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लीक से हटकर पढ़ाया जाएगा सोच का पाठ

लीक से हटकर पढ़ाया जाएगा सोच का पाठ

by प्रमोद भार्गव
in विशेष, शिक्षा
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देश का भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास ऐसा उच्च शिक्षण संस्थान है, जिसे केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने लगातार

चैथी बार देश का श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान घोषित किया है। यह देश का एक मात्र ऐसा संस्थान है, जो शिक्षा में

नवाचारी प्रयोगों के लिए आगे रहा है। विज्ञान के अविष्कार और श्रेष्ठ साहित्य लेखन की बुनियाद ‘विचार‘ या

‘सोच‘ है। परंतु सोच का पाठ्यक्रम देश में कहीं पढ़ाया जाता हो, ऐसा अब तक देखने-सुनने में नहीं आया है ? यही

कारण है कि 900 के करीब उच्च शिक्षण संस्थान होने के बाबजूद हम नए शोध, प्रयोग और अविष्कार के क्षेत्र में

पिछड़े हुए हैं। लेकिन अब यह खुशी की बात है कि आईआईटी मद्रास ने गणित के माध्यम से ‘लीक से हटकर

सोच‘ अर्थात ‘आउट आॅफ द बाक्स थिंकिंग‘ पर आधारित पाठ्यक्रम शुरू किया है। इसके जरिए नवोन्मेशी सोच को

बढ़ावा दिया जाएगा। अपनी तरह की इस अनोखी पहल के तहत संस्थान का विद्यालय और महाविद्यालयों के

करीब 10 लाख विद्यार्थियों को जोड़ने का लक्ष्य है। इसके अलावा षोधकर्ताओं और व्यवसायियों को भी जोड़ा

जाएगा। यदि छात्र की सोच को ठीक से प्रोत्साहित किया गया तो तय है, देष के 70 प्रमुख षोध-संस्थानों में 3200

वैज्ञानिकों के पद खाली हैं उनके भरने का सिलसिला षुरू हो जाएगा। बैंगलुरु के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक

अनुसंधान परिशद् (सीएसआइआर) से जुड़े संस्थानों में सबसे ज्यादा 177 पद रिक्त हैं। पुणे की राश्ट्रीय रसायन

प्रयोगषाला में 123 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं।

कहते हैं कि पक्षियों के पंख प्राकृतिक रूप से ही संपूर्ण रूप में विकसित हो जाते हैं, लेकिन हवा के बिना उनमें पक्षी

को उड़ा ले जाने की क्षमता नहीं होती है। अर्थात उड़ने के लिए वायु आवष्यक तत्व है। इसी तथ्य के आधार पर

हम कह सकते हैं, आविश्कारक वैज्ञानिक को सोच के धरातल पर जिज्ञासु एवं कल्पनाषील होना जरूरी है। कोई

वैज्ञानिक कितना भी षिक्षित क्यों न हो, वह कल्पना के बिना कोई मौलिक या नूतन आविश्कार नहीं कर सकता।

षिक्षा संस्थानों से विद्यार्थी जो षिक्षा ग्रहण करते हैं, उसकी एक सीमा होती है, वह उतना ही बताती व सिखाती है,

जितना हो चुका है। आविश्कार सोच एवं कल्पना की वह श्रृंखला है, जो हो चुके से आगे की अर्थात कुछ नितांत

नूतन करने की जिज्ञासा को आधार तल देती है। स्पश्ट है, आविश्कारक लेखक या नए सिद्धांतों के प्रतिपादकों को

उच्च षिक्षित होने की कोई बाध्यकारी अड़चन पेष नहीं आनी चाहिए।

अतएव हम जब लब्ध-प्रतिश्ठित वैज्ञानिकों की जीवन-गाथाओं को पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि न तो वे उच्च

षिक्षित थे, न ही वैज्ञानिक संस्थानों में काम करते थे और न ही उनके इर्द-गिर्द विज्ञान-सम्मत परिवेष था। उन्हें

प्रयोग करने के लिए प्रयोगषालाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। सूक्ष्मजीवों का अध्ययन करने वाले पहले वैज्ञानिक

ल्यूवेनहाॅक द्वारपाल थे और लैंसों की घिसाई का काम करते थे। लियोनार्दो विंची एक कलाकार थे। आइंस्टीन पेटेंट

कार्यालय में लिपिक थे। न्यूटन अव्यावहारिक और एकांतप्रिय थे। उन्होंने विवाह भी नहीं किया था। न्यूटन को

 

मंदबुद्धि भी कहा गया है। थाॅमस अल्वा एडिसन को मंदबुद्धि बताकर प्राथमिक पाठषाला से निकाल दिया गया

था। इसी क्षीण बुद्धि बालक ने कालांतर में बल्व और टेलीग्राफ का आविश्कार किया। फैराडे पुस्तकों पर जिल्दसाजी

