इस समय बांग्लादेश से ठीक समाचार नहीं मिल रहा है। वहां अल्पसंख्यकों पर हत्या, आगजनी, लूटपाट, मारपीट, बलात्कार की घटनाओं को लेकर देशभर में आंदोलन हुए और हो रहे हैं। विश्व मानवाधिकार संगठन ने इस हेतु वहां की सरकार को चेतावनी दिया है और वहां की सरकार ने वादा किया है कि वह जांच कर दोषियों को दंडित करेगी। समूचे भारतीय परिक्षेत्र में इस तरह की बातें सामान्य हो चली हैं और यह 1947 की पुनरावृत्ति न सही; लेकिन उसी मानसिकता की याद दिलाती हैं। यह मानसिकता जहां बहुसंख्यक है, वहां तो उनका सब कुछ है ही और जबरदस्ती प्राप्त भी करते हैं; लेकिन जहां वे अल्पसंख्यक हैं, वहां अलग शोध (थीसिस) विकसित करते कराते हैं तथा अल्पसंख्यक का रोना रोकर विशेष दर्जा और सुविधाएं प्राप्त करते हैं। आज मीडिया और परिवहन ने दुनिया में इतनी भौतिक नजदीकी पैदा कर दिया है कि सब कुछ स्थूल रूप में पास तो दिखता है; लेकिन संतोष, शांति, संतुष्टि के स्तर पर उतना ही दूर होता जा रहा है। प्रत्येक जगह की घटना हर जगह फैल रही है और उसके असर से विश्व के अनेक इलाके आसानी से उत्तेजना में चले जा रहे हैं। भारत, पाक और बांग्लादेश तीनों जगह की सरकारें इस समस्या को कानून और व्यवस्था की तरह सुलझाना चाहती है या सुलझाने की नौटंकी करती हैं। लेकिन पहले एक देश होने के बाद भी आज अलग – अलग होकर ये तीनों देश भिन्न – भिन्न विशेषताओं से युक्त हैं। पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में जहां बहुसंख्यकवाद बीमारी सरीखा ताण्डव कर रहा है तो वहीं भारत में यह अल्पसंख्यकवाद के रूप में आये दिन वितंडावाद खड़ा करता है। बहुसंख्यकवाद एवं अल्पसंख्यकवाद, दोनों से उत्पन्न तुष्टिकरण ने वीभत्स स्थिति उत्पन्न किया है और यही 1947, 1972 में देश विभाजन का कारण भी था। आज भारत में जो हो रहा है, वह इस समस्या के स्थाई समाधान की दिशा में जरूर है; किन्तु शेष दोनों देश इतने सजग नहीं दिख रहे हैं। यह हो सकता है कि शेष दो देशों में इसका कोई स्थायी समाधान न हो; क्योंकि उनकी बंटवारे के कारण और उस समय से प्रकृति ही ऐसी है।
इसका पहला कारण कि समाज में बहुतायत आबादी को अपने-अपने देश के संविधान में विश्वास नहीं है; उनको अपने मत से जुड़े ग्रंथों पर अधिक विश्वास है और वे संविधान की कीमत पर भी उससे समझौता करने को आतुर रहते हैं। इस तरह के लोगों पर सरकार का कोई असर नहीं, असर है तो मौलवियों और इस तरह के कार्य करने वालों का। इनके पास अकूत पैसा है और धर्म की मनमानी व्याख्या का अधिकार भी इनके पास सुरक्षित है; जबकि सच यह है कि इनको धर्म का ठीक अर्थ भी नहीं पता है। दूसरी समस्या है इनकी व्याख्या पर यकीन करने वाले विशाल जनसमुदाय की; जज्बात उभारने की लोकतान्त्रिक सुविधा की। सरकार या शासन तब आता है जब जज़्बात उभड़कर अपना एजेंडा पूरा कर चुका होता है। पढ़ाई – लिखाई इसका समाधान है या हो सकता है; यह झूठ है। जो जितना पढ़ा लिखा है, वह आग धधकाने में उतना ही दक्ष है। प्रत्येक समुदाय के इतिहास में महान और प्रबुद्ध लोगों की एक लम्बी कतार है; उनके सुझाये रास्ते उनकी पुस्तकों में है और पुस्तकों से पुस्तकालय भरे पड़े हैं। लेकिन क्या इन महान और प्रबुद्ध लोगों की आज कोई सुनता है? जब हम खुद इतने महान् और प्रबुद्ध हैं कि अपने-अपने पैगम्बरों के मुँह से ही अपनी बात कहलवाकर उसे ही फैला देते हैं; तो वे क्या वे श्रेष्ठ लोग जन्नत से आकर हमारा मुँह बन्द कर देंगे? एक बात तो तय है कि इस समस्या के समाधान के लिए, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को बहुसंख्यकवाद से एवं भारत को अल्पसंख्यकवाद के गंदे विचार से पूरी तरह निकलना होगा। नोआखाली नरसंहार, अर्थात दस अक्टूबर 1946 का दिन इतिहास में मूल भारतवंशियों के लिए काला दिन था। यही वह दिन है, जब आज से ठीक 75 साल पहले वर्तमान बांग्लादेश में स्थित नोआखाली में दंगों एवं नरसंहारों की शुरुआत हुई। लाखों की संख्या में भारत आ रहे या विस्थापित हो रहे भारतवासियों को मारा गया। कोजागरी लक्ष्मी पूजा के दिन यह नरसंहार शुरू हुआ और लगभग एक सप्ताह तक चला, जिसमें नोआखली के आसपास के इलाकों से एक खास समुदाय की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या को गायब कर दिया गया।
