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गलतियां न दोहराना ही  श्रद्धांजलि…

गलतियां न दोहराना ही  श्रद्धांजलि…

by अमोल पेडणेकर
in दिसंबर २०२२, विशेष, सामाजिक
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मोरबी हादसा कोई दुर्घटना मात्र नहीं बल्कि प्रशासनिक और मानवीय लापरवाही का प्रतीक है। इस पर राजनीति करने की बजाय ऐसे हादसे दोबारा न होने पाएं, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पुल की मरम्मत का ठेका एक घड़ी बनाने वाली कम्पनी को दिया जाना भी एक बड़ा मुद्दा है। देश भर के ठेकों को लेकर एक सार्थक मानक तय किए जाने की आवश्यकता है।

कोई भी हादसा जिसमें किसी की जान जाती है, मानवता और उसकी ताकत-तरक्की पर प्रश्नचिह्न लगा जाता है। गुजरात के मोरबी शहर में केबल पुल टूटने की वजह से 150 से ज्यादा लोगों का नदी के पानी में समा जाना पूरे देश को झकझोर गया है। ऐसे हादसों से हम बच सकते थे। जब हम पड़ताल करेंगे, तो कदम-कदम पर लापरवाही नजर आएगी। इस हादसे में 150 से अधिक लोगों की जान जाना हर स्तर पर बरती जाने वाली उस भयावह लापरवाही को बयान करता है, जो अपने देश में बहुत आम हो चुकी है। जिसके चलते रह-रहकर इस प्रकार के हादसे होते ही रहते हैं। यह जितना अकल्पनीय है, उतना ही अस्वाभाविक भी है। स्थानीय प्रशासन से बिना अनुमति के पुल को जनता के लिए खोल दिया जाना, तो लापरवाही की पराकाष्ठा ही है। इस पुल की क्षमता सौ लोगों की थी, लेकिन उस पर टिकट लेकर कई गुना अधिक लोग चले गए। यह एक तरह से मौत को जानबूझकर दावत देने का काम था। लापरवाही का सिलसिला यहीं नहीं थमा, पुल पर गए लोगों ने उसे हिलाना शुरू कर दिया, लेकिन उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था। यहां गौर करने वाली बात है कि मोरबी का पुल 142 साल पुराना था। इस पुल को चलाने का जिम्मा एक दीवार की घड़ी बनाने वाली कम्पनी को दिया गया था। इस कम्पनी ने 5 महीने के रेनोवेशन के बाद 26 अक्टूबर 2022 को गुजराती नववर्ष के दिन इसे लोगों के लिए खोल दिया। उसने नगर पालिका को सूचित किए बिना, कोई सर्टिफिकेट लिए बिना ही पुल को खोल दिया था।

यह पहली बार नहीं है जब किसी पुल के टूटने से इतना बड़ा हादसा हुआ हो। अपने देश में कभी पुल टूटने, कभी उन पर भगदड़ मचने से जानलेवा हादसे होते ही रहते हैं। इसी तरह कभी धार्मिक और पर्यटन स्थलों पर सार्वजनिक सुरक्षा को लेकर बरती जाने वाली लापरवाही से भी लोगों की जान जाती रहती है। इन हादसों की सबसे बड़ी वजह लापरवाही ही होती है। विडम्बना यह भी है कि मोरबी जैसे बड़े हादसों से कोई सीख नहीं ली जाती। प्रायः यही देखने को मिलता है कि जांच, मुआवजे और दोषियों को बख्शे न जाने की घोषणा के साथ ही सब कुछ भुला दिया जाता है। मुंबई के एलफिंसटन रेल पुल पर घटी दर्दनाक मृत्यु की घटना हमारे स्मरण में अब नहीं रही हैं। सार्वजनिक स्थलों पर लोगों की सुरक्षा की जैसी घोर अनदेखी की जाती है, उसके चलते आए दिन न जाने कितने लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं। लेकिन कोई जागता नहीं है। न शासन-प्रशासन, न ठेकेदार और न ही आम जनता।

