सिन्ध में सूख रहे हैं, किरशन जी के पोतड़े!

ऐसा नहीं है कि जन्माष्टमी की धूम केवल मथुरा- वृंदावन के आस पास ही रहती है। यह पूरे अखण्ड भारत में नाना व्यंजना से मनाया जाता है।
मैं आपको सिन्ध(पाकिस्तान) के नगरपारकर आदि क्षेत्रों की जन्माष्टमी का वृतांत सुनाता हूँ। यहाँ रहने वाले हिन्दू, जिनमें अधिकांश दलित-पिछड़े वर्ग के हैं, कैसे भगवान के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
अभी भी यहाँ दूर दराज की छोटी बस्तियों में हिन्दू रहते हैं।
यहाँ बस्ती में कोई एक परिवार अपने घर पर जन्माष्टमी मनाने का सबको निमंत्रण देता है। सामान्यतः जिस परिवार को नए बालक के जन्म की आशा है, वहाँ यह आयोजन रखा जाता है। उस दिन 8 पुरूष और 8 महिलाओं को दातुन दिया जाता है, वे व्रत रखते हैं और व्रत यजमान के घर ही खोला जाएगा।
जन्माष्टमी की सुबह से ही इस घर में गहमा गहमी शुरू हो जाती है। महिलाएं हरिजस(भजन) गाते हुए तालाब से मिट्टी लाती हैं। फिर Y आकर की केर की लकड़ी को उल्टा कर भगवान के बालरूप की प्रतिमा बनाई जाती है। दोनों हाथों के लिए लकड़ी का एक बड़ा चम्मच, जिसे डोही कहते हैं, वह बांध कर मिट्टी से ढंक कर, ऊपर बहुत सुंदर चेहरा बनाया जाता है।
यह सब स्थानीय महिलाएं ही करती हैं। प्रायः हर घर से कोई न कोई वस्तु आती है।
 सभी लोग बनाने की इस प्रक्रिया को बहुत कुतूहल से देखते हैं। कौड़ी से दांत, कांच की टिक से आंखें बनाई जाती है। थोड़ा सूखने पर बहुत सुंदर रंगों से रंगा जाता है। इस सारी अवधि में उन्हें एक छोटी खाट पर खड़े रखा जाता है और छोटे बच्चों को जो त्रिभुजाकार लंगोट पहनाई जाती है, उसमें लपेट कर रखते हैं। इसे ही श्री कृष्ण भगवान का पोतड़ा कहा जाता है।
लोक में बरसात को लेकर यह आश्वासन भी चलता है कि किरसन जी के पोतड़े धोने को एक बार बरसात जरूर आएगी।
 फिर किसी घर से छोटे बच्चे की नाप के चमकीले नए कपड़े लाकर पहनाए जाते हैं। इसके बाद उस घर के सबसे कीमती और भारी गहने, गले में कण्ठी और निम्बोली, आड, कमर पर करधनी, पैरों में पायल, हाथों में चांदी के ब्रेसलेट, घड़ी आदि पहनाए जाते हैं। सिर पर पगड़ी और कलँगी , नीचे धोती, कन्धे पर अंगोछा, ऊपर लपटन, बहुत शानदार श्रृंगार होता है।
इसके बाद उस घर में मेला सा शुरू हो जाता है। हर घर से मक्खन और मिश्री, प्रसाद, फल, रुपये वगैरह लाकर चढ़ाए जाते हैं। रात्रि में घर के आंगन में उन्हें उत्तराभिमुख बिठाया जाता है। लालटेन और दीपक से रोशनी की जाती है। अगर,तगर, धूप से वातावरण सुगन्धित बनाया जाता है।
कई जगह मौलवियों से नजर बचाकर पुराने मुसलमान भी आते हैं।
बुजुर्ग मुस्लिम महिलाएं बताती हैं कि इस दिन किरशन जी को मक्खन चढ़ाने से बच्चे को सांस रोग कभी नहीं होता। तो वे महिलाएं जिनके छोटे बच्चों को सांस रोग है, वे एक कटोरी में मक्खन और पोस्त(खसखस) दाना रात भर मूर्ति के आगे रखवाती हैं और सुबह अपने बच्चों को चटाती हैं।
