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सुदर्शनजी : नींव को सींचता कलश

सुदर्शनजी : नींव को सींचता कलश

by हिंदी विवेक
in विशेष, व्यक्तित्व, संघ
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 ये सुदर्शन जी ही थे जो स्वयं फोन करके नागपर में डॉ बाबासाहब की दीक्षाभूमि के दर्शन  करने गए। सामाजिक समरसता को लेकर संघ की प्रतिबद्धता जगजाहिर है। सुदर्शन जी ने ही ईसाई और मुस्लिम नेतृत्व के साथ संवाद की पहल की । उन्होंने ही भारतीय या स्वदेशी चर्च की अवधारणा प्रस्तुत की। उनके ही आग्रह पर राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना हुई । उनके ही सरसंघचालक रहते संघ के नागपुर मुख्यालय में ईसाई और मुस्लिम नेताओं, विचारकों और धार्मिक प्रमुखों की आवाजाही बढी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक स्वर्गीय श्री सुदर्शन जी एक ऐसे विभूतिमत्‍व थे जिन्होंने अपनी अविचल ध्येयनिष्ठा, पारदर्शिता, अनथक परिश्रम और प्रखर प्रज्ञा से श्रेष्ठ जीवन के प्रतिमान प्रस्तुत किये और अपने स्नेहिल, आत्मीय और निष्छल व्यवहार से संघ के स्वयंसेवकों और देश-हितैषियों को चैतन्य और विष्वास प्रदान किया ।

अपने प्रखर व्यक्तित्व और समर्पण के कारण उन्होंने केवल संघ-हितैषियों में ही नहीं अपितु संपूर्ण सामाजिक जीवन में एक विशिष्ट  स्थान और सम्मान प्राप्त किया। मध्यप्रदेश  उनकी जन्मभूमि भी रहा और लंबे समय तक कर्म-भूमि भी। यहां उन्हें निकट से देखने वालों ने  उनमें सरलता, निष्कपटता और बालसुलभ पारदर्शिता  के दर्शन किये हैं। संघ के विचारों और कार्यों के हित में वे कठोर से कठोर निर्णय लेते थे, मैदान में लगने वाली शाखाओं और प्रशिक्षण वर्गों में वे स्वयंसेवकों का पसीना निकाल देते थे। किसी भी काम में जरा सी भी कमी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी । लेकिन सायं शाखा पर खेलते-खेलते कोई शिशु या बाल स्वयंसेवक घायल हो जाए तो उसकी वे ऐसी चिंता करते जो शायद उसके परिजन भी न करते होंगे। भोपाल की एक शाखा में जब एक शिशु  स्वयंसेवक के हाथ में चोट लगी तो वे 15 मिनिट तक उसकी मालश करते रहे थे।

सहजता और सरलता उनके स्वभाव में थी। 1964 में वे मध्यभारत के प्रांत प्रचारक बनाये गए। द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोळवलवकर एक कार्यकर्ता-बैठक में आए थे। इस बैठक में शामिल कार्यकर्ताओं से श्री गुरूजी ने दो व्यक्तियों का परिचय कराया था। इनमें एक थे पं दीनदयाल उपाध्याय, और दूसरे का परिचय कराते हुए उन्होंने कहा था ‘‘यह जो दुबला पतला लडका माईक ठीक कर रहा है न, उसे माईक वाला मत समझ लेना । ये टेलिकम्यूनिकेशन मे इंजीनियर है और आज से आपका प्रांत प्रचारक है।’’  माईक सुधारने वाले वे व्यक्ति थे सुदर्शन जी। इससे पूर्व वे महाकोशल प्रांत में विभाग प्रचारक थे।

