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तेजस्वी व्यक्तित्व, कुशल संगठक  रज्जू भैया

तेजस्वी व्यक्तित्व, कुशल संगठक रज्जू भैया

by अरुण आनंद
in जनवरी- २०२३, विशेष, व्यक्तित्व, संघ
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक रज्जू भैया ने अपने जीवनकाल में ही अगला सरसंघचालक चुनने की परम्परा शुरू की, जो संघ में अनवरत जारी है। साथ ही, वे पहले सरसंघचालक थे जिन्होंने विदेशों का दौरा भी किया। कुल मिलाकर उन्होंने एक योगी की भांति जीवन जिया।

प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया ने 11 मार्च, 1994 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचापक का दायित्व संभाला था। संघ के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बाला साहब देवरस ने संघ की परम्परा के अनुसार रज्जू भैया को सरसंघचालक का दायित्व देने का निर्णय लिया था। संघ में यह एक नई परम्परा भी बनी कि अपने जीवनकाल में किसी सरसंघचालक ने अपना दायित्व किसी और को सौंपा। बाद में रज्जू भैया तथा पांचवें सरसंघचाक के.एस. सुदर्शन ने भी इस नई परम्परा को आगे बढ़ाया।

रज्जू भैया पहले सरसंघचालक थे जिन्होंने इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के साथ सीधे काम नहीं किया था। डॉ. हेडगेवार का देहावासन 1940 में हो गया था जबकि रज्जू भैय्या का संघ प्रवेश प्रवेश 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के बाद हुआ था। रज्जू भैया ने इस आंदोलन में प्रयाग (इलाहाबाद) से बड़ी ही सक्रियता के साथ भाग लिया था लेकिन जब बिना किसी ठोस परिणाम के यह आंदोलन समाप्त हो गया तो चारों ओर एक निराशा छा गई; उस समय रज्जू भैया एम.एससी. की अपने अंतिम वर्ष की पढ़ाई पूरी कर रहे थे।

इसी निराशा के माहौल में वे अपने एक सहपाठी के माध्यम से संघ के प्रचारक बापूराव मोघे के सम्पर्क में आए और उन्होंने नियमित रूप से संघ की शाखा में जाना शुरू कर दिया। मोघे ने रज्जू भैया पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ी थी। रज्जू भैय्या का जन्म अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से 29 जनवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद जुलाई, 1943 में उन्होंने इसी विश्वविद्यालय में भौतिकी पढ़ाना शुरू किया और फिर अगले 23 वर्षों तक वहां कार्य किया। यह दिलचस्प है कि अपने अध्यापकीय कार्य को करते हुए वे निरंतर एक प्रचारक का काम भी करते रहे। अपने अध्यापन के साथ उन्होंने संघ कार्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह नियमित रूप से छात्रावासों में जाकर नए छात्रों को संघ कार्य से जोड़ते थे। इन्हीं छात्रों में से कई संघ के प्रचारक बने।

वर्ष 1946 तक प्रयाग जिले में शाखाओं की संख्या बढ़कर चालीस हो गई। उससे कुछ वर्ष पहले, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य पड़ोसी जिले प्रतापगढ़ में भी शुरू हो चुका था। एक 22 वर्षीय प्रोफेसर के रूप में रज्जू भैया ने प्रतापगढ़ में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मजबूती प्रदान करने के कार्य में सहायता करनी शुरू की। वर्ष 1946 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो प्रशिक्षण शिविर लगे, एक फैजाबाद जिले में और एक प्रयाग में। प्रत्येक शिविर में 600 से भी अधिक स्वयंसेवक उपस्थित हुए, जिससे संघ की उस क्षेत्र में बढ़ती हुई शक्ति का पता चलता है। इस बढ़ती हुई शक्ति का एक मूल कारण आम लोगों का कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से मोहभंग और एम.ए. जिन्ना के नेतृत्व में मुसलिम लीग की बढ़ती हुई आक्रामकता थी। वर्ष 1942 से 1946 की अवधि में रज्जू भैया लाल बहादुर शास्त्री, आचार्य कृपलानी, राजगोपालचारी, पट्टाभि सीतारमैया और पुरुषोत्तम दास टंडन तथा अन्य लोगों के सम्पर्क में थे।

जब महात्मा गांधी की 30 जनवरी, 1948 के दिन हत्या हो गई, उस समय के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निशाना बनाया और 4 फरवरी, 1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 5 फरवरी को रज्जू भैया को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें नैनी जेल भेज दिया गया। वे वहां साढ़े पांच महीने रहे और फिर रिहा हो गए।

संघ पर प्रतिबंध हटने के बाद रज्जू भैया ने विश्वविद्यालय से दो वर्ष की छुट्टी ली ताकि संघ के लिए पूर्णकालिक कार्य कर सकें। उन्हें भाऊराव देवरस द्वारा लखनऊ भेज दिया गया, जहां उन्होंने तीन ‘विभागों’ का काम संभाला-लखनऊ, प्रयाग और सीतापुर।

