाजनक बनाने के लिए एक सहायक की भूमिका निभा रहे है, जिससे नाटो रूस के सीमाओं तक आसानी से पहुंच जाए।

रूस ज़ेलेंस्की के शासन को नव-नाज़ीवादी के रूप में भी देखता है, जो यूक्रेन में रूसी जातीयता के खिलाफ घृणा फैलाता है। पुतिन का प्राथमिक लक्ष्य कीव को जब्त करना है, वलोडिमिर ज़ेलेंस्की की सरकार को आत्मसमर्पण या बाहर निकलने के लिए मजबूर करना और एक रूसी समर्थक शासन स्थापित करना है। यह यानुकोविच के शासन के समान कुछ होगा जो 2014 यूरोमैडन विरोध से पहले मौजूद था।

अन्य रणनीतिकारों का तर्क है कि राष्ट्रपति पुतिन नाटो को पूर्व की ओर विस्तार करने से रोकना चाहते हैं।

नाटो की स्थापना शीत-युद्ध के दौरान सोवियत रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों का सैन्य गठबंधन था परन्तु शीत-युद्ध की समाप्ति के तीन दशक बाद भी नाटो अपनी सदस्य संख्या में लगातार विस्तार किए जा रहा है। यूक्रेन पर सैन्य करवाई से पूर्व रूस ने पश्चिमी देशों के सामने तीन मुख्य मांगें रखी थीं:

  1. नाटो का पूर्व की ओर विस्तार नहीं होना चाहिए।

  2. नाटो रूस की सीमा से लगे देशों में आक्रामक हथियार तैनात नहीं करेगा।

  3. 1997 के बाद गठबंधन में प्रवेश करने वाले देशों में तैनात सैनिकों को वापस लेना चाहिए।

एक तरफ बिडेन प्रशासन के लिए इस तरह की मांग को स्वीकार करने का अर्थ है अफगानिस्तान में विफलता के तुरंत बाद रूस के सामने दूसरा समर्पण करना। क्रेमलिन वार्ता में गतिरोध से निराश था, और उसने अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए एक निर्णायक कदम उठाने का फैसला किया। रूस एक समझौते के लिए तैयार था अगर पश्चिम औपचारिक या अनौपचारिक रूप से यूक्रेन की तटस्थता की गारंटी देता।

हालांकि प्रधानमंत्री मोदी सहित कई वैश्विक नेताओं ने रूस से शांति की अपील की परन्तु पुतिन अपने तीन प्रमुख मुद्दों को सुलझाये बिना सैन्य अभियान को रोकने के लिए सहमत नहीं हैं। विश्व के सभी देश एक अंतरनिर्भर विश्व व्यवस्था में हैं जहां दो देशों के बीच युद्ध का प्रभाव सिर्फ उन दो देशों तक सीमित नहीं रहेगा, अपितु सम्पूर्ण वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित होगी। महंगाई दर में वृद्धि, रासायनिक उर्वरक पदार्थों की अनुपलब्धता वैश्विक खाद्यान संकट को उत्पन्न कर रही है। छोटे देशों की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड रहा है, यूरोप के कई देशों में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम पदार्थों की कमी हो रही है। इस युद्ध का ज्यादा लंबा खिंचना नए वैश्विक मानवीय संकट को खड़ा करेगा जो कोविड-19 की महामारी से भी अधिक वीभत्स रूप ले सकती है।

डॉ . अभिषेक श्रीवास्तव 

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