प्रांत प्रचारक बनते ही उन्हेांने व्यापक प्रवास किया । मध्यभारत में यदि आज संघ और संघ-प्रेरित संगठनों की मजबूत आधारभूमि है तो उसमें सुदर्शन जी का उल्लेखनीय योगदान है। कार्यक्षेत्र और कार्यकर्ताओं का आकलन करने और उन्हें कार्यविस्तार की  दृष्टि देने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। संघ की सारी आर्थिक जरूरतें ही नहीं, बल्कि अनेकानेक सामाजिक कार्यों की जरूरतें भी वर्ष में एक बार स्वयंसेवकों द्वारा दी जाने वाली गुरूदक्षिणा से ही पूरी होती हैं। उन दिनों पूरे प्रांत की गुरूदक्षिणा इतनी कम हुआ करती थी की इतनी अल्प राशि  में पूरे प्रांत के संगठन को चलाना कितना दुष्कर होता होगा, कितनी मितव्ययिता से काम करना पडता होगा और कितने अभावों में उस दौर के कार्यकर्ताओं ने काम किया होगा,  इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मध्यभारत में संघ की शाखाओं की संख्या बढाने की बहुत आवष्यकता थी। लेकिन इसके लिए अच्छे प्रशिक्षित युवा कार्यकर्ताओं की संख्या बढाना प्राथमिक आवष्यकता थी । इस परिप्रेक्ष्य में सुदर्शन जी ने कार्यकर्ताओं के सामने तीन लक्ष्य रखे। पहला, प्रांत की गुरूदक्षिणा एक लाख रूपये करना । दूसरा, प्रांत   में शााखाओं की कुल संख्या 300 तक ले जाना और और तीसरा]  2000 स्वयंसेवकों का प्रांत  का शिविर आयोजित करना । आज संघ इतना बढ गया है कि एक छोटी से छोटी तहसील में भी इससे कहीं अधिक संख्या के शिविर संपन्न हो जाते हैं। लेकिन उन दिनों यह भी एक बडा लक्ष्य था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सुदर्शन जी ने अविश्रांत प्रवास किया । अपने स्वयं के उदाहरण से उन्होंने स्वयंसेवकों में वह ऊर्जा भरी कि तीनों लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिये गए ।  मध्यभारत के संघ इतिहास में पहली बार शाजापुर जिले के चिलर बांध  के किनारे 2800 स्वयंसेवकों का शिविर संपन्न हुआ। आज भी सैकडों प्रौढ और वयोवृद्ध स्वयंसेवकों की आँखों में उस शिविर  की स्मृति एक नई चमक पैदा कर देती है।

सुदर्शन जी सचमुच कई मामलों में अनूठे थे। सरसंघचालक का दायित्व छोडने के बाद भोपाल में संघ कार्यालय ‘समिधा’ उनका आवास बना । यहाँ  उनका साढे तीन साल का निवासकाल स्वयंसेवकों को बेहद प्रेरणादायी अनुभव दे कर गया । सरसंघचालकत्व के विराट वलय मे शोभित उनके महद् व्यक्तित्व ने एक सामान्य स्वयंसेवक की कर्तव्य-सजग भूमिका में अपने आपको जिस सहजता से ढाल लिया था उसे देख कर कई बार मन में प्रश्न  उठता था कि इसे वामन की विराटता कहा जाये  या विराट का वामन हो जाना । उनका केवल ‘दायित्व’ बदला था ‘दायित्वबोध’ नहीं। साढे तीन साल तक वे लगातार, रोज इसी दायित्वबोध के साथ सक्रिय रहे। भोंपाल की लगभग सभी बाल और किशोर  शाखाएं उन्होंने प्रत्यक्ष जाकर देखी थीं। एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह वे छोटे-छोटे बच्चों को खेल खिलाते, उन्हें कदमताल करना सिखाते और कहानियाँ  सुनाते, उनके साथ खेलते और खिलखिलाते ।  यह दृश्य देख कर अनुभव होता था मानो एक कलश ही अपनी नीव को सींच रहा है।

स्वयंसेवक के सुख-दुख में सहभागी होने को लेकर वे बहुत आग्रही थे। समिधा कार्यालय में खाना बनाने वाले एक युवक की माँ बीमार हो गईं तो उनसे मिलने वे रायसेन जिले के दूरस्थ ग्राम  में उनके घर जा पहॅंचे। शल्य चिकित्सा के लिए उन्हें भोपाल लेकर आए और जयप्रकाष अस्पताल में उन्हें भर्ती करवाया। रोज उन्हें देखने जाते । अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद चिकित्सकीय देखरेख के लिए सुदर्शन जी ने उन्हें भोपाल में रोक लिया और पूरे परिवार के एक सप्ताह तक रूकने ठहरने की व्यवस्था की । क्या आश्चर्य  कि समिधा में रखे सुदर्शन जी के चित्र को देखते ही उस युवक की आंखें आज भी भर आती हैं ?