12 अप्रैल 1831 कोे इंग्लैंड के ग्रेटर मैनचेस्टर में इरवेल .नदी पर बने एक सस्पेंशन ब्रिज से ब्रिटिश फौज के 74 जवान कदमताल करते हुए गुजर रहे थे। लेकिन, कुछ सेकेंड बाद ही पुल को थामने वाली लोहे की चेन टूट गई और सभी जवान गहरी नदी में गिर गए। 1826 में बना यह सस्पेंशन ब्रिज सैमुअल ब्राउन नाम के इंजीनियर ने डिजाइन किया था। इस हादसे के बाद से ब्रिटिश फौज पर किसी भी पुल से गुजरते हुए कदमताल करने पर रोक लगा दी गई। जानते हैं ऐसा क्यों हुआ? विज्ञान की भाषा में इसे अनुनाद या रेजोनेंस कहते हैं। दुनिया भर में बने सस्पेंशन ब्रिजों के लिए यही रेजोनेंस सबसे बड़ा खतरा है। यही वजह है कि किसी भी सस्पेंशन ब्रिज पर कभी भी जरूरत से ज्यादा लोड नहीं दिया जाता। यानी किसी भी सस्पेंशन ब्रिज पर कभी भी तय लिमिट से ज्यादा लोगों या वाहनों को गुजरने नहीं दिए जाता है। गुजरात के मोरबी शहर की मच्छू नदी पर बने 142 साल पुराने सस्पेंशन ब्रिज पर भी रविवार को शायद यही हुआ। 100 लोगों की क्षमता वाले इस संस्पेंशन ब्रिज पर 600 लोगों को जाने दिया गया। उस पर मस्ती कर रहे कुछ लोगों की चहल-कदमी ने ऐसी ताल से ताल मिलाई कि पुल रेजोनेंस का शिकार हो गया और कुछ ही पलों में पुल को रोकने वाले वर्टिकल केबल टूट गए और पुल भरभराकर गिर पड़ा।

अब जानते हैं कि रेजोनेंस या अनुनाद क्या बला है, जो अनुनाद पुल गिरा देती है? दुनिया में मौजूद कोई भी चीज पूरी तरह स्थिर नहीं। उनमें कुछ न कुछ कम्पन जरूर होता है। यह कम्पन उस चीज की नैसर्गिक गतिविधि कहलाती है। ऐसे में अगर उसके सम्पर्क में कोई दूसरी कम्पन की चीज आ जाए तो दोनों स्ट्रक्चर के कम्पन बहुत ताकतवर हो जाते हैं।

विज्ञान की भाषा में इसे अनुनाद कहते हैं। विज्ञान का यही सिद्धांत दुनिया के सभी सस्पेंशन ब्रिज पर लागू होता है। लोहे के दो बड़े सस्पेंशन केबल्स के जरिए झूलते सस्पेंशन पुल को अगर उसकी नेचुरल फ्रिक्वेंसी से मेल खाती कम्पन से हिला दिया जाए तो पूरा पुल लहरों की हिचकोले खाने लगेगा और अगर दबाव ज्यादा है तो कुछ देर में पुल टूट जाएगा। इस घटना के पहले के वीडियो में सिर्फ दो लोग मिलकर पूरे ब्रिज को झकझोर देकर हिला रहे हैं, यह साफ दिख रहा है। इससे कम ताकत से भी बड़ा रेजोनेंस पैदा किया जा सकता है। सामने आए इन वीडियो से कुछ बातें साफ होने लगी हैं। गिरने से पहले पुल हिचकोले खा रहा था। भारी भीड़ की कदमताल या भीड़ का व्यवहार इसकी वजह हो सकती है। अभी भी आपको लगता है कि यह पुल अचानक गिर गया, तो आप गलत हैं। शायद इस दर्दनाक हादसे की स्क्रिप्ट किसी देश विरोधी शक्तियों द्वारा पहले ही लिख दी गई हो? या लोगों की मौज मस्ती का अतिरेक 150 से ज्यादा लोगों की दर्दनाक मृत्यु का कारण रहा होगा। यह जानकर आश्चर्य होता है कि 142 साल से भी ज्यादा पुराने इस पुल के जीर्णोद्धार का काम घड़ी बनाने वाली एक कम्पनी को दिया गया था। अपनी पसंद के आधार पर किसी भी कम्पनी को ठेका देने का जो चलन प्रभावी हुआ है, वह कितना घातक हो सकता है, इस बात का मोरबी केबल पुल हादसा मिसाल है। बताते हैं कि 150 लोगों का भार सहने में सक्षम पुल पर चढ़ने के लिए 600 सौ लोगों का टिकट काट दिया गया। क्या कमाई के लोभ में पुल की वास्तविक ताकत को भुला दिया गया था?

