देशभर में रामनवमी और हनुमान जयंती जैसे त्योहारों की शोभायात्रा पर हुई पत्थरबाजी की घटनाएं जिहादी विचारों से प्रेरित हैं। भारतीय मुसलमानों को समझना होगा कि उनका धर्म भले ही इस्लाम है पर देश में रह रहा प्रत्येक व्यक्ति भारतीय संस्कृति का अंग है और उन्हें इसे आत्मसात करते हुए अलगाववादी मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए।
जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती पर निकली शोभायत्रा पर हथियारों से लैस मुसलमानों ने अचानक पथराव और फायरिंग शुरू कर दी। चारों ओर अफरा-तफरी मचाकर उन्होंने चुन-चुनकर हिंदुओं की दुकानों में तोड़-फोड़ और लूट-पाट की। कई लोगों के मन में यह सवाल है कि शांति से निकाली जा रही शोभायात्रा पर आखिर कट्टरपंथियों ने हमला क्यों किया? क्या यह हमला एक सुनियोजित साजिश थी? देश के कई शहरों में घटी इस प्रकार की घटनाओं को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। इस घटनाक्रम के पीछे की सच्चाई को जानने की कोशिश करना आवश्यक है। दिल्ली के जहांगीरपुरी से लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में रामनवमी और हनुमान जयंती पर निकली शोभायात्राओं पर हमले अचानक नहीं हुए थे। यह एक साजिश थी, जिसके तार बांग्लादेश से लेकर मुस्लिम जिहादी मानसिकता तक जुड़े हैं।
भारतीय मुस्लिम समुदाय पर विचार करें तो ऐसे बहुत से मुसलमान हुए हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति उनके प्रेम में कोई बाधा नहीं है। रसखान और मोहम्मद करीम छागला सच्चे भारतीय थे। लेकिन रसखान और छागला भारत के मुस्लिम समुदाय में असाधारण उदाहरण हैं। भारत के मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे, फिर भी अधिकांश मुसलमान इस देश को अपनी मातृभूमि या पवित्र भूमि नहीं मानते हैं। उन्होंने सम्प्रदाय बदले, पूजा के तरीके बदले, लेकिन इससे उनकी संस्कृति नहीं बदल जाती। इस देश के महापुरुषों तथा परम्पराओं पर उनके विचारों को बदलने की जरूरत थी। लेकिन भारत में अधिकांश मुसलमानों की भावना क्या है? हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद एवं संघर्ष का मूल कारण भारत और भारत के बाहर आस्था का स्थानांतरण है। इस देश का हर हिंदू अपने देश की संस्कृति की परवाह करता है। उन्हें अपने देश की गंगा-यमुना जैसी नदियों से प्रेम है। वह इस देश के सभी महापुरुषों के लिए भावुक है। दूसरी ओर, जादातर भारतीय मुसलमानों को इनमें से किसी से भी कोई लगाव नहीं है। इनका प्रेम भारत के बाहर अरब के मरुस्थल के मैदानों से जुड़ा है। राजनीतिक रूप से वे भारत को अपना देश मानते हैं, लेकिन सांस्कृतिक रूप से उनकी दृष्टि हमेशा भारत से बाहर होती है। इसी साम्प्रदायिक अवधारणा के आधार पर, मुस्लिम लीग और जिन्ना ने जोर देकर कहा कि भारत में दो राष्ट्र होने चाहिए, हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। उसी के परिणामस्वरूप, देश का विभाजन हुआ। बंटवारे के बाद जो मुसलमान भारत में रह गए, उन्होंने भी खुद को भारत की राष्ट्रीय मुख्यधारा में समरस नहीं किया।
