बाजारवादी की देन है नम्बर संस्कृति को बढ़ावा

भविष्य की प्रतिद्वंद्विता का पहला चरण स्कूल से ही शुरू होता है। अब वो समय नहीं रहा कि बात फर्स्ट डिवीजन तक सीमित हो। अब असली कॉम्पिटिशन 90 फीसदी के ऊपर शुरू होता है। पर इस लक्ष्य को पाना आसान नहीं है। बच्चे के साथ पूरा परिवार इस नम्बर गेम की दौड़ में शामिल हो जाता है। क्योंकि, यदि बच्चे को 90-95 फीसदी से ज्यादा नम्बर नहीं आएंगे तो उसकी इंटेलिजेंसी पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा! उसे अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा और न वो मनपसंद कोर्स में पढ़ाई कर पाएगा। यही वजह है कि पहले 10वीं और फिर 12वीं बोर्ड में अच्छे नंबर पाने की कोशिश होती है। क्योंकि, प्रतिद्वंद्विता के इस दौर में अच्छी नौकरी पाना ही जीवन की सबसे बड़ी सफलता मानी जाती है और उसकी शुरुआत निश्चित रूप से स्कूल ही तो होती है! लेकिन क्या अच्छे नम्बर लाना ही सफलता की गारंटी है? पर ऐसा कहा सम्भव हो पाता है। सवाल तो यह भी है कि जिन बच्चों के अच्छे नम्बर नहीं आते है क्या वे जीवन की परीक्षा में सफल नहीं होते।
अभी हाल ही में सीबीएसई के परीक्षा परिणाम को लेकर देश भर में खुशी का माहौल है। मैरिट लिस्ट में आने वाले बच्चों के अभिभावक बेशक़ परीक्षा परिणामों से ख़ुश होंगे। लेकिन सवाल यही है कि क्या परीक्षा परिणाम ही सफलता की गारंटी है। बेशक़ नहीं! अब परीक्षा परिणाम स्कूलों के प्रमोशन का जरिया बन गया है। स्कूलों में मैरिट बच्चों के बड़े बड़े विज्ञापन छपेंगे ताकि स्कूलों का महिमामंडन किया जा सके। मीडिया में सफल बच्चों के इंटरव्यू की बाढ़ लगी होगी। लेकिन उन बच्चों का क्या जिन्होंने कम नम्बर लाए है? क्या जीवन में सफलता का पैमाना सिर्फ नम्बर ही रह गया है। अगर ऐसा है तो मैरिट लिस्ट में आने वाले बच्चें कभी किसी परीक्षा में असफल नहीं होंगे। पर ऐसा होना सम्भव नहीं है। अब अगर आंकड़ो पर ही नजर डालें तो इस बार बारहवीं में 1.34 लाख बच्चों के नंबर 90 फीसदी से ऊपर आए। जबकि 10वीं के लिए यह आंकड़ा 2.36 लाख का है। अब यह एक बच्चें के लिए व्यक्तिगत रूप से बड़ी उपलब्धि हो सकती है, लेकिन इस उपलब्धि के बाद कुछ ऐसे ज्वलंत सवाल खड़े होते हैं। जिनके उत्तर व्यवस्था और हमें ढूढ़ना होगा, क्योंकि जिस हिसाब से शिक्षा व्यवस्था में शोध, गुणवत्ता आदि को दरकिनार किया जा रहा है। तो दूसरी तरफ नम्बर संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। उससे यह बात निकलकर आती है कि कहीं न कहीं बच्चें तो सब पास हो रहें हैं, लेकिन सिस्टम फेल हो चुका है।
सोचिए जिस हिसाब से आज़कल नंबर बंट रहें क्या दशक भर पहले ऐसी स्थिति थी? शायद नहीं थी, लेकिन जबसे नंबर संस्कृति ने जोर पकड़ा है। तो दूसरी तरफ़ शिक्षा में गुणवत्ता भी कम हुई है। बेरोजगारी की दर में बढोत्तरी हुई है। अब बच्चों के पास दिखाने के लिए सौ फीसदी अंक तो होते हैं, लेकिन हर किसी के पास काबिलियत भी हो। यह जरूरी नहीं। एक छोटा सा सवाल है जब बोर्ड परीक्षाओं में 100 में से 100 प्रतिशत नंबर लाने की होड़ मची है। फिर यह प्रतिभा उसी तादाद में बाकी प्रतियोगी परीक्षाओं में देखने को क्यों नहीं मिलती है? घर-परिवार के लोग समाज में अपना नाम-सम्मान बढ़ जाने से फुले नहीं समाते हैं और स्कूल-कॉलेज वालों की चांदी तो शत-प्रतिशत रिजल्ट दिखाकर ही हो जाती है। इन सबके बीच जो सवाल उठते हैं वो ये हैं कि शिक्षा में क्या सिर्फ़ नंबर की होड़ ही सबकुछ है? नंबर के सिवाय क्या शिक्षा के कोई मायने नहीं?
चलिए एक दफ़ा नंबर के इस गेम को ही सर्वोपरि मान लिया जाए, लेकिन फिर उन बच्चों का क्या जिनके नम्बर कम आए है? जरूरी तो नहीं कि नब्बे और सौ प्रतिशत नंबर ही सफ़लता की गारंटी बनें। अगर ऐसा होता तो एल्बर्ट आइन्सटीन और थाॅमस अल्वा एडिसन जैसे नाम तो हमारे सामने होने ही नहीं चाहिए थे। इतना ही नहीं दुनिया के कई देश जब स्कूली कक्षाओं में नंबर गेम में बच्चों को नहीं उलझने देते। फिर कुछ बात तो होगी, लेकिन हमारे देश में अभिवावकों और व्यवस्था को यह बात समझ क्यों नहीं आती है! एक बात औऱ है जिस समय बच्चो के सर्वांगीण विकास की बात होनी चाहिए, शारीरिक क्षमताओं के निखार की बात होनी चाहिए। तब हम और आप अपने बच्चों के शत-प्रतिशत रिजल्ट के लिए प्रयासरत रहते हैं। जो कहीं न कहीं उचित नहीं और इस रेवड़ी परंपरा पर रोक की सख़्त जरूरत है। वरना शोध, नई खोज और विचार में हम पीछे हैं ही और कहीं ऐसा न हो कि हमारी युवा पीढ़ी सिर्फ नंबर गेम में फंसकर रह जाए।
– सोनम लववंशी

Leave a Reply