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भारतीय कृषि सब्सिडी विकसित देश नाराज

भारतीय कृषि सब्सिडी विकसित देश नाराज

by प्रमोद भार्गव
in अवांतर, कृषि, जुलाई -२०२२, देश-विदेश, विशेष
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जेनेवा में सम्पन्न डब्ल्यूटीओ की बैठक में एक बार फिर अमेरिका समेत विकसित देशों ने भारत जैसे देशों द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी का विरोध किया लेकिन भारत अपने रुख पर अड़ा रहा और लगभग 80 देशों ने भारत की नीति का समर्थन किया। 

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की 12 से 15 जून 2022 तक जेनेवा में हुई तीन दिवसीय बैठक में अमेरिका और अन्य विकसित यूरोपीय देशों ने भारतीय किसानों को दी जाने वाली कृषि अनुवृत्ति (सब्सिडी) का जबरदस्त विरोध किया है। ये देश चाहते हैं कि किसानों को जो सालाना छह हजार रुपए की आर्थिक मदद और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की सुविधा दी जा रही है, भारत उसे तत्काल बंद करे। यही नहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देशभर के 81 करोड़ लोगों को 2 रुपए किलो गेहूं और 3 रुपए किलो चावल मिलते हैं, उस पर भी आपत्ति जताई है। देश की करीब 67 फीसदी आबादी को रियायती दर पर अनाज मिलता है। मसलन करीब 81 करोड़ लोगों को यह सुविधा उपलब्ध है। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपए का खर्च सब्सिडी के रूप में प्रति वर्ष होता है। परंंतु भारत ने अपने किसान और गरीब आबादी के हितों से समझौता करने से साफ इंकार कर दिया। दरअसल जेनेवा में चली इस बैठक के पहले ही अमेरिका के 28 सांसदों ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि भारत डब्ल्यूटीओ के तय नियमों का खुला उल्लंघन कर रहा है। नियमानुसार अनाजों के उत्पादन मूल्य पर 10 प्रतिशत से ज्यादा सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। जबकि भारत इससे कई गुना ज्यादा सब्सिडी देता है। इसलिए भारत पर अंतरराष्ट्रीय मानकों से ज्यादा सब्सिडी देने के आरोपों के तहत डब्ल्यूटीओ में मुकदमा दर्ज कराना चाहिए।

164 सदस्यीय देशों वाले डब्लूटीओ के जी-33 समूह के 47 देशों के मंत्रियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया, जिसमें भारत की ओर से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने भागीदारी की थी। इस बैठक में तीन महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रस्ताव लाने की तैयारी की गई। एक कृषि सब्सिडी खत्म करना, दो मछली पकड़ने पर अंतरराष्ट्रीय कानून बनाना और तीन कोविड वैक्सीन पेटेंट के लिए नए नियम तैयार करना। अमेरिका, यूरोप और दूसरे ताकतवर देश इन तीनों ही मुद्दों पर लाए जाने वाले प्रस्ताव के समर्थन में थे, जबकि भारत ने इन तीनों ही प्रस्तावों का द़ृढ़ता के साथ विरोध किया और देश के किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को बंद करने के सिलसिले में विकसित देशों को अंगूठा दिखा दिया। इस मामले में भारत को चीन समेत अस्सी देशों का साथ मिला है, नतीजतन विकसित देश नाराज तो हैं, किंतु भारत से आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। विकसित देशों की कृषि सब्सिडी सम्बंधी नीतियां दोगली हैं। भारत और केन्या जहां किसानों को कृषि पर केवल 451 और 206 डॉलर की सब्सिडी देते हैं, वहीं स्वीट्जरलैंड, कनाडा, अमेरिका और चीन अपने किसानों को क्रमश: 37,952, 26,850, 24,714 और 1208 डॉलर की सब्सिडी देते हैं। इसके बावजूद पश्चिमी देशों का भारत द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पर ऐतराज किसलिए?