इसकी शुरुआत फरवरी 1946 से ही हो गयी थी, जब देश को आजादी मिलने वाली थी। अंग्रेज भारत छोड़कर जाने वाले थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने भारत में कैबिनेट मिशन भेजा; वास्तव में यह मिशन भारत के साथ छल या भीतरघात था। मिशन का घोषित उद्देश्य था कि भारत के साथ समझौता करके एक संविधान बनाने वाली संस्था को तैयार करना और भारतीय दलों के समर्थन से एक कार्यकारी परिषद की स्थापना करना; लेकिन अघोषित उद्देश्य कुछ और था। मिशन तब फेल होने लगा, जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेद शुरू हुए। कांग्रेस पार्टी एक मजबूत भारत चाहती थी; वहीं मुस्लिम लीग बंटवारे के जिद्द पर अड़ गयी, जिसको कुछ कांग्रेसी भी पीछे से हवा देकर मिशन के उद्देश्य को परोक्ष रूप से पूरा कर रहे थे। मतभेद जब ज्यादा बढ़ने लगे या प्रायोजित तरीके से बढ़ाये जाने लगे, तब जून 1946 में मिशन द्वारा ही एक नयी योजना प्रस्तावित कर दी गयी। इस योजना ने एक हिन्दू बहुल भारत और एक मुस्लिम बहुल भारत यानि पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव पेश कर दिया। मिशन के उक्त प्रस्ताव का सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओं ने मुखर एवं महात्मा गांधी आदि ने मौन विरोध किया। इससे बौखलाये मोहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को नकारात्मक ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ लांच किया। जिसके बाद विभिन्न भागों में हिंसा भड़क गई और दंगे शुरू हो गये। दंगे भड़काने में मुस्लिम लीग नेता सरवर हुसैनी का बड़ा हाथ था। इन दंगों की शुरुआत ने उसके मंसूबे को मजबूत किया; भड़काऊ भाषण दिये जाने लगे, जिससे प्रभावित होकर एक वर्ग ने दूसरे वर्ग का संहार शुरू कर दिया। तेरह अक्टूबर की दोपहर को खतरनाक हथियारों से लैस एक झुण्ड चंगीर गांव में वर्ग विशेष बहुल गांव पर हमला कर दिया; उनके घरों को लूटकर उनमें आग लगा दिया गया और उन्हें जबरन मतान्तरण करने के लिये विवश किया गया। इनको मारने काटने के बाद भी उनका पेट नहीं भरा तो आस्था एवं विश्वास के केन्द्रों को भी तोड़ा और नष्ट किया गया।
लगभग दो ढाई सौ वर्ग मील के क्षेत्र में दंगों की भीड़ से घिरे निवासियों का नरसंहार किया गया; उनके घरों को जलाया गया; उनकी महिलाओं को बलपूर्वक ले जाया गया और हजारों का बलात् धर्म परिवर्तन किया कराया गया। हजारों गुंडों ने गांवों पर हमला किया; उन्हें अपने मवेशियों को मारने और खाने के लिये मजबूर किया। प्रभावित गांवों में सभी पूजा स्थलों को छिन्न – भिन्न किया गया। नोआखली के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक ने इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। एक हफ्ते से ज्यादा चले इस दंगे में पीड़ितों को बचाने के लिये कोई नहीं आया। इसके बाद 6 नवम्बर को महात्मा गाँधी जब सरोजिनी नायडू आदि के साथ नोआखली पहुंचे और उसके आस पास के इलाकों का दौरा करने निकले तो उपद्रवियों ने उनके रस्ते में भी कांटे बिछाये, उनके रास्ते पर गोमांस तक फेंक दिया गया जिससे वो ये दौरा न कर पाये। गांधी जी ने गांव-गांव घूमकर सभाएं किया; जिससे दंगा रोका जा सके, किन्तु सब असफल रहा। थक – हारकर महात्मा गाँधी ने भी हाथ खड़े कर दिये और पीड़ितों से बोल दिया कि यदि जान बचानी है, तो नोआखाली छोड़ दें। जब पीड़ित लोग नोआखाली से भागकर बिहार में शरण लेने पहुंचे, तो वहां जिन्नाह ने पहले से अपने आदमी खड़े कर रखे थे जिन्होंने बिहार पहुँचते ही वहां भी नरसंहार शुरू कर दिया। जवाब में बिहार के छपरा जिले में प्रतिक्रिया भी शुरू हो गयी। ये वही जिन्नाह थे, जिसने एक वक़्त पर कहा था की मैं एक सच्चा भारतीय हूँ और आखिरी दम तक भारत के लिये काम करता रहूँगा। जिन्नाह कट्टरपंथ को आतंक की शक्ल देने वाले व्यक्ति थे। आज अलगाववाद, आतंकवाद, धारा 370, 35ए, कश्मीरी हिंसा, कश्मीर घाटी की घटनाएं आदि उसी श्रृंखला की कड़ी हैं। कारगिल युद्ध के पीछे भी इसी मानसिकता का हाथ रहा है। आज जब हम कारगिल विजय दिवस की 23 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तो आजादी के पहले की, आजादी के समय की, देश विभाजन की और उससे जुड़े बहुत सी चीजों की याद ताजा हो जाती है। इनकी पुनरावृत्ति किसी भी दशा में रोकना अपरिहार्य है और कम से कम भारत में अभी जो सरकार है, उससे काफी उम्मीद बंधी है।
-डॉ. कौस्तुभ नारायण मिश्र
साभार : युगवार्ता, नई दिल्ली के 16 से 31 जुलाई 2022 के अंक में प्रकाशित।