एक अरसे से मुद्रास्फीति की वजह से अर्थव्यवस्था और आमजन दोनों बेहाल हैं। हालांकि,भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये समीचीन कदमों से हाल के महीनों में मुद्रास्फीति का मिज़ाज कुछ नरम हुआ है, लेकिन अभी भी इसके बाणों से आमजन रोज घायल हो रहे हैं। ऐसे में जरूरत थी, इसकी लगाम को थोड़ा और खींचा जाये। इसलिए,भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने 5 अगस्त को की गई मौद्रिक समीक्षा में रेपो दर में 50 आधार अंकों की बढ़ोतरी की है। एमपीसी4मई 2022 के बाद से रेपो दर में कुल 140आधार अंकों की बढ़ोतरी कर चुकी है। रेपो दर में 50 आधार अंकों की वृद्धि के साथ यह 5.40 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई है।
रेपो दर के बढ़ने या घटने का सीधा असर महंगाई और ऋण दर पर पड़ता है। रेपो दर बढ़ने से ऋण दर में इजाफा होता है, वहीं, महंगाई में कमी आने की संभावना बढ़ जाती है, क्योंकि रेपो दर बढ़ने से बैंक महंगी दर पर कर्ज देते हैं, जिससे लोगों के पास पैसों की कमी हो जाती है।कम आय और उत्पादों की ज्यादा कीमत होने की वजह से मांग में कमी आती है और जब किसी उत्पाद की मांग में कमी आती है तो उसकी कीमत में भी कमी आती है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति की सहनशीलता सीमा को 5 से 6 प्रतिशत के बीच रखा है।खुदरा मुद्रास्फीति जून में 7.01 प्रतिशत थी और यह लगातार छठे महीने केंद्रीय बैंक के लक्षित दायरे से ऊपर रही है। हालांकि,मई में खुदरा मुद्रास्फीति नरम होकर 7.04 प्रतिशत रही, जो अप्रैल में 8 सालों के उच्च स्तर 7.79 प्रतिशत पर पहुंच गई थी।भारतीय रिजर्व बैंक ने ताजा मौद्रिक समीक्षा में कहा है कि वित्त वर्ष 2023 में खुदरा महंगाई दर 6.7 प्रतिशत रह सकती है। दूसरी तिमाही में महंगाई 7.1 प्रतिशत, तीसरी तिमाही में 6.4 प्रतिशत और अंतिम तिमाही में 5.8 प्रतिशत रह सकती है, जबकि वित्त वर्ष 2024 की पहली तिमाही में यह 5.0 प्रतिशत रह सकती है।
अमेरिका में मुद्रास्फीति की सहनशीलता सीमा 2 प्रतिशत है, लेकिन वहाँ मई महीने में महंगाई 8.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई,जो दिसंबर 1981 के बाद सबसे अधिक है।वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में मौजूद अनिश्चितता की वजह से ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में भी मंहगाई अपने चरम पर पहुँच गई है।अमेरिका में मुद्रास्फीति 40 साल के उच्च स्तर पर पहुंचगई है, जिसके कारण फेडरल रिजर्व नीतिगत दरों में तेज इजाफा कर रहा है। फेडरल रिजर्व वर्ष 2022 में अब तक ब्याज दरों में 225 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर चुका है।
फेडरल रिजर्व द्वारा नीतिगत दरों में वृद्धि करने से भारतीय शेयर बाजार से विदेशी पूंजी की बड़ी निकासी हुई है, क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशक बेहतर प्रतिफल के लिए बड़ी अर्थव्यवस्था में निवेश करना बेहतर मान रहे हैं। इससे डॉलर के मुकाबले रुपया भी कमजोर हो रहा है। यह एक से अधिक बार 80 रुपए प्रति डॉलर के स्तर को पार कर चुकाहै।
अमेरिका और भारत की अर्थव्यवस्था के मानक और परिवेश अलग हैं। अमेरिका में महंगाई के जोखिम भारत की तुलना में ज्यादा हैं। फेडरल रिजर्व अपने यहाँ की आर्थिक स्थिति का आकलन करके नीतिगत दर में बढ़ोतरी कर रहा है, लेकिन फेडरल रिजर्व द्वारा नीतिगत दर में बढ़ोतरी करने से भारत भी कुछ हद तक दबाव में आकर रेपो दर में बढ़ोतरी कर रहा है।
