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भारत की कृषि का भविष्य

भारत की कृषि का भविष्य

by हिंदी विवेक
in अक्टूबर-२०२२, कृषि, विशेष
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भारत की पहचान हमेशा से एक कृषि प्रधान राष्ट्र की रही है लेकिन अंग्रेजी राज में किसानों को लाभ उत्पादों की ओर जबरदस्ती धकेला गया। स्वतंत्रता के पश्चात उनकी उन्नति के लिए सार्थक प्रयत्न किए गए। जैन इरिगेशन ने भी टपक सिंचाई के माध्यम से देश में जल संरक्षण और सिंचन के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किया है।

कृषि हमारे देश की नागरिकता के जीवन का मुख्य आधार है। इसने देश के वित्तीय, सामाजिक एवं अन्य क्षेत्रों को जोड़े रखा है। भारत की वित्त व्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय संस्कृति में रीि  त-रिवाज, संस्कार इत्यादि सभी खेती-किसानी से जुड़े हुए हैं। लेकिन आज तक हम कृषक की सही पहचान नहीं कर पाये हैं। किसान की सही परिभाषा क्या है? वे जिनकी खुद की जमीन होती है, या वे जो केवल हल जोतते हैं? समृद्ध किसान वे किसान हैं जो ग्रामीण उत्पादन के आधुनिक साधन रखते हैं। किसान अथवा कृषक वह होता है जो खेतों में श्रम करता है एवं उसकी ज्यादातर आय खेती से होती है। इस तरह हम किसान की परिभाषा तय करते हैं। लेकिन इससे भी परे किसान की पहचान यह है कि वह भारत की वित्त व्यवस्था का मुख्य स्रोत है।

स्वतंत्रता से पहले खेती ही भारत के आत्मनिर्भर होने का मूल आधार थी। लेकिन अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए भूमि व्यवस्था बदलकर जमींदारी की प्रथा प्रारम्भ की। जिसके फलस्वरूप वास्तविक किसान लगातार गरीब होते चले गये। नतीजा यह आया कि खेती और देश की आत्मनिर्भरता क्षीण होती रही। किसान आंदोलनों का भारत वर्ष में लगभग 200 वर्षों का इतिहास है। 19वीं शताब्दी में बंगाल का संथाल एवं नील विद्रोह तथा मद्रास एवं पंजाब में किसान आंदोलन इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। किसान आंदोलनों की भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

स्वतंत्रता से पहले और इसके पश्चात के संघर्षों/ आंदोलनों के बावजूद भी भारतीय किसानों की हालत में सिर्फ 19-20 का अंतर ही दिखाई देता है। समृद्ध किसानों की गिनती उंगलियों पर ही की जा सकती है। परंतु परिस्थितियों से जूझते हुए किसानों की संख्या अनगिनत है। आज भी खेती-किसानी गहरे संकट में है। यद्यपि हरित क्रांति के माध्यम से भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया, परंतु इसका प्रभाव किसानों की परिस्थिति पर मिला-जुला रहा। एक तरफ फसलों का उत्पादन बढ़ा, परंतु खेती की लागत भी बढ़ गई। खेती करने के संसाधनों का विकास हुआ किंतु खेती की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी। भारत की पहचान उन्नत खेती तथा खेती से जुड़े उद्योगों, कलाओं, उत्पादों एवं कारोबार से थी लेकिन आजादी के बाद, प्राथमिकता उद्योगों एवं उससे जुड़े तकनीकी विकास को दी गयी। फलस्वरूप वही मुख्य व्यवसाय हो गये। इससे खेती पर संकट पैदा हुआ और किसान इससे अभी तक उभर नहीं पाया। वर्ष 1950 में हिंद किसान पंचायत अधिवेशन में लोहिया द्वारा अपने अध्यक्षीय भाषण में नए परिवेश के अनुकूल किसान आंदोलन के लिये निम्न लक्ष्य बनाये गये थे। जमीन जोतने वाले को तुरंत सरकारी आदेश पारित कर उनको जमीन आवंटित की जाए। परती जमीन के लिये भूमि समूह बनाये जाएं। छोटी मशीनों द्वारा कृषि का औद्योगीकरण किया जाये, जमीन का पुनर्वितरण हो और प्रत्येक किसान परिवार को 20 बीघा जमीन और ग्राम सदस्यता मिले।

