जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते रहते हैं । कभी सुखद और अनुकूल परिस्थितियां रहती हैं तो कभी दुःखद और प्रतिकूल । ये उतार-चढ़ाव ही जीवन को रसमय बनाते हैं । रात के अंधकार से दिन का प्रकाश विविधता उत्पन्न करता है, तो पतझड़ के मौसम में बसंत की बहार का पता चलता है । इसी प्रकार “दुःख” और “कष्टों” से “सुख” तथा “आनंद” का रस आता है । यदि जीवन में दुःख और कष्ट हो ही नहीं तो सुख और सुविधाओं में कोई रस ही न आए । मीठा खाते-खाते जब अरुचि हो जाती है तो स्वाद बदलने के लिए नमकीन भी खाना आवश्यक हो जाता है । उसी प्रकार “सुख-सुविधाओं” की एकरसता तोड़ने के लिए “कष्ट”, कठिनाइयाँ” भी आवश्यक हैं ।
मनस्वी तथा विचारशील व्यक्ति यही सोचकर दुःख, परेशानियों को भी उसी प्रकार “हँसी-खुशी” सह लेते हैं जिस जिस प्रकार “सुख-सुविधाओं” का उपभोग करते हैं, परंतु और “कमजोर” और “दुर्बल” मनःस्थिति के लोग “दुःखों” तथा कष्टों से इस प्रकार घबड़ा जाते हैं, जैसे उनके सामने आग के कुंड में कूद पड़ने की स्थिति आ गई हो ।ऐसी स्थिति में उनको वास्तविकता से आँख मूंद लेने और यथार्थ से भागने का ही उपाय सूझता है और तरह-तरह के उपायों को उससे बचने हेतु अपनाते हैं ।