बहरहाल, महंगाई में बढ़ोतरी और रेपो दर में लगातार वृद्धि के बावजूद भारतीय रिजर्व बैंक ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि के वित्त वर्ष 2023 के लिए 7.2 प्रतिशत के अनुमान को बरकरार रखा है। पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 6.2 प्रतिशत, दूसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत, तीसरी तिमाही में 4.1 प्रतिशत और चौथी तिमाही में 4.0 प्रतिशत रह सकती है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने वैश्विक आर्थिक वृद्धि अनुमान को 2023 के लिए 2.9 प्रतिशत कर दिया है। इसतरह,वैश्विक आर्थिक वृद्धि की तुलना में भारत की आर्थिक वृद्धि दर बहुत अधिक है।
वित्त वर्ष 2023 के लिएभारतीय रिजर्व बैंक का 7.2 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान मुझे वास्तविक लगता है, क्योंकि मुद्रास्फीति पहले से नरम हुई है और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार इस साल देशभर में 90 से 104 प्रतिशत बारिश हो सकती है,जिससे फसल उत्पादन के बेहतर रहने का अनुमान है।
फरवरी में रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से दुनिया भर में कच्चे तेल और जिंसों की कीमत में उछाल आने से मुद्रास्फीति में लगातार बढ़ोतरी हो रही है,क्योंकि भारत अपनी जरूरत के 80 प्रतिशत से ज्यादा कच्चा तेल आयात करता है। हालांकि, विगत कुछ महीनों में कच्चे तेल की कीमत में नरमी देखी गई है। मार्च महीने में यह 14 साल के उच्च स्तर 140 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंचने के बाद यह घटकर 100 डॉलर प्रति बैरल के आसपास बना हुआ है।
वैसे,अभी भी समग्र मांग एवं निवेश के लिहाज से अनिश्चितता का माहौल दिखरहा है। विश्व की लगभग सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं अपनी वृद्धि रफ्तार को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही हैं और भारत भी मामले में अपवाद नहीं है, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था अन्य देशों की तुलना में ज्यादा मजबूत है। इसलिए, ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है। फिर भी,महंगाई के दबाव में भारतीय कंपनियां भी अपने उत्पादों की कीमत बढ़ाने के लिए मजबूर हैं, जिससे महंगाई का बोझ अंतत: ग्राहकों को उठाना पड़ रहा है।
मुद्रास्फीति की वजह से लोगों की खरीदने की क्षमता घट जाती है। आज भारत समेत विश्व के अनेक देश के लोगों की क्रय शक्ति कम हो गई है। ऐसी अवस्था में लोगों की कमाई कम नहीं होती है, लेकिन मुद्रा की कीमत कम हो जाने की वजह से लोगों को किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जिसके कारण वे न तो जरूरत के सामान खरीद पाते हैं और न ही बचत कर पाते हैं। आर्थिक गतिविधियां धीमी पड़ने लगती हैं। उत्पादन और विकास दर दोनों में गिरावट दर्ज की जाती है। रोजगार सृजनका कार्य बंद हो जाता है और लोगों के हाथों से रोजगार फिसलने लगते हैं। महंगाई की वजह से विविध उत्पादों की मांग में कमी आ जाती है और मांग में कमी आने से कल-कारखानों को उत्पादन को कम करना पड़ता है, जिसके कारणकंपनियों को नुकसान उठाना पड़ता है और लंबी अवधि तक नकारात्मक स्थिति बनी रहने से कंपनियाँ बंद भी हो जाती हैं।
उच्च महंगाई दर के घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय दोनों कारण जिम्मेदार हैं, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। भू-राजनैतिक संकट का अभी भी समाधान निकलता नहीं दिख रहा है। रूस और यूक्रेन अभी भी अपने-अपने ईगो पर अड़े हुए हैं। इस वजह से वैश्विक स्तर पर महंगाई बढ़ रही है। हालांकि,भारतीय रिजर्व बैंक चाहे मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने का मामला हो या फिर रुपया का डॉलर के मुक़ाबले कमजोर होने से रोकने का, हर मामले में वह समीचीन कदम उठा रहा है।रेपो दर में बढ़ोतरी से महँगाई कम होती है, लेकिन साथ में विकासात्मक कार्यों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिए, माना जा रहा है कि आगामी मौद्रिक समीक्षाओं में भारतीय रिजर्व बैंक नीतिगत दरों में इजाफा करने से परहेज करेगा।
-सतीश सिंह