अरेरा कालोनी के एक मकान में चौकीदारी करने वाले व्यक्ति का छोटा-सा बेटा वहाँ की सायं शाखा में जाता था। बालसुलभ आकांक्षा में उसने अपनी बहन की शादी का निमंत्रण सुदर्शन जी को दे दिया । रात में शादी थी। उस उम्र में भी वे रात को 12 बजे विवाह में शामिल होने उसके घर पहॅुचे। एक कमरे के घर में वर-वधु पक्ष के लोग जैसे-तैसे बैठे थे। यहाँ वहाँ  सामान बिखरा पडा था। देखते ही सुदर्शन जी  ने स्वयं झाडू उठायी,  सबने मिल कर कमरे को व्यवस्थित किया । उन्होंने वर-वधु के गले में मालायें पहनायीं, दोनों को भेंट में वस्त्र दिए और आशीर्वाद  प्रदान किया। रात में डेढ बजे जब वे बाहर निकले तो उन्हें विदा करने बाहर आए हुए घराती और बाराती इसी बात पर धन्य हुए जा रहे थे कि चैकीदारी करने वाले उनके जैसे निर्धन परिवार की खुशी में इतना बडा व्यक्ति शामिल हुआ।

वे रोज सुबह पैदल घूमने जाते थे। एक दिन घूमते-घूमते वे सुबह-सुबह अचानक अरेरा कालोनी में रहने वाले एक चिकित्सक के घर चले गए । घण्टी बजाते ही उस चिकित्सक महोदय ने दरवाजा खोला तो एक अपरिचित चेहरा देख कर असमंजस में पड गए। उन्हें देखते ही सुदर्शन जी बोल उठे ‘‘मैं सुदर्शन,  आपकी नाम-पट्टिका देखी तो परिचय करने चला आया।’’  फिर पूरे परिवार के साथ बैठकर वे गपशप  करते रहे। इतने सहज और सरल थे वे । जिस सहजता से चौकीदार की बेटी की शादी में चले गए, उसी सहजता से एक प्रतिष्ठित चिकित्सक के घर पहुँच गए । अपने पद, नाम, प्रतिष्ठा और गुणसंपदा आदि किसी बात का कोई अहंकार नहीं।

वे अद्भुत प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। उनकी स्मरशक्ति बेजोड थी। गहरी अध्ययनशीलता और विस्मयकारी स्मरणशक्ति को जब उनके प्रभावी वक्तृत्व का जोड मिलता था तो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहते थे। इतिहास, संस्कृति, विज्ञान या स्वदेशी  जैसे गरिष्ठ विषय हों या अनौपचारिक चर्चाओं में चुटकुले सुनाने हों, सुदर्शन जी का कोई सानी नहीं था। कुछ वर्ष पहले भोपाल रेल्वे स्टेशन पर ट्रेन के आने में विलंब होता चला गया तो लगभग ढाई घण्टों तक वे एक के बाद एक दिलचस्प  किस्से और चुटकुले सुनाते रहे, और वह भी पूरे हावभाव और अभिनय के साथ।

स्वदेशी  और स्वभाषा के वे जबर्दस्त पक्षधर थे। हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट उन्हें सख्त नापसंद थी। उन्हें 12 भाषाओं का ज्ञान था। अंग्रेजी में वे धाराप्रवाह भाषण दे सकते थे। लेकिन उनकी हिंदी में कभी गलती से भी अंग्रेजी  शब्द नहीं आता था। भाषा और वर्तनी की शुद्धता के वे बेहद आग्रही थे। भोपाल के एक बडे अखबार में भाषा की त्रुटियों और अंग्रेजी की मिलावट को देख कर वे स्वयं एक बार उस अखबार के दफ्तर में जा पहुँचे थे।