 यहीं पर रात भर भजन होते हैं। कभी पुरूष गाते हैं , तन्दुरे, ढोलक, घड़ा, थाली, झांझ बजाते हुए बहुत सुरीले भजन होते हैं। जब पुरूष नहीं गाते तब महिलाएं गातीं हैं।
इस प्रकार अर्द्धरात्रि में जब चंद्रोदय होता है, भगवान के जन्म की घोषणा होती है। सभी एक दूसरे को बधाई देते हैं।
लोग देहरी पर चढ़कर पूर्व दिशा के रहस्यमय, बादलों से ढंके आकाश में मद्धिम चन्द्रमा को पाकर  एक अलग लोक में खो जाते हैं।
घोर अंधकार में उस मद्धिम ज्योतिपुंज को देखकर तुरंत भगवान का वचन याद आता है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम।।
अजवाइन, धनिया, घी और शक्कर की पंजीरी वितरित की जाती है।
भजनों का सिलसिला इसके बाद भी रात भर चलता है। प्रातः आरती होती है। सभी लोग व्रत खोलते हैं। इसके बाद सबसे लम्बी महिला भगवान को विहार सहित सिर पर धारण करती है। पूरा गाँव साथ हो जाता है।
जयजयकार होती है।  किसी नदी, सरोवर के किनारे ले जाकर शेष श्रृंगार को “बढ़ा” लिया जाता है और केवल कोपीन व एक ऊपरी वस्त्र में जल में विराजमान कर दिया जाता है। यदि कहीं जलस्रोत नहीं है तो खेजड़ी के ऊंचे वृक्ष पर चढ़ा दिया जाता है।
यह बहुत ही भावुक दृश्य होता है। विगत 24 घण्टे से उनके सानिध्य में रहकर स्त्री-पुरूष-बच्चे, सबको उनसे लगाव हो जाता है। मुस्कराती, प्यारी सी मासूम आकृति जब पोतड़े में लिपटी खिलखिलाती जल में आखिरी डुबकी लगाती है, बहुत सारे बच्चे रो पड़ते हैं। प्रायः सभी महिलाएं और लड़कियां आंसू पोंछती हुई दिखती है। और जिस घर में “आप श्री” पधारे थे, उनके भावावेश का तो कहना ही क्या।
मैं स्वयं इस दृश्य की कल्पना मात्र से रो देता हूँ। यदि उन्हें वृक्ष पर बिठाया गया है तो सभी लोग बार बार पीछे मुड़ कर मुस्कराती छलिया आकृति को देखते हैं।
सभी भावुक हैं और “आप श्री” पेड़ पर मुस्कुरा रहे हैं।
छोटे बच्चों और शिशुओं को तो इतनी पीड़ा होती है, वे उस जगह को छोड़ना ही नहीं चाहते!!
भगवान, जैसे कह रहे हैं “क्यों, इस बार भी छले गये न!! देखो मैं बड़ा निर्मोही हूँ।”
और तब बड़े बुजुर्ग समझाते हैं कि भगवान अगले वर्ष फिर आएंगे।
भरे मन से सभी लोग घरों को लौटते हैं।
इसके बाद प्रायः इतनी तेज वर्षा होती है कि सबकुछ विलीन हो जाता है।
और यही वह तत्त्व है जो युगों तक अनेक थपेड़े सहे जाने के बाद हिन्दू धर्म में बहुत भीतर तक व्याप्त है। यही वह “कुछ खास” है जो हमारी हस्ती मिटने ही नहीं देता।
यही सत्व,यही तत्व बार बार उद्घोषित करता है-
परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
-कुमार एस.

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