भारतीय संस्कृति में गाय का सम्मान किया जाता है। हालांकि, मुसलमान गायों को नीचा देखते हैं। भारतीय स्वतंत्रता की आधारशिला रखने वाला हमारा राष्ट्रगान ‘वंदे मातरम’ है। मुसलमानों का ‘वंदे मातरम’ कहना उनके धर्म के खिलाफ है, मानकर वे इसका विरोध करते हैं। यहां के मुसलमानों को मातृभूमि की पूजा स्वीकार्य नहीं है। मुसलमानों के भारत आने से पहले के भारतीय इतिहास से उनका कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए भारतीय मुसलमान राम और राम मंदिर को अपनी सांस्कृतिक विरासत नहीं मानते। भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति सम्मान को भारतीय मुसलमानों द्वारा इस्लाम विरोधी कृत्य माना जाता है। देश के बंटवारे के 75 साल बाद भी ज्यादातर मुसलमान खुद को भारत से अलग मानते हैं।
यहां मूल प्रश्न जिहादी मुस्लिमों की अलगाववादी मानसिकता का है। भारत में मुसलमान हिंदू शब्द से नाराज हैं। अगर हमें अपने राष्ट्र और अपनी राष्ट्रीयता को मजबूत करना है, तो हमें यह सोचना है कि किस मुस्लिम को राष्ट्रीय कहा जा सकता है? जो इस देश के उत्थान के लिए अपना पूरा योगदान देता है, जो इस देश की परम्पराओं का सम्मान करता है, जो अपनी पूजा का पालन करते हुए राष्ट्रीय मूल्यों का ध्यान रखता है, उसे राष्ट्रीय या भारतीय कहा जा सकता है। भारत में मुसलमानों के भारतीयकरण का अर्थ इस प्रकार बहुत सरल है। इन सबका मतलब है कि उनके दिमाग का भारतीयकरण होना आवश्यक है। भारतीयकरण का मतलब यह नहीं है कि मुसलमान अपनी पूजा पद्धति छोड़ दें। क्या भारत में किसी ने इस बात पर जोर दिया है कि मुसलमानों को मूर्तियों की पूजा करनी चाहिए? लेकिन उन्हें राम और कृष्ण को भी अपना पूर्वज मानना चाहिए। ऐसा करने से न तो मूर्तिपूजा होती है और न ही इससे इस्लाम का उल्लंघन होता है। भारतीय संस्कृति और हिंदू समाज मुसलमानों से और कुछ उम्मीद नहीं करते हैं। यह राष्ट्रीयता का बहुत ही सरल अर्थ है।
हालांकि देश में कई सम्प्रदाय हैं, लेकिन इन सब सम्प्रदायों की संस्कृतियों को मिलाकर भारत की संस्कृति बनी है, यह मान लेना आत्मघाती है । यह मानना गलत है कि इस देश में कई संस्कृतियां हैं। अंग्रेजों ने सबसे पहले इस विचार को अपने स्वार्थ के लिए बोया। अब इस विचार का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए करना जारी है। अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीय संस्कृति में एकीकृत करने की कोशिश करने के बजाय, उन्हें अपने मतभेदों को बनाए रखने और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उकसाया जाता है। जातिवादी समूहों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए राष्ट्रवादी हिंदुओं को जातिवादी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वे हिंदुओं की राष्ट्रवादी छवि को भी विकृत कर रहे हैं। दुनिया में कई मुस्लिम देश हैं जहां मुख्य रूप से मुसलमान रहते हैं। लेकिन क्या आपको लगता है कि उन सभी देशों की संस्कृति और राष्ट्रीयता एक है? अनुभव ठीक इसके विपरीत है। सिर्फ मुस्लिम धर्म के होने के कारण इन सभी की संस्कृति और राष्ट्रीयता एक है, तो पाकिस्तान और बांग्लादेश अलग क्यों हुए? दुनिया के कई देशों में मुस्लिम बहुल हैं। क्या यही कारण है कि उनकी संस्कृति एवं सभ्यता