का काम करते थे। लेकिन उन्होंने ही विद्युत-मोटर और डायोनामा का आविश्कार किया। प्रीस्टले पुरोहित थे।

लेवोसिएर कर विभाग में कर वसूलते थे। संगणक (कंप्युटर) की बुद्धि अर्थात साॅफ्टवेयर बनाने वाले बिलगेट्स का

षालेय पढ़ाई में मन नहीं रमता था, क्योंकि उनकी बुद्धि तो साॅफ्टवेयर निर्माण की परिकल्पना में एकाग्रचित्त से

लगी हुई थी। स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक रोगों की पहचान कर दवा बनाने वाले आविश्कारक भी चिकित्सा विज्ञान

या चिकित्सक नहीं थे। आयुर्वेद उपचार और दवाओं का जन्म तो हुआ ही ज्ञान परंपरा से है। गोया, हम कह सकते

हैं कि प्रतिभा जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी होती है। इसे पहचानकर गुणीजन या षिक्षक प्रोत्साहित कर

कल्पना को पंख देने का माहौल दें तो भारत की धरती से अनेक वैज्ञानिक-आविश्कारक निकल सकते हैं।

पुरानी कहावत है कि आवष्यकता आविश्कार की जननी है। लेकिन नूतन आविश्कार वही लोग कर पाते हैं, जो

कल्पनाषील होते हैं और ‘लोग क्या कहेंगे‘ इस उपहास की परवाह नहीं करते। बस वे अपने मौलिक इनोवेटिव

आइडियाज को आकार देने में जुटे रहते हैं। अतएव संस्थागत स्तर पर सोच को षैक्षिक ज्ञान का धरातल मिलेगा

तो परिकल्पनाएं आविश्कार के रूप में आकार लेने लग जाएंगी। कुछ समय पहले हमने जाना था कि कर्नाटक के

एक अषिक्षित किसान गणपति भट्ट ने पेड़ पर चढ़ जाने वाली बाइक का आविश्कार करके देष के उच्च षिक्षित

वैज्ञानिकों व विज्ञान संस्थाओं को हैरानी में डालने का काम कर दिया था। गणपति ने एक ऐसी अनूठी

मोटरसाइकल का निर्माण किया, जो चंद पलों और कम खर्च में नारियल एवं सुपारी के पेड़ों पर आठ मिनट में चढ़

जाती है। इस बाइक से एक लीटर पेट्रोल में 80 पेड़ों पर आसानी से चढ़ा जा सकता है। यह एक उत्कृश्ठ नवाचार

था, जो सोच के बूते अस्तित्व में आया।

दरअसल बीते 75 सालों में हमारी षिक्षा प्रणाली ऐसी अवधारणाओं का षिकार हो गई है, जिसमें समझने-बुझने के

तर्क को नकारा जाकर रटने की पद्धति विकसित हुई है। दूसरे संपूर्ण षिक्षा को विचार व ज्ञानोन्मुखी बनाने की

बजाय, नौकरी अथवा कैरियर उन्मुखी बना दयिा गया है। मसलन षैक्षिक उपलब्धियों को व्यक्ति केंद्रित बना दिया

गया, जो संकीर्ण सोच और निजी विषेशज्ञता को बढ़ावा देती हैं। नए अविष्कार या अनुसंधानों की शुरुआत अकसर

समस्या के समाधान से होती है, जिसमें उपलब्ध संसाधनों को परिकल्पना के अनुरुप ढालकर क्रियात्मक अथवा

रचनात्मक रूप दिया जाता है। यही वैचारिक स्त्रोत अविष्कार के आधार बनते हैं। किंतु हमारी शिक्षा पद्धति से इन

कल्पनाशील वैचारिक स्त्रोतों को तराशने का अध्यापकीय कौशल कमोबेश नदारद रहा है। लिहाजा सोच कुंठित होती

रही है। अंग्रेजी का दबाव भी नैसर्गिक प्रतिभाओं को कुंठित कर रहा है। देर से ही सही आईआईटी मद्रास ने सोच

का पाठयक्रम शुरू करके एक आवश्यक  पहल की है।

यह पाठ्यक्रम ‘आईआईटी मद्रास प्रवर्तक तकनीकी फाउंडेषन के माध्यम से षुरू किया गया है। इसमें परीक्षा में

बैठने वाले विद्यार्थियों को मामूली षुल्क देने के बाद श्रेणी आधारित प्रमाण-पत्र मिल जाएगा। इसकी अंतिम परीक्षा

भारत के चुनिंदा षहरों में होगी। पाठयक्रम आॅनलाइन प्रारूप में उपलब्ध होगा, जो निषुल्क होगा। भारत समेत

