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भारत में भौमजल की दशा और दिशा : एक भूवैज्ञानिक विश्लेषण

भारत में भौमजल की दशा और दिशा : एक भूवैज्ञानिक विश्लेषण

by हिंदी विवेक
in अवांतर, कृषि, सामाजिक
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भारत एक विकासशील देश है।प्रत्येक क्षेत्र में उसकी प्रगति हो रही है और उसकी जनसंख्या में भी वृद्धि हो रही है।अतः वर्ष 2025 तक 1093 बिलियन क्यूबिक मीटर्स जल की आवश्यकता होगी। इसके लिए वर्षाजल को बहकर समुद्र में जाने से रोकने के लिए वर्षाजल संग्रहण (रेन हार्वेस्टिंग) ही शहरों के लिये बड़ा कारगर उपाय है। इसके लिए छतों का पानी एकत्रित कर इससे जलभृतों (एक्वीफर्स) का पुनर्भरण किया जाना बहुत जरूरी है ताकि भौमजल का संवर्धन हो सके। देश की महत्त्वपूर्ण सम्पदाओं में जल संसाधन एक प्रमुख घटक है। देश का धरातलीय जल एवं भौमजल संसाधन कृषि, पेयजल, औद्योगिक गतिविधियाँ,जल विद्युत उत्पादन, पशुधन उत्पादन, वनरोपण, मत्स्य पालन, नौकायन और अन्य व्यावसायिक गतिविधियों आदि में मुख्य भूमिका निभाता है।

जल संसाधन का प्राथमिक स्रोत वर्षण (प्रेसिपिटेशन) है जो वर्षा एवं हिमपात से प्राप्त होता है। भारत में कुल वर्षाजल का आकलन 400 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स प्रतिवर्ष किया गया है, जिसका वितरण मुख्यतः तीन प्रकार से होता है।185 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स जल जहां ढाल में मिलता है, वह प्रवाहित होकर जलाशयों, सरोवरों और नदियों में चला जाता है जो अंततः सागर में समा जाता है। 50 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स परिस्रवित होकर अधःस्तल में विद्यमान ‘एक्वीफर्स’ के अनुक्षेत्र में संग्रहीत हो जाता है और 165 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स मिट्टी द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जो मिट्टी को आर्द्रता प्रदान करता है और इसका कुछ भाग वाष्पीकृत हो जाता है।
भौमजल या ‘एक्वीफर्स’ के दीर्घकालीन उपयोग के लिए उसके संरक्षण और आपूर्ति प्रबंधन की आवश्यकता होती है। ‘ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन’ (ओएनजीसी) बड़ौदा, गुजरात तथा भूविज्ञान परिषद, बड़ौदा, गुजरात के संयुक्त प्रयासों से ‘‘भारत में जल संसाधनों की उपलब्धता,उनका उपयोग तथा प्रबंधन’’ विषय पर 28 सितम्बर, 2016 को आयोजित एक राष्ट्रीय सेमिनार के माध्यम से भारत में भौमजल (ग्राउंड वाटर) के सम्बन्ध में जो नवीनतम जानकारी उभर कर आई है,वह अत्यंत चिंताजनक है और सम्पूर्ण भारत में इस समय जल की उपलब्धता की स्थिति अत्यन्त दयनीय बनी हुई है।

वस्तुतः भारत में इस भौमजल की स्थिति सभी स्थानों पर एक सी नहीं है, इसमें परस्पर भिन्नता पाई जाती है। उदाहरण के लिए सिंधु गंगा ब्रह्मपुत्र के जलोढ़ (अल्यूविअल) मैदानों के जलभृतों (अक्विफर्स) में अत्याधुनिक अलवण जल है परन्तु प्रायद्वीपीय क्षेत्र जो भारत के दो तिहाई भाग का प्रतिनिधित्व करता है,उसमें भौमजल की बहुत अल्पता है, क्योंकि वहां से कठोर चट्टानों के अक्विफर्स में 5 मीटर से 15 मीटर मोटाई के ऊपरी अपक्षीण आवरण में ही जल का संग्रहण हो सकता है।

इस राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘ओएनजीसी’ में यह बात भी विशेष रूप से उभर कर आई है कि आज जल संसाधनों के अंतर्गत अंडरग्राउंड वाटर यानी ‘जलभृतों’ (अक्विफर्स) का सबसे बड़ा उपभोक्ता कृषि क्षेत्र है,जो भारत के कुल अलवण क्षेत्र का 84 प्रतिशत उपयोग करता है, जबकि घरेलू तौर पर 12 प्रतिशत और औद्योगिक जगत में 4 प्रतिशत का उपयोग किया जाता है। यदि अन्य देशों के सन्दर्भ में भारत के ‘अक्विफर्स’ की तुलना करें तो हमारे यहां मुख्य खाद्य फसलों के उत्पादन हेतु सिंचाई के लिये ब्राजील, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में दोगुने या चौगुने अंडरग्राउंड वाटर यानी ‘अक्विफर्स’ जल का उपयोग किया जाता है।
भौमजल पर यह बहुत अधिक निर्भरता बताती है कि सतही जल का प्रबंधन सही ढंग से नहीं हो रहा है, हमने कृषिक्षेत्र की सिंचाई के लिए ‘वाटर हार्वेस्टिंग’, तालाब संरक्षण, नए जलाशय निर्माण जैसे पारम्परिक जल संचयन की के प्रति उदासीनता दिखाते हुए मशीनी यंत्रों और उपकरणों द्वारा ‘अक्विफर्स’ में संचित ‘अंडरग्राउंड’ जल का अतिदोहन किया है, जिसके कारण भौमजल स्तर (वाटर लेवल) निरन्तर रूप से नीचे गिरता जा रहा है। इसलिए यदि बृहत्संहिता आदि जलविज्ञान के ग्रन्थों द्वारा बताई गई परम्परागत जल संचयन विधियों से कृषि के लिये जल का उपयोग किया जाए तो वर्त्तमान जलसंकट के दौर में आधे जल को बचाया जा सकता है।
सेंट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड'(सीजीडब्ल्यूबी) ने भौमजल के दोहन और भौमजलस्तर के आकलन को लेकर कुछ इकाइयां निर्धारित की हैं और इनका वर्गीकरण भी किया है।उदाहरण के लिए वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल इकाइयों में 30 प्रतिशत इकाइयां अतिशोषित या क्रान्तिक अर्धक्रान्तिक स्थिति में हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान राज्यों में भौमजल का दोहन गैर जिम्मेदार ढंग बहुत अधिक मात्रा में किया गया है।यदि यहां इसी तेजी से जल का अति दोहन होता रहा तो एक दशक में ‘भौमजल’ के पूरी तरह समाप्त हो जाने की सम्भावना है।

वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार भौमजल की वार्षिक निकासी 245 बी।सी।एम। हुई है और भौमजल की विकास स्थिति 62 प्रतिशत है। 1960 की ‘हरित क्रांति’ के पश्चात लगातार भौमजल का उपयोग सिंचाई में और पेयजल के लिये बढ़ता जा रहा है। इसके फलस्वरूप आज लाखों नलकूप देश के विभिन्न राज्यों में वेधित किए गए हैं।सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि राज्य इस अतिदोहन से बहुत अधिक प्रभावित प्रदेश बन गए हैं। भौमजल (‘अक्विफर्स’) के इस बेरहमी से निष्कासन और दोहन के कारण ‘ग्राउंडवाटर’ का स्तर औसतन 1 मीटर से 3 मीटर तक प्रतिवर्ष गिरता जा रहा है।

चिंता का दूसरा कारण यह है कि उधर समुद्रतटीय क्षेत्रों में भौमजल के अधिक उपदोहन और समुद्र जल के अतिक्रमण के कारण पानी में लवणता की मात्रा निरंतर रूप से बढ़ती जा रही है और यह पेयजल के रूप में हानिकारक होता जा रहा है।
भारत में यह जल प्रदूषण आज एक गंभीर रूप धारण कर चुका है। वर्त्तमान में प्रदूषक तत्त्व इसे दो प्रकार से प्रदूषित कर रहे हैं। एक वह जो प्राकृतिक भूजनित (जियोजेनिक) होते हैं जैसे- आर्सेनिक, फ्लोराइड, नाइट्रेट तथा लोहा इत्यादि। दूसरे प्रकार के प्रदूषकों में वे बैक्टीरिया फॉस्फेट तथा भारी धातुगत तत्त्व सम्मिलित होते हैं,जो मनुष्यों की आधुनिक जीवन पद्धतियों और महानगरीय संस्कृति,औद्योगिक क्रियाकलापों का परिणाम हैं। इस प्रकार के प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं-

मलजल (सीवेज),
कृषि संबंधित विषाक्त पदार्थ तथा औद्योगिक बहिःस्राव (एफ्लुअन्ट),
गड्ढों में अपशिष्ट का भराव,
सेप्टिक टैन्क और रिसते भूमिगत गैसटैन्क,
रासायनिक खादें और कीटनाशकों का प्रयोग।

वर्ष 2014-15 में भौमजल पर हुए आकलन के अनुसार भूजनित प्रदूषकों से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर और कर्नाटक के राज्य विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं। ‘वर्ल्ड वाटर इंस्टीट्यूट’ के अनुसार गंगा नदी में प्रत्येक मिनट लगभग 11 लाख लीटर गंदे नाले का पानी गिराया जाता है।यूनेस्को द्वारा दी गई ‘विश्व जल विकास रिपोर्ट’ में भारतीय जल को दुनिया के अति प्रदूषित जल में तीसरे स्थान पर रखा गया है। इसलिए शहरों के मलजल, अपशिष्ट जल और औद्योगिक बहिःस्राव को प्रशोधित करना अत्यावश्यक है और इसके लिये प्रशोधन संयंत्र लगाने की आवश्यकता है। केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से इस दिशा में जो कार्य किया जा रहा है, वह यथेष्ट और संतोषजनक नहीं है।
इस सन्दर्भ में जल प्रदूषण की समस्या की रोकथाम के लिए भूवैज्ञानिकों द्वारा राज्य सरकारों को यह महत्त्वपूर्ण परामर्श दिया गया है कि अपशिष्ट जल को प्रशोधित करने के पश्चात उस जल को अन्य कार्यों जैसे- कारखानों में, सिंचाई में, बागवानी आदि में प्रयोग में लाया जा सकता है। इस तरह अलवण जल की आंशिक पूर्ति में मदद मिल सकती है।
ऐसे उपायों से भौमजल के दोहन और उसके पुनर्भरण द्वारा ग्राउंडवाटर का संवर्धन भी किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में भौमजल के अधिक दक्षता से उपयोग हेतु,उसके प्रबंधन और नियंत्रण हेतु ‘जलभृत’ यानी ‘अक्विफर्स’ के मानचित्रण की भी बहुत आवश्यकता है,जिसमें भूवैज्ञानिकों के मार्गदर्शन के अलावा किसानों की सक्रिय सहभागिता भी अनिवार्य है। आज हमें कृषि की सिंचाई में जल के अपव्यय को बचाने के लिये नवाचार (इनोवेशन) और विशेष कुशलता की आवश्यकता है। हमें जल की बचत वाली तकनीकों जैसे ट्रप्स तथा सेक्त सिंचाई प्रणाली (ड्रिप एण्ड स्प्रिन्कलर इरीगेशन सिस्टम) या ट्रप्स तथा रिसाव (ड्रिप एण्ड ट्रिकल) सिंचाई प्रणाली को अपनाने की आवश्यकता है,जिससे नियंत्रित एवं प्रभावी तरीके से फसलों को जल मिल सके।

भौमजल या ‘एक्वीफर्स’ के संबंध में यह जानकारी भी बहुत आवश्यक है कि ऐसे भूक्षेत्र (जोन) जिनमें भौमजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) होता है,उन्हें संरक्षित करना अति आवश्यक है जैसे- उत्तर प्रदेश के भाभर फुटहिल्स तथा तराई क्षेत्र, हरियाणा में अरावली तथा भूड़ क्षेत्र,देश के कछारी मैदान, दलदल और आर्द्र भूमि वाले क्षेत्र।इन क्षेत्रों को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए।

राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘ओएनजीसी’ में विद्वानों द्वारा वर्षाजल संग्रहण (रेन हार्वेस्टिंग), संरक्षण (कंजरवेशन) और प्रबंधन पर भी अनेक उपयोगी सुझाव दिए गए। कहा गया है कि जल संरक्षण (कंजर्वेशन) अभियान के तहत बहुत से ऐसे कार्यक्रम या उपाय सम्मिलित हैं,जिससे वर्षाजल को रोकने के उपाय के साथ-साथ अपशिष्ट जल का पुनःचक्रण (रिसाइक्लिंग) भी किया जा सकता है, जहां भी जल का अपव्यय होता है उसे घटाना और उचित उपयोग करना अनिवार्य है। मौजूदा जलाशयों के जीर्णोद्धार,कायाकल्प और नवीनीकरण के लिये अल्प जल क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। गांवों में और आस-पास के क्षेत्रों में उपलब्ध जलाशयों और लुप्त होते जल संसाधनों की सूची बनाई जानी चाहिए और साथ ही उनका समुचित मानचित्रण भी किया जाना चाहिए।

इन जलाशयों में जल संग्रहण होने से ‘एक्वीफर्स’ के पुनर्भरण में भी विशेष सहायता मिल सकती है और वर्षाजल एकत्रित होने पर उनका प्राकृतिक संसाधन के रूप में सदुपयोग भी किया जा सकता है।

लेखक:-डॉ. मोहन चंद तिवारी

 

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