‘हम कभी बाहर वालों से नहीं हारे
हम हमेशा अपनों से ही हारे और वही रिवाज़ चला आ रहा है।’
वाह माधवन!
ये पहला डायरेक्शन है माधवन का! क्या वाकई! नहीं, यकीं तो नहीं होता क्योंकि अमूमन अनुभवी डायरेक्टर्स जो कि एक्टर्स भी हैं, जब डायरेक्शन के साथ साथ एक्टिंग भी करते है तब फिसलन के चांसेज़ तो बनते ही है। लेकिन माधवन ने तो अलग लेवल पर दिल जीता। वे एक बेहतरीन, शानदार, अभिनेता तो हैं ही किंतु निर्देशन, कहानी, स्क्रीनप्ले सब पर अच्छे से मेहनत की है उन्होंने। बीते कुछ बरसों में माधवन का अभिनय अलग लेवल पर छलांग मार गया है।
इस फिल्म के कास्टिंग डिपार्टमेंट ने भी उम्दा कास्टिंग की है। सिर्फ अभिनेता के अभिनय से तो फिल्म अच्छी नहीं बन सकती। पूरी टीम ही बढ़िया कर दिखा गई है।
कहानी तो अब अधिकतर को पता ही है। हमारे देश के काबिल, ईमानदार, देशभक्त वैज्ञानिक नंबी नारायणन की ज़िंदगी और उस ज़िंदगी के अच्छे दिनों पर भारी पड़े यातना भरे दिनों पर है।
एक ऐसी दुःख और असहनीय तकलीफ़ भरी कहानी जो अधिकतर लोगों को नहीं पता।
एक इंसान जो अपनी इंटेलिजेंस, अपने जुनून, अपनी प्रोफेशनल निर्ममता और एथिक्स, अपनी अभिवृति, नेशन कम्स फर्स्ट वाले कमिटमेंट्स, अनुशासन, डेडिकेशन और ज़िद्दी स्वभाव के साथ साथ विज्ञान के क्षेत्र में बहुत कुछ करने की, बड़ा करने की इच्छा के साथ उस क्षेत्र में है और लगातार अच्छा कर रहा है।
अपना काम निकलवाने की तरकीबें, जमे जमाए तरीकों के बाहर जाकर सोचना, गलत होने पर वरिष्ठों को भी बिना झिझक टोक देना, जहाँ आपको कमतर समझा जाता हो, वहाँ जाकर प्रभावित करना और अपनी बात अपनी शर्तों पर मनवा लेने की काबिलियत रखना, ये सब नंबी नारायणन के व्यक्तित्व के गुण भर रहे एक वैज्ञानिक और एक इंसान के रूप में।
एक वैज्ञानिक, नासा के स्मार्ट और लग्जरी से लबरेज़ ऑफर को ठुकराकर (जो कि हर वैज्ञानिक का सपना होता है) को ठुकराकर अपने देश में देश के लिए कुछ करने का जज़्बा रखता है। नासा के ऑफर ठुकराने के लिए भी गट्स चाहिए। सपने को कौन ठोकर मार सकता है। नंबी ने मारी क्योंकि देशप्रेम।
फिर कुछ होता है और चीज़ें अचानक से बिगड़ती हैं और वैज्ञानिक को गैरकानूनी तरीके से कानून उठाकर ले जाता है। थर्ड डिग्री टॉर्चर तो जो इसमें दिखाया है, वो तो कुछ भी नहीं दिखाया है। बच्चे भी सोल्व कर दे ऐसा टुच्चा केस बनाकर एक देशभक्त को देशद्रोही बताकर जेल में सड़ाना, उसके परिवार को बर्बाद कर देना, पत्नी को मानसिक रूप से लाचार बनाकर छोड़ देना और फिर भी पता ना चलना कि आखिर ये सब क्यों किया।
उस वक्त के हालतों के चलते मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा किंतु अपराधी पुलिस वालों पर कोई केस नहीं चला।
एक राजनैतिक-कानूनी-प्रशासनिक नेक्सस और साज़िश जिसका पीड़ित को कोई आइडिया नहीं। सीबीआई के दखल से नंबी नारायणन बेगुनाह साबित होते तो हैं किंतु वो सब काफी होता है क्या!