किसान और उसकी चुनौतियां

आज देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान लगभग 18.8 प्रतिशत है। परन्तु यह  लगभग 50 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या को सीधा रोजगार देती है। लेकिन भारत में अभी तक खेती और किसानों की अर्थनीति में जितना महत्व मिलना चाहिये, उतना नहीं मिल पाया है। भारत की रचना ऐसी है कि जब तक खेती संकट से नहीं निकलेगी किसान सम्पन्न नहीं हो सकता। किसानों की बदहाली का अंदाजा उनकी कर्ज-बाजारी से लगाया जा सकता है। कई बार किसान खुद को जमीन में गाड़कर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। पिछले लगभग 20-22 वर्षों से भारत के किसान निरंतर आत्महत्या कर रहे हैं। वर्ष 1998 में किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या महाराष्ट्र के विदर्भ के बाद अब आंध्रप्रदेश और अन्य राज्यों में भी फैलती एवं बढ़ती जा रही है। वर्ष 2022 तक कृषि क्षेत्र में अनेक गतिविधियां घटित हुई है। किसानों की आत्महत्या की घटनाएं निरंतर होती रहती हैं, जो कि चिंता का विषय है। भारत ने कृषि क्षेत्र और अनाज उत्पादन में सुधार के लिए अनेक पहल की है। वर्ष 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण में यह भी संकेत दिया गया था कि सरकार का लक्ष्य वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का था, जिसके लिये सरकार ने पहले से ही कई नई पहल की थी जो काफी कारगर साबित हुई है।

एक कृषि प्रधान देश होने के नाते, भारत विकास के उच्च स्तर तक पहुंच रहा है जहां यह एक सदाबहार घटित होने वाली क्रांति की मांग करता है। जिसका अर्थ है कम प्राकृतिक संसाधन, कम पानी, कम जमीन और कम ऊर्जा के साथ अधिक से अधिक उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त करना शामिल है।

सिंचाई तथा जल आपूर्ति प्रबंधन

भारत में जल वितरण अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। स्थानीय समुदायों में पानी की कमी झगड़े का कारण बन सकता है।  फसल के शुरुआती विकास के दौरान पानी की कमी के फलस्वरूप उत्पादन में महत्वपूर्ण कमी अथवा पूरे उत्पादन की विफलता हो सकती है। बदलते मौसम और प्राकृतिक परिस्थितियों के दौरान फसल की जरूरतों को पूरा करने के लिये, अतिरिक्त पानी की कमी को कृत्रिम रूप से पूरा करना चाहिए। जल आपूर्ति संवर्धन और वर्षा जल संचयन की स्थापना करके, फसल की सही समय पर सिंचाई के लिए आवश्यक पानी की मात्रा की आपूर्ति कर सकते हैं।

जैन इरिगेशन सिस्टम्स लि. कम्पनी का योगदान

एक समय था जब किसान अपने खेतों में पानी नहर एवं बाढ़ के पानी द्वारा देता था। उससे पानी ज्यादा लगता था और फसलें पानी के बहाव के फलस्वरूप खराब हो जाती थी। किसानों को सही कृषि तकनीक की दिशा दिखाने के लिये हमारे पूजनीय पिता एवं जैन इरिगेशन सिस्टम्स लि. कम्पनी के संस्थापक अध्यक्ष भवरलाल जैन ने आधुनिक सिंचाई पद्धति को भारत में विकसित किया और भारत के किसानों को कम पानी में अच्छी फसल एवं अधिक उपज लेने की तकनीक से भी अवगत कराया। कल तक जो किसान नहर से पानी देकर खेती करता था, आज वही किसान टपक सिंचाई तकनीक द्वारा पानी देकर अपने खेत में खेती करके अधिक उत्पादन और उच्च गुणवत्ता वाली फसल ले रहा है।

                                                                                                                                                                                          अशोक जैन 

 

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