दूसरे देषों में रहले वाले छात्र भी इस षिक्षा का लाभ उठा सकते हैं। चार श्रेणी वाला यह स्वतंत्र स्तर का यह

पाठ्यक्रम विद्यार्थियों, व्यपसायियों और षोधार्थियों के लिए आसानी से उपलब्ध होगा। अतएव इस पाठ्यक्रम के

 

जरिए, जो छात्र अपनी मौलिक सोच के बूते कोई नूतन आविश्कार करते हैं तो यह परिकल्पना साकार रूप में कैसे

अवतरित हो, इस लक्ष्यपूर्ति के लिए लिए प्राध्यापक ज्ञान के मार्ग सुझाएंगे। मौलिक षोध लिखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी,

एमफिल और पीएचडी का आधार बनेंगे। जो आविश्कार उपकरण के रूप में विकसित कर लिए जाएंगे, उन्हें बाजार

में उपभोक्ता उपलब्ध कराने के लिए व्यवसाई मार्ग दर्षन करेंगे। छात्र, व्यापारी और षोधार्थियों का यह ऐसा गठजोड़

साबित हो सकता है, जो वैज्ञानिक आविश्कार के क्षेत्र में क्रांति लाने के साथ, संस्थानों में वैज्ञानिकों की कमी पूरी

कर सकता है। इसीलिए आइआइटी मद्रास के निर्देषक वी कामकोटी का कहना है कि ‘अपने तरह का यह पाठ्यक्रम

भारत में पहला है और आने वाले दिनों में इसका व्यापक प्रभाव दिखाई देगा। इस पाठयक्रम का स्कूल और काॅलेज

के छात्रों, खासकर ग्रामीण भारत में रहने वालों को काफी लाभ होगा। लीक से हटकर सोच या तर्क षक्ति का

उपयोग करके छात्र अप्रत्यक्ष एवं रचनात्मक माध्यम से समस्याओं का समाधान करते है तो वे तत्काल जाहिर नहीं

होते है। क्योंकि इसमें विचार की आवष्यकता होती है, जिसे केवल पारंपरिक तरीके से साकार करना मुष्किल होता

है। इसीलिए इस अनूठे पाठ्यक्रम में तार्किक रूप से गणित के ज्ञात एवं अज्ञात तथ्यों को पुनः तलाषने वाली सोच

पर जोड़ दिया जा रहा है, जिससे विचारषील छात्र की रुचि विकसित हो।‘ वाकई यह ज्ञान के क्षेत्र में जड़ता को तोड़ने

की उल्लेखनीय कोषिष है।

यहां गौरतलब है कि 1930 में जब देष में फिरंगी हुकूमत थी, तब देष में वैज्ञानिक षोध का बुनियादी ढांचा न के

बराबर था। विचारों को रचनात्मकता देने वाला साहित्य भी अपर्याप्त था और गुणी षिक्षक भी नहीं थे। अंगे्रजी

षिक्षा षुरुआती में दौर में थी। बावजूद सीवी रमन ने साधारण देषी उपकरणों के सहारे देषज ज्ञान और भाशा को

आधार बनाकर काम किया और भौतिक विज्ञान में नोबेल दिलाया। जगदीषचंद्र बसु ने पेड़ों में रेडियो और सूक्ष्म

तरंगों की प्रकाषिकी पर महत्वपूर्ण कार्य किया। भारत के वे पहले ऐसे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अमेरिकी पेटेंट प्राप्त

किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का जनक माना जाता है। जीवन की खोज के साथ सत्येंद्रनाथ बसु ने आइंस्टीन के साथ

काम किया। मेघनाथ साहा, रामानुजम, पीसी रे और होमी जहांगीर भाभा ने अनेक उपलब्धियां पाईं। रामानुजम के

एक-एक सवाल पर पीएचडी की उपाधि मिल रही हैं। एपीजे कलाम और के. षिवम जैसे वैज्ञानिक मातृभाशा में

आरंभिक षिक्षा लेकर महान वैज्ञानिक बने। लेकिन वर्तमान में उच्च षिक्षा में तमाम गुणवत्तापूर्ण सुधार होने और

अनेक प्रयोगषालाओं के खुल जाने के बावजूद गंभीर अनुषीलन का काम थमा है। अतीत की उपलब्धियों को दोहराना

मुमकिन नहीं हो रहा है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में हम पष्चिम के प्रभुत्व से छुटकारा नहीं पा, पा रहे ?

हालांकि मंगल अभियान इस दिषा में अपवाद के रुप में पेष आया है, जिसे स्वदेषी तकनीक से अंतरिक्ष में छोड़ा

गया है। तय है, सोच का पाठ्यक्रम इस दिषा में मौलिक प्रयोग व आविश्कार सामने लाने की दिषा में अहम् पहल

करेगा।

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