सार्वभौमिक उपासना

माँ बच्चे को दूध ही नहीं पिलाती, पहले वह उसका “रस, रक्त और हाड़-माँस से निर्माण भी करती है, पीछे उसके विकास, उसकी सुख-समृद्धि और समुन्नति के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है । “उसकी एक ही कामना रहती है, मेरे सब बच्चे परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, मित्रता का आचरण करें, न्यायपूर्वक सम्पत्तियों का उपभोग करें, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष का कारण न बनें ।” “चिर शान्ति,” “विश्व-मैत्री” और “सर्वे भवन्तु सुखिन:” वह आदर्श है, जिनके कारण “माँ” सब देवताओं से बड़ी है ।

“हमारी धरती ही हमारी माता है, यह मानकर उसकी उपासना करें ।” अहंकारियों ने, दुष्ट-दुराचारियों, स्वार्थी और इन्द्रिय लोलुप जनों ने मातृ-भू को कितना कलंकित किया है इस पर भावनापूर्वक विचार करते समय आँखें भर आती है । हमने “अप्रत्यक्ष देवताओं” की तो पूजा की, पर “प्रत्यक्ष देवी” “धरती माता” के भजन का कभी ध्यान ही नहीं आया । आया होता तो आज हम “अधिकार के प्रश्न पर रक्त न बहाते,” “स्वार्थ के लिए दूसरे भाई का खून न करते,” “तिजोरियाँ भरने के लिए मिलावट न करते,” “मिथ्या सम्मान के लिए अहंकार का प्रदर्शन न करते ।”

संसार भर के प्राणी “उसकी संतान-“हमारे भाई” हैं । यदि हमने “माँ” की उपासना की होती तो छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, दंभ, हिंसा, पाशविकता, युद्ध को प्रश्रय न देते । “स्वर्ग और है भी क्या ? जहाँ ये बुराइयाँ न हों, वहीं तो स्वर्ग है ।” “माँ” की उपासना में स्वर्गीय आनंद की अनुभूति होती है ।”

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