वर्ष 1951 में रज्जू भैया प्रयाग वापस आ गए और अपना अध्यापन कार्य संघ के कार्य के साथ-साथ पुनः शुरू किया। वर्ष 1952 में रज्जू भैया को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रांतीय टीम में लिया गया और उन्हें उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम को बढ़ाने के लिए भाऊराव देवरस की सहायता करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई। इससे पहले यह जिम्मेदारी बापूराव मोघे और दीनदयाल उपाध्याय सम्भाल रहे थे, परंतु भारतीय जनसंघ के गठन के साथ उपाध्याय को इस नए राजनीतिक दल में भेज दिया गया, जबकि मोघे को एक प्रांत प्रचारक के रूप में आंध्र प्रदेश भेज दिया गया। वर्ष 1954 में भाऊराव देवरस छिंदवाड़ा में एक स्कूल स्थापित करने के लिए गए। उन्हें कुछ विश्राम की भी आवश्यकता थी, क्योंकि उनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा था। अब रज्जू भैया को उत्तर प्रदेश में संघ कार्यों की जिम्मेदारी सौंप दी गई। उनकी सहायता माधवराव देशमुख, लक्ष्मणराव भिड़े और विश्वनाथ लिमये ने योग्यतापूर्वक की।

वर्ष 1954 और 1960 की अवधि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तर प्रदेश में अपने कार्य को शीघ्रता के साथ आगे बढ़ाया। उस समय तक रज्जू भैया यह निर्णय ले चुके थे कि वे शादी नहीं करेंगे और अपना सम्पूर्ण जीवन संगठनात्मक कार्यों में लगाएंगे। वर्ष 1960 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें विभाग प्रमुख बनाने का प्रस्ताव भेजा, परंतु उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। उनके पिता भी कुछ वर्ष पहले सेवामुक्त हो चुके थे और प्रयाग में ही रह रहे थे। रज्जू भैया वहां रहकर अपना अधिकतम समय संगठनात्मक कामों में लगाते थे, ताकि अपने पिता की देखभाल भी कर सकें।

वर्ष 1965 में उनके पिता का निधन हो गया और उन्होंने विश्वविद्यालय छोड़ अपना पूरा समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया अंततः जनवरी 1966 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। अब वे एक पूर्णकालिक संघ प्रचारक बन गए थे। रज्जू भैैया ने अब बिहार में कार्य करने का बीड़ा उठाया और इस कार्य को नई शक्ति से आगे बढ़ाया। कुछ प्रमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यकर्ता, जिन्होंने बिहार में संस्था को मजबूत बनाने के लिए उल्लेखनीय भूमिका निभाई, उनमें गोविंदाचार्य (जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के संगठन मंत्री बने), शंकर तिवारी, लक्ष्मणराव भिड़े (जिन्होंने नेपाल में भी संगठन कार्य सम्भाला था), राजाभाऊ स्वरगांवकर आदि शामिल थे।

वर्ष 1975 में जब तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, रज्जू भैया ने भूमिगत आंदोलन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय उन्होंने प्रोफेसर गौरव सिंह के छद्म रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना किया। अगले 19 महीनों तक रज्जू भैया भूमिगत रहे और आपातकाल के खिलाफ आंदोलन को खड़ा करने में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई।

वर्ष 1977 में जब आम चुनावों की घोषणा हुई, रज्जू भैया ने कांग्रेस विरोधी पार्टियों को इकट्ठा करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे जनता पार्टी को ऐतिहासिक विजय मिली।

रज्जू भैया की अद्वितीय संगठन क्षमता का परिणाम यह हुआ कि उन्हें वर्ष 1977 में सहसरकार्यवाह बनाया गया तथा वर्ष 1978 में ही उन्हें सरकार्यवाह की एक और बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी गई। रज्जू भैया का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था, जब उन्हें चतुर्थ सरसंघचालक बनाया गया। वे 70 से अधिक वर्ष की उम्र उस समय प्राप्त कर चुके थे। लेकिन वे सरसंघचालक के रूप में सम्पूर्ण देश का दौरा करने के लिए निकल पड़े। उनका प्रवास कार्यक्रम काफी थकानेवाला था और वे कुछ वर्षों तक बिना रुके यात्राएं करते रहे।

वास्तव में रज्जू भैया पहले सरसंघचालक बने, जो भारत से बाहर भी यात्रा पर गए, उन देशों में, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने मुख्य रूप से ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ’ के बैनर तले काम करना शुरू कर दिया था। इस प्रकार रज्जू भैया यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया गए और वहां पर रह रहे हिंदू मूल के लोगों से उन्होंने सम्पर्क कायम कर उन्हें एक मंच पर एक साथ काम करने के लिए प्रेरित किया ।

अपने कष्टप्रद जीवनक्रम को निभाते हुए रज्जू भैया का शरीर कमजोर हो रहा था, लेकिन अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए वे निरंतर अपने कष्टप्रद कर्तव्य मार्ग पर तब तक चलते रहे, जब एक दिन वे कमजोरी के कारण बाथरूम में गिर न पड़े। उनकी कूल्हे की हड्डी तथा कोहनी की हड्डी टूट गई थी। डॉक्टरों ने अपने सर्वाधिक उत्तम प्रयत्न किए और वे ठीक भी हो गए, परंतु इस घटना ने उनके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाला। इसलिए संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से सलाह-मशविरा करने के बाद उन्होंने 10 मार्च, 2000 को संघ की बागडोर के.एस. सुदर्शन के हाथों में सौंप दी। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की एक बैठक में इस आशय की घोषणा की गई।

लेखक और पत्रकार विजय कुमार, जिन्होंने रज्जू भैया को बहुत नजदीक से संघ के भीतर देखा था, के अनुसार, जैसे ही शाखा आरम्भ हुई, रज्जू भैया एक साधारण स्वयंसेवक की भांति एक पंक्ति में औरों के साथ खड़े हो गए। मैं उस पंक्ति में था, जो उसके आगे थी। मैंने उनके चेहरे की ओर देखा। उनके चेहरे पर अफसोस का कोई भाव न था या फिर ऐसा कुछ नजर न आ रहा था, जैसे