उनके आचार, विचार और शब्द,  देश , समाज, संस्कृति और इतिहास की उनकी गहरी समझ और विशिष्ट  अंतर्दृष्टि का प्रतिबिंब होते थे। सत्य कई बार कटु होता है, पर वह किसी न किसी को तो कहना ही होता है। वे बडी बेबाकी और साफगोई से अपने विचार रखते थे। सत्य को लोग आसानी से न पचा पाते हैं और न ही स्वीकार कर पाते हैं। इसलिए  कभी-कभी उनके कथन से लोग  विवाद के बवण्डर भी खडे कर देते थे। पर वे उसमें भी शांत बने रहते । इतना शांत और संयत शायद वही व्यक्ति रह सकता है जो अपने विचारों को लेकर संशयमुक्त  और उनकी सत्यता के प्रति आश्वस्त होता है।

भारत के संविधान की पुनर्समीक्षा के बारे में उनके कथन की कुछ हलकों में बडी तीखी आलोचना हुई। संविधान को डा- आंबेडकर के सम्मान के साथ जोड कर देखने वालों में से कुछ लोग उनकी बात को पचा नहीं पाये, हालांकि स्वयं डा आंबेडकर ने संविधान की युगानुकूल समीक्षा और उसमें संशोधन  या पुनर्लेखन की संभावना को स्थान दिया हुआ है। सुदर्शनजी के इस कथन की पुष्टि स्वयं  डा आंबेडकर के पौत्र “डॉ प्रकाश आंबेडकर ने सांची में बौद्ध एवं भारतीय ज्ञान अध्ययन केन्द्र के शिलान्यास के मौके पर आयोजित संगोष्ठी में मनुस्मृति की वास्तविकता और समकालीन संदर्भों में संविधान की पुनर्समीक्षा की बात कहते हुए की थी।

ये सुदर्शन जी ही थे जो स्वयं फोन करके नागपर में डॉ बाबासाहब की दीक्षाभूमि के दर्शन  करने गए। सामाजिक समरसता को लेकर संघ की प्रतिबद्धता जगजाहिर है। सुदर्शन जी ने ही ईसाई और मुस्लिम नेतृत्व के साथ संवाद की पहल की । उन्होंने ही भारतीय या स्वदेशी चर्च की अवधारणा प्रस्तुत की। उनके ही आग्रह पर राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना हुई । उनके ही सरसंघचालक रहते संघ के नागपुर मुख्यालय में ईसाई और मुस्लिम नेताओं, विचारकों और धार्मिक प्रमुखों की आवाजाही बढी। जो लोग ईद के दिन मुस्लिम समाज को बधाई देने के लिए भोपाल के ईदगाह में जाने के सुदर्शन जी के आग्रह की बात सुन कर चौंक  उठे थे उन्हें तो शायद भरोसा ही नहीं होगा कि एक बार नमाज का वक्त हो जाने पर सुदर्शन जी से मिलने गए हुए कुछ  मुस्लिम नेताओं के लिए स्वयं सुदर्शन जी ने नागपुर कार्यालय में ही नमाज अदा करने की व्यवस्था की थी।

उनके व्यक्तित्व के ये पहलू ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं हैं। बेशक वे आग्रही थे, लेकिन  दुराग्रही नहीं। पूर्वाग्रही तो बिलकुल भी नहीं। वे सत्य के पक्षधर थे,  पक्षपाती नहीं। 81 वर्ष का सुदीर्घ और सार्थक जीवन  जीने के बाद किसी योगी की तरह ध्यानस्थ अवस्था में उनकी मृत्यु हुई । वे रायपुर में जन्मे,  देश दुनिया में घूमे और रायपुर में ही देह त्याग दी। संघ मुख्यालय रेशमबाग  में स्वयंसेवकों ने उन्हें सरसंघचालक के रूप में प्रथम प्रणाम दिया था तो रेशमबाग में ही अंतिम संस्कार से पहले पूर्व सरसंघचालक के रूप में स्वयंसेवकों ने उन्हें अंतिम प्रणाम दिया । इन दोनो संयोगों में संकेत शायद यह है कि उनका जन्म-मृत्यु का चक्र पूरा हुआ। जीवन अपनी सार्थकता को प्राप्त हुआ। आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। अब सुदर्शन जी स्मृति-शेष हैं। आज उनके जन्मदिवस पर उन्हें सादर नमन.

                                                                                                                                                                                    हेमंत मुक्तिबोध

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