माधवन कैरेक्टर में ऐसे घुसे हैं कि फिल्म के अंत में कब नंबी उनकी जगह स्वयं आकर कुर्सी पर बैठ जाते हैं, हवा ही नहीं लगती।
फिल्म बहुत ही बढ़िया बनाई गई है। फर्स्ट हाफ में आपको लगेगा कि आप किसी साइंस क्लास में बैठे हैं जो कि बहुत वाजिब है क्योंकि आप साइंटिस्ट्स को बातें करते हुए देख रहे हैं, उसी के अनुसार संवाद हैं।
सेकंड हाफ नंबी नारायणन के साथ हुई दुःख भरी घटनाओं और उन पर लगे आरोपों की वजह से उन पर और उनके परिवार पर बीती पीड़ाओं को वैसे ही दिखाता है जैसे हमारे सामने हम किसी को रियल लाइफ में भुगतते हुए देखते हैं या स्वयं भुगतते हैं।
इस फिल्म में कोई ड्रामा नहीं है। कोई अतिरेक नहीं है। कोई नॉनसेंस सीन नहीं है। कुछ भी बेवजह नहीं है कि लगे कि इस सीन की क्या आवश्यकता थी यहाँ पर! ये फिल्म शुरू से ही एक वैज्ञानिक के विज़न को लेकर चलती है। दोस्त आपस में बात भी कर रहे हैं तो उसमें भी प्रोजेक्ट्स ही शामिल होते हैं। आखिर को वैज्ञानिक ऐसे ही तो होते हैं।
बहुत जगह पर माधवन ने अपने अभिनय से रूलाया हैं। यूँ अभिनय सबका उम्दा ही है। विक्रम साराभाई के किरदार में रजत कपूर, नंबी की पत्नी के रूप में सिमरन, उन्नी का किरदार और जेल के सीन बहुत ही बढ़िया तरीके से फिल्माए गए हैं।
फिल्म के अंत में मुझे जो बात पूरी फिल्म से अच्छी लगी और रियल हीरो नंबी के मुँह से सुनी, जब उनसे कहा जाता है कि देश की तरफ से आपसे माफ़ी माँगता हूँ (शाहरुख खान, नहीं कोई सरप्राइज़ नहीं है, शुरुआत में ही ज़ाहिर है) तब नंबी कहते हैं, ‘मैं नहीं कर सकता माफ।’
बिल्कुल सही बात है। हर बात की कोई माफी नहीं होती। ऐसी यातनाओं, ऐसी निर्ममता, ऐसे अत्याचारों की कौनसी माफी! और आखिर क्यों! और वो भी तब जब किसी और की तरफ से कोई और माफी माँग रहा हो।
आगे बढ़ना ज़रूरी है लेकिन उसके लिए शोषक को माफ करना ज़रूरी नहीं।
कुछ तकलीफें, कुछ दुःख इतने भारी होते हैं कि उनके भारीपन को तौलने का कांटा ही टूट जाता है। इसलिए उनकी कोई माफी नहीं बनी होती।
ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए। ऐसी सच्चाई बहुत मायने रखती है। देशभक्ति की ऐसी कीमत तो नहीं ही हो सकती।
कान्स फिल्म समारोह में ऐसे ही नहीं विदेशियों ने इस फिल्म के अंत पर दस मिनट तक खड़े होकर तालियाँ बजाई।
ऐसी फिल्में तो देखी ही जानी चाहिए। हम जिन वैज्ञानिक उपलब्धियों पर खुश होते, इतराते या कि परीक्षाओं में लिखते हैं, उनके जनक के साथ क्या हुआ, पता तो होना ही चाहिए। फिल्म के अंत में नंबी आपको रूला देंगे क्योंकि पीड़ाएँ एक हद के बाद चेहरे पर चेहरा बना लेती हैं। एक दर्द भरा चेहरा।