नर्मदा आंदोलन का एक कम चर्चित पक्ष यह रहा कि इसके पीछे फंडिंग करने वाली और इसे बढ़ावा देने वाली कई विदेशी एजेंसियां और संगठन ऐसे थे जो सरदार सरोवर डैम में अपने व्यापारिक हितों और प्रतिस्पर्धा के कारण सक्रिय थे। कई ऐसे धार्मिक पश्चिमी संगठन थे जो भारत में उथल पुथल में रुचि रखते हैं। भारत के कई पेशेवर एनजीओ विदेश के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में अपने आर्थिक आकाओं की मिजाजपूर्सी करने में माहिर थे। भारत के प्रथम एनजीओ परिवार के सपूत ऐसे ही एक आंदोलनजीवी ने वियना के एक सम्मेलन में एक गोरे थैली शाह को भारत के नर्मदा आंदोलन पर प्रेस कांफ्रेंस में मुख्य वक्ता के रूप में खड़ा कर दिया। मैं तब इंडिया टुडे की और से रिपोर्टिंग के लिए वहां मौजूद था। जब मैने उस गोरे से नर्मदा योजना से जुड़े कुछ मूल सवाल पूछे तो उसने मान लिया कि उसने न तो कभी नर्मदा देखी है और न कभी भारत गया है। उसे यह भी पता नहीं था कि नर्मदा का पानी मध्य प्रदेश से बाहर किन इलाकों में जाएगा । तब से भारत का उक्त खानदानी एनजीओ सिपाही मुझसे कतराता है। अब देश को चाहिए कि नर्मदा आंदोलन के कारण भारत को कितने हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ और कितने करोड़ लोग कितने साल तक नर्मदा के पानी से महरूम रहे। इस पूरे नुकसान की भरपाई इस पूरी नर्मदा आंदोलन बिरादरी से वसूल की जानी चाहिए।