एक है? दुनिया के सभी मुसलमानों की संस्कृति एक नहीं है, यह उसका उत्तर है। इससे केवल यही निष्कर्ष निकलता है कि धर्म ही संस्कृति और राष्ट्रीयता का आधार नहीं हो सकता। यद्यपि पूजा पद्धति एक ही है, प्रत्येक देश की प्रकृति और संस्कृति भिन्न हो सकती है। मूल सवाल मन की स्थिति का है। जब तक भारत में हिंदू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, क्रिश्चियन संस्कृति जैसी विभिन्न संस्कृतियों का भ्रम बना रहेगा, जब तक हम कहते रहेंगे कि भारत देश में कई संस्कृतियां है, तब तक भारतीय राष्ट्रवाद का विचार यहां जड़ नहीं पकड़ पाएगा।
भारतीय संस्कृति में कई संस्कृतियों का मिश्रण है, इस मिश्रित संस्कृति को ‘समग्र संस्कृति’ या ‘भारतीय संस्कृति’ कहा गया है। लेकिन यह विचार राजनीति से भरा शुद्ध पाखंड है। जीवित संस्कृति अक्सर नई चीजों को आत्मसात करते हुए बहती है। भारतीय संस्कृति भी यही है। विदेशी आक्रमणकारी अपने साथ अपनी संस्कृतियों को लेकर आए। वह विदेशी संस्कृति बड़ी मात्रा में भारतीय संस्कृति के सागर में विलीन हो गई। ऐसा नहीं है कि बाहर से आने वाली संस्कृति का भारत की मूल संस्कृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। लेकिन भारत की संस्कृति का मूल प्रवाह इतना तेज था कि इसने नए को आत्मसात करके अपना रूप बरकरार रखा। मुसलमानों से पहले और भी संस्कृतियां यहां आई। वे भारतीय धारा में शामिल हो गए। लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ा। इसलिए वे यहां की संस्कृति से नहीं जुड़े। इसी धार्मिक एवं सांस्कृतिक भेद के आधार पर वे भारत देश का विभाजन करने में समर्थ हुए। उनकी कट्टरता आज भी वैसी ही है। नतीजतन, चुनावी राजनीति में मुसलमानों का बाजार मूल्य लगातार बढ़ रहा है। राजनीतिक नेता पहले अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पैदा करते हैं और फिर वोट बैंक निर्माण करते हैं।
रामनवमी और हनुमान जयंती के दिन देशभर में साम्प्रदायिक दंगे मुस्लिम जिहादी मानसिकता वालों के द्वारा किए गए हैं। इन दंगों की नीव में झांककर हम देखेंगे तो हमें दंगों की उत्पत्ति के कारण समझ में आएंगे। इन दंगों के पीछे का कारण सिर्फ हनुमान जयंती और रामनवमी का जुलूस नहीं है। वो तो सिर्फ एक बहाना है। भारत देश को साम्प्रदायिक युद्ध में लाने की प्रवृत्तियां यहां काम कर रही है। कट्टरपंथी और राजनीतिक हितों के संयोजन ने भारत में साम्प्रदायिक तनाव और विघटन की समस्या पैदा कर दी है। इस कारण अल्पसंख्यकों को मुख्य धारा से दूर रखकर भारत देश की मुख्यधारा से अलग-थलग उनका धार्मिक जमावड़ा बनाया जा रहा है। उस धार्मिक जमावड़े को हिंदू संस्कृति के विरोध में जोड़ा जा रहा है। अल्पसंख्यकों को भारत की राष्ट्रीय संस्कृति को अपनाने और आत्मसात करने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय, उन्हें बताया जाता है कि भारतीय संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हनुमान जयंती पर जब हिंदुओं पर पथराव हुआ तो किसी वामपंथी ने इसकी निंदा तक नहीं की। लेकिन जब अतिक्रमण के खिलाफ बुलडोजर चला तो सर्वोच्च न्यायालय में वकीलों की फौज खड़ी हो गई। दंगों में जब हिंदुओं