भारतीय राजनीति में ऐसे हादसों पर भी राजनीति करने की परम्परा है, तो जाहिर है, मोरबी मामले में भी राजनीति होगी। गुजरात में सत्तारूढ़ भाजपा आज निशाने पर है। हमारे देश में निर्माणाधीन पुल ढहते हैं, उद्घाटन के कुछ ही दिनों के भीतर भी पुल ढहते रहे हैं। देश का शायद ही कोई राज्य होगा, जहां पुल ढहने और लोगों के मारे जाने की घटनाएं न हुई हों। अक्सर यह होता है कि कुछ छोटे कर्मचारियों और ठेकेदारों पर मामला दर्ज कर और मामूली सजाएं देकर जांच और दंड का कर्मकांड पूरा कर लिया जाता है। निर्माण कार्यों और प्रबंधन में लापरवाही एवं भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी रहते हैं। चाहे निर्माण कार्य हों, सार्वजनिक स्थानों पर व्यवस्था बनाये रखने का मामला हो या भीड़ को नियंत्रित करने का प्रश्न हो। गुणवत्ता तथा प्रबंधन के मानक निर्धारित हैं। ये मानक लागू हों, इसकी जिम्मेदारी प्रशासन के बड़े अधिकारियों और सम्बंधित मंत्रालयों का है। यह मौका राजनीतिक लाभ-हानि देखने का नहीं है। कुछ राजनीतिक लोग एक-दूसरे पर भ्रमित आरोप लगाने लगे हैं। लेकिन जाहिर है, चुनावी मकसद से चुनावी मौसम में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला अभी लम्बा चलेगा और अपना अपना हिसाब-किताब लिया जाएगा। इसे हादसा न कहकर जानलेवा अपराध कहना उचित होगा। जो आम जनता, प्रशासनिक अधिकारी और ठेकेदारों सभी ने मिलकर किया है। मोरबी हादसे के लिए शासन-प्रशासन के जो भी अपराधी-लापरवाह तत्व जिम्मेदार हैं, उन्हें भविष्य के अगले हादसे की गुंजाइश पैदा करने के लिए खुला नहीं छोड़ना चाहिए। कॉरपोरेट और सरकारी तंत्र में एक बड़ी जमात है, जिसने लापरवाही, कोताही को अपना बुनियादी स्वभाव बना लिया है।

भीड़ का समुचित प्रबंधन का न होना एक राष्ट्रव्यापी समस्या है। अवकाश के दिनों में, त्योहारों में, बड़े मेलों और धार्मिक आयोजनों में भीड़ का जुटना स्वाभाविक होता है। भगदड़ की घटनाएं भी अक्सर पुलों या संकरे रास्तों पर घटती हैं। जिस हिसाब से दुनिया में आबादी बढ़ रही है, जिस मात्रा में भीड़ जुट रही है, हर जगह सतर्क रहने की जरूरत है। अब समय आ गया है कि सजग लोग किसी भी भीड़ का हिस्सा होने से बचें और अपने आसपास के किसी भी हादसे की आशंका के विरुद्ध पुरजोर खड़े हो जाएं। लोगों की सजगता से ही शायद इस प्रकार की गलत बातें रुक सकती हैं।  मोरबी की घटना ऐसी पहली घटना नहीं है और अगर इससे सीख नहीं ली गयी, तो ऐसे हादसे होते रहेंगे। लोगों की मौत और सैकड़ों लोगों का घायल होना बेहद दुखद त्रासदी है। शुरुआती जांच प्रशासनिक और प्रबंधकीय लापरवाही की ओर इंगित करती है। हमारे देश में लापरवाही के कारण ऐसे हादसों का लगातार होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और चिंताजनक है।

मोरबी के इस झूलते पुल को आधुनिक यूरोपीय तकनीक का उपयोग करते हुए बनाया गया था। सरकारी वेबसाइट में इसे इंजीनियरिंग का चमत्कार बताया गया है। नदी के ऊपर 1.25 मीटर चौड़ा और 233 मीटर लंबा पुल बनाना वाकई तकनीक के चमत्कार से ही सम्भव है। मगर यह चमत्कृत करने के साथ-साथ सुरक्षित तभी रह सकता था, जब इसकी पर्याप्त देख-रेख होती और इसे सावधानी से इस्तेमाल किया जाता। इस हादसे के सवालों के जवाब मिलने जरूरी हैं, अन्यथा ऐसी और दुर्घटनाओं की गुंजाइश बनी रहेगी। सांत्वना के खोखले शब्दों और मुआवजों के चंद रुपयों से पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिलेगा। उनके साथ न्याय तभी होगा, जब इसके असली दोषी सजा पाएंगे। मोरबी और ऐसी अन्य दुर्घटनाओं में मारे गये लोगों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि आगे से वे गलतियां न हों, जो ऐसे हादसों की वजह बनती हैं।

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