अपनों से कैसी होड़?

पंजाब की किसी ने मुझसे पूछा कि हम लोग अपने धर्म की मार्केटिंग क्यों नहीं करते?

मैंने पूछा- कैसी मार्केटिंग?

उन्होंने कहा- जैसा सिख अपने लंगर का, बौद्ध बुद्ध के शांति उपदेश का और जैन अपने भगवान महावीर स्वामी के अहिंसा की शिक्षाओं का करते हैं।

मैं- मतलब आप ये कहना चाहती हैं कि जिस तरह सिख अपने लंगर का, बौद्ध बुद्ध के शांति उपदेश का और जैन भगवान महावीर की अहिंसा वाली शिक्षाओं के बारे में दुनिया को बताते हैं या दुनिया को अलग से उनकी ये विशेषताएँ दिखाई देतीं हैं, उनकी ही तरह हम हिन्दू भी अपनी इन्हीं चीज़ों को लेकर क्यों आगे नहीं आते? क्यों नहीं दुनिया को दिखाते कि ये सब किसी की कोई uniqueness नहीं है। ‘लंगर प्रथा’ अगर सिखों के यहाँ है तो हमारे यहाँ भी मंदिरों में भंडारे की प्रथा है, करुणा और शांति का उपदेश हमारे ऋषियों ने भी दिया है। यही न?

उन्होंने कहा- हाँ ! समझिये तो मेरा आशय यही है।

मैंने उनसे कहा- प्रतिस्पर्धा तो उनसे की जाती है जो पराये हों पर अपनों से कैसी प्रतिस्पर्धा और कैसी होड़? मध्यकाल में भारत के पंजाब क्षेत्र में गुरु नानक देव जी का प्राकट्य हुआ और उनके साथ गुरु सिखों के द्वारा लंगर प्रथा शुरू हुई। हम ये जानते थे कि हमारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरूपित किया गया है। वेद में कहा गया है- ‘शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर’ यानि ‘सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से दान करो।’ हमारे ग्रंथों में अनेक राजाओं के द्वारा अलग-अलग स्थानों पर ‘अन्नक्षेत्र’ चलाने का वर्णन मिलता है। हमारे वेदों और दूसरे ग्रंथों में हमें जो आदेश दिया गया था, उसे मध्यकाल तक आते-आते हम क्षेत्र में हम विस्मृत कर चुके थे। इसलिए जब हमारे गुरुओं ने उस त्याग और दान की परंपरा को लंगर के जरिये से आगे बढ़ाया तो हमें लगा कि हमारे गुरुओं ने तो हमारी उन शिक्षाओं को पुनर्जीवन दिया है जिसे संजो कर रखने की आवश्यकता थी। तो आप बताइए कि गुरु नानक देव जी के द्वारा शुरू की गई लंगर प्रथा के मुकाबले पर हम क्या ये बताने लग जायें कि अब हमारे फलाने मंदिर में चौबीसों घंटे और बारहों मास भंडारा चलता है या फिर ये कहें कि हमारे यहाँ भी एक से बढ़कर एक दान के उदाहरण हैं? ये चाहती हैं आप?

आपने भगवान बुद्ध के करुणा की बात की, भगवान महावीर के अहिंसा की बात की तो मैं एक संकीर्ण हिन्दू बनकर सोचूँ तो अवश्य मैं इसके तुलना में अपने ग्रंथों से करुणा, शांति और मैत्री भाव सिखाने वाले उपदेश खोज कर दिखाने लगूंगा।पर क्यों? जब बुद्ध के करूणामय उपदेश लिए उनके शिष्य भारत से निकल कर चारों दिशाओं में दुनिया भर में फैल गए थे तो क्या दुनिया वाले बुद्ध को हिन्दू धारा से कुछ अलग करके देख रहे थे? भारत के बाहर के देशों के लोगों ने तो करुणावतार बुद्ध के उपदेशों का केवल अनुसरण किया, जबकि हमने उन्हें अवतार रूप में प्रतिष्ठित कर रखा है। बामियान में खड़ी बुद्ध की विशाल प्रस्तर प्रतिमाएं जब पश्चिम से आने वाले व्यापारिक काफिलों की रहनुमाई कर रही थी तो क्या बुद्ध वहां खड़े होकर ये नहीं कह रहे थे कि मेरे पीछे हिन्दू धर्म की आदि भूमि भारत है? इसी बुद्ध के बारे में शिकागो धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “मैं यह बात फिर से दोहराना चाहता हूँ कि शाक्यमुनि ध्वंस करने नहीं आये थे, वरन वे हिन्दू धर्म की पूर्णता के संपादक थे, उसकी स्वाभाविक परिणति थे, उसके युक्तिसंगत विकास थे।”

तो आप बताओ हम अपने धर्म की पूर्णता के संपादक बुद्ध के उपदेशों की तुलना में अपने दूसरे महापुरुषों के उपदेश आगे लेकर आयें तो क्या ये युक्तिसंगत है?

जैसे वैदिक परंपरा हमारी है, उसी तरह गुरमत परंपरा और श्रमण परंपरा भी हमारी है। शरीर का कोई भी अंग सजता- संवरता है, सुंदरता के किसी प्रतीक को धारण करता है तो वह पूरे शरीर को ही सुंदर बनाता है। इसी तरह वृक्ष पर जब कोई फूल खिलता है या उसकी कोई शाख विकसित होती है तो संपूर्ण वृक्ष सुंदर लगने लगता है और मजबूत होता है, यही दृष्टि एक हिन्दू के नाते मेरी है और संभवतः सारे हिंदुओं की है। यही सांस्कृतिक विकासशील चेतना हमें विरासत में मिली है और इसी का नाम हिन्दू धर्म है। इसलिए एक हिन्दू होते हुए मैं कभी भी मेरे अपनों से होड़ और प्रतिस्पर्धा करने की क्षुद्रता नहीं कर सकता।

अभिजीत सिंह 

 

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