को निशाना बनाया जाता है, तब वामपंथी मौन धारण कर लेते हैं। तथाकथित ‘प्रगतिशील’ और ऐसा जहर फैलाने वाले धर्मनिरपेक्षतावादियों को श्री. छागला द्वारा दिए गए एक बयान को याद करना जरूरी है। उन्होंने कहा था, ‘इस देश में रहने वाले सभी मुसलमान वंश और संस्कृति से हिंदू हैं। भले ही वे धर्म से मुसलमान हैं, लेकिन वे जाति और संस्कृति से हिंदू हैं। स्वतंत्रता के समय भारत ने तय किया था कि हम संविधान से चलेंगे। हमारा संविधान हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, स्त्री-पुरुष के लिए अलग-अलग प्रावधान नहीं करता। वह सबको समानता प्रदान करता है, सबको स्वतंत्रता देता है। सबको गरिमापूर्ण जीवन देता है। इसलिए यहां सभी को अनुच्छेद-35 मिला हुआ है। यह कहता है कि आप अपने धर्म को मान सकते हैं, यानी प्रशासन की अनुमति के तहत शोभायात्रा निकाल सकते हैं। कहां लिखा है कि मस्जिद के आगे से जुलूस नहीं निकल सकता? कहां लिखा है कि रमजान के दौरान हिंदू जुलूस नहीं निकाल सकते? रामनवमी या हनुमान जयंती नहीं मना सकते? यह जो पत्थर मारे जाते हैं, चाहे वह जाफराबाद हो या जहांगीरपुरी, देश के किसी भी हिस्से में हों; वे पत्थर भारत के संविधान पर मारे जाते हैं, भारत के खिलाफ मारे जाते हैं। हिन्दुस्थान में जिहादी मुस्लिमों के द्वारा जो पथराव हो रहा है, वह भारत की संस्कृति के खिलाफ, हिंदू विचारधाराओं, अस्मिताओं के खिलाफ है। दरअसल, जहांगीरपुरी और उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जो दंगे हुए या आंदोलन हुए उनमें एक समानता है। दंगों में हिंदू बहुल इलाकों को निशाना बनाया गया। ये इलाके मुसलमानों की घनी आबादी से घिरे हुए हैं। जितने भी धरने या आंदोलन हुए, सभी मस्जिद के पास हुए। भले ही धरनों के लिए बहाने कुछ भी हों। ये पहले जगह चुनते हैं, फिर अपने राष्ट्र विरोधी मंसूबों को अंजाम देते हैं। इनके लिए मस्जिद के पास भीड़ इकट्ठा करना आसान होता है।
सवाल है, हिंदू धार्मिक स्थानों पर या सांस्कृतिक समारोह पर क्या पथराव पहली बार हुआ है? क्या दंगे में शामिल होने वाले जिहादी मानसिकता वालों को पकड़ने पर भविष्य में दंगा रुक जाएगा? 2020 में जब उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए थे, उस समय भी दंगा प्रभावित जाफराबाद, मुस्तफाबाद और चांदबाग में जो जिहादी हिंसा का नजारा देखा गया था, जहांगीरपुरी और देश के अन्य भागों में रामनवमी और हनुमान जयंती पर हुए दंगों में भी देखा गया। आखिर कब तक देशभर का हिंदू समाज यह सब बर्दाश्त करता रहेगा? क्यों हम जिहादी बीमारी का इलाज नहीं करना चाहते? अगर इसे रोका नहीं गया तो भविष्य में हालात भयावह होंगे। इस बढ़ती मजहबी कट्टरता पर कानून का असर दिखाने की जरूरत है। अगर इस जिहादी मानसिकता पर रोक नहीं लगाई गई तो, देश में भविष्य में बड़ा खतरा निर्मित हो सकता है। इस देश में रहने वाले मुसलमानों को अलगाववादी जिहादी मानसिकता से दूर करके भारत के सह अस्तित्व को स्वीकार करने तक की राष्ट्रीय मानसिकता तक कैसे ला सकते हैं, जिससे यहां रामनवमी, हनुमान जयंती के साथ ही साथ हिंदू और मुसलमान दोनों के सांस्कृतिक-धार्मिक त्योहार शांति से सम्पन्न हो सकें?