दरअसल इन देशों का मानना है कि सब्सिडी की वजह से ही भारतीय किसान चावल और गेहूं का भरपूर उत्पादन करने में सक्षम हुए हैं। इसी का परिणाम है कि भारत गेहूं व चावल के निर्यात में अग्रणी देश बन गया है। भारत में वर्ष 2021-22 में कुल खाद्यान्न 316.06 मिलियन टन पैदा हुए हैं। इनमें चावल का127.93 और गेहूं का111.32 मिलियन टन रिकार्ड उत्पादन हुआ है। नतीजतन चालू वित्त वर्ष 2022-23 तक भारत करीब 45 लाख मिट्रिक टन गेहूं का निर्यात कर देगा जबकि अमेरिकी कृषि विभाग की रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2021 से जून 2022 तक 12 महीनों में भारत से गेहूं का निर्यात करीब 10 मिलियन मिट्रिक टन हुआ है। बांग्लादेश भारतीय गेहूं सबसे ज्यादा मात्रा में खरीदता है। श्रीलंका, संयुक्त अरब आमीरात, इंडोनेशिया, फिलीपींस और नेपाल के अलावा 68 देश भारत से गेहूं आयात करते हैं। भारत दुनिया के कुल 150 देशों को चावल का निर्यात करता है। वित्त वर्ष 2021-22 के पहले सात महीनों में भारत से चावल का 33 प्रतिशत निर्यात बढ़ा है। इस दौरान 150 देशों को 11.79 मिलियन टन निर्यात हो चुका है। चालू वित्त वर्ष 2022-23 में 20 मिलियन टन चावल के निर्यात हो जाने की उम्मीद है।

यहां किसी भी देश के राष्ट्र की प्रतिबद्धता विश्व व्यापार से कहीं ज्यादा देश के किसान, गरीब व वंचित तबकों के खाद्य उत्पादन और सुरक्षा के प्रति ही होनी चाहिए। लिहाजा नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनने के समय से ही किसानों के हित में खड़े दिखाई दिए हैं। अतएव 2014 में इसी जेनेवा में हुए डब्ल्यूटीओ के सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने भागीदारी करते हुए ‘समुचित व्यापार अनुबंध’ पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। इस करार की सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश, अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता है। जबकि भारत के साथ विडंबना है कि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में है। इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है।

जेनेवा में भारत पर अमेरिका, यूरोपीय संघ और आस्ट्रेलिया का दबाव था कि इन देशों के व्यापारिक हितों के लिए भारत अपने गरीबों के हित कि बलि चढ़ा दे। विकसित देश चाहते थे कि विकासशील देश समुचित व्यापार अनुबंध की सभी शर्तों को जस की तस मानें। जबकि इस अनुबंध की खाद्य सुरक्षा संबंधी शर्त भारत के हितों के विपरीत है। दिसंबर 2013 में भी इन्हीं विषयों को लेकर इंडोनेशिया के बाली शहर में डब्ल्यूटीओ की बैठक हुई थी, तब संप्रग सरकार के पूर्व वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने भी इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।

दरअसल सकल फसल उत्पाद मूल्य की 10 फीसदी सब्सिडी  का निर्धारण 1986-88 की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के आधार पर किया गया था। इन बीते साढ़े तीन दशक में मंहगाई ने कई गुना छलांग लगाई है। इसलिए इस सीमा का भी पुनर्निर्धारण जरूरी हैै। यही वह दौर रहा है, जब भ्ाूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद की अवधारणा ने बहुत कम समय में ही यह प्रमाणित कर दिया कि वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर अधिकतम मुनाफा बटोरने का उपाय भर है। टीएफए की सब्सिडी सम्बंधी शर्त, औद्योगिक देश और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इसी मुनाफे में और इजाफा करने की द़ृष्टि से लगाई गई है, जिससे लाचार आदमी के आजीविका के संसाधनों को दरकिनार कर उपभोगवादी वस्तुएं खपाई जा सकें। नव-उदारवाद की ऐसी ही इकतरफा व विरोधाभासी नीतियों का नतीजा है कि अमीर और गरीब के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। दरअसल देशी व विदेशी उद्योगपति पूंजी का निवेश दो ही क्षेत्रों में करते हैं। एक उपभोक्तावादी उपकरणों के निर्माण और वितरण में, दूसरे प्राकृतिक सम्पदा के दोहन में। यही दो क्षेत्र धन उत्सर्जन के अहम स्रोत हैं। उदारवादी अर्थव्यस्था का मूल है कि भ्ाूखी आबादी को भोजन के उपाय करने की बजाय विकासशील देश पूंजी का केंद्रीकरण एक ऐसी निश्चित आबादी पर करें, जिससे उसकी खरीद क्षमता में निरंतर इजाफा होता रहे।

भारत जैसे विकासशील देश अपनी आबादी के कमजोर तबके के लोगों की खाद्य सुरक्षा जैसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बड़ी मात्रा में अनाज की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद करते हैं। फिर इसे रियायती दरों पर पीडीएस के जरिए सस्ती दरों पर बेचा जाता हैं। यहां तक कि एक रुपया किलो गेहूं और दो रुपए किलो चावल बेचे जा रहे हैं। पंजाब में अनाज सब्सिडी सबसे ज्यादा दी जाती है। मध्यप्रदेश सरकार तो आयोडीन युक्त नमक भी एक रुपया किलो दे रही है। यदि गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति के अजीविका की यह खाद्य सामग्री रियायती दरों पर नहीं मिलेंगी तो भारत समेत अन्य कई देशों की बड़ी आबादी भ्ाूख के चलते दम तोड़ देगी। यह रियायती अनाज तभी उपलब्ध होगा जब भारत अपने किसानों की आर्थिक मदद सब्सिडी के रूप में करता रहे।

अमेरिका जैसे विकसित देश भारत में किसानों को यूरिया, खाद और बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी का भी विरोध कर रहे हैं। ये देश भारत के मछली पालन और उसके मांस के निर्यात में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी से भी परेशान हैं। मछली पालकों को आर्थिक मदद मिलने से इसके उत्पादन में इजाफा हुआ है और मछली पालक वैश्विक बाजार में मांस-निर्यात की प्रतिस्पर्धा में विकसित देशों के मुकाबले में बराबरी करने लगे हैं। यही कारण है कि अमेरिका भारतीय मछुआरों को मिलने वाली सब्सिडी को प्रतिबंधित करना चाहता है। इसी मकसद की पूर्ति के लिए इस सम्मेलन में समुद्र से मछली पकड़ने पर अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने का प्रस्ताव लाया गया है। जिसका भारत ने कठोर विरोध दर्ज कराया है। भारत का तर्क है कि ऐसा हुआ तो भारत के दस राज्यों के 40 लाख मछुआरों के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा।

डब्ल्यूटीओ की इस जेनेवा बैठक में कोविड-19 वैक्सीन पेटेंट की भी चर्चा हुई। इस सिलसिले में पश्चिमी देशों का मानना है कि कोविड वैक्सीन का पेटेंट अनिवार्य होना चाहिए। अर्थात जो कम्पनी जिस बीमारी का टीका बनाकर पेटेंट करा लेगी, केवल उसे ही टीका बनाने और बेचने का अधिकार होगा। मूल्य का निर्धारण भी कम्पनी करेगी। जबकि भारत ने सम्मेलन में कहा कि महामारी के दौर में टीका चाहे कोई देश या कम्पनी बनाए, लेकिन इसके निर्माण की तकनीक मानवीयता के आधार पर अन्य देशों से साझा की जानी चाहिए, जिससे विकासशील देश भी टीका बनाकर अपनी आबादी के प्राणों की सुरक्षा कर सकें।  दरअसल पश्चिमी देश भारत से इसलिए घबराए हुए हैं, क्योंकि भारत प्रस्ताव में शामिल सभी मुद्दों पर पश्चिमी देशों की होड़ में शामिल हो गया है। भारत के अनाज और मांस विकसित देशों की तुलना में सस्ते हैं। अतएव अमेरिका और यूरोपीय देशों के महंगे अनाज का निर्यात कम होने लगा है। कोरोना महामारी के दौरान भारत ने दो तरह की वैक्सीन बनाकर अपनी आबादी की सुरक्षा की। इस कारण पश्चिमी देश भारत को वैक्सीन निर्यात करके मुनाफा कमाने से वंचित रह गए। अलबत्ता भारत ने अपने सभी पड़ोसी देशों को वैक्सीन मुफ्त में दी और अनेक यूरोपीय देशों को निर्यात करके धन भी कमाया। गोया, भारत की इन क्षेत्रों में बढ़ती आत्मनिर्भरता विकसित पश्चिमी देशों को फूटी आंख नहीं सुहा रही है। अतएव जेनेवा में भारत के सख्त रवैये से अमेरिका की चौधराहट को जबरदस्त धक्का लगा है। दरअसल डब्ल्यूटीओ का विधान बहुमत को मान्यता नहीं देता, बल्कि इसमें प्रावधान है कि किसी भी एक सदस्य देश की आपत्ति नए बदलाव में बाधा है। भारत के समर्थन में तो अस्सी देश आ खड़े हुए हैं। लिहाजा प्रस्तावों पर मंजूरी की मोहर नहीं लग पाई।

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Tags: #wtogenevaconference #WTOPublications #Agriculture #Farmers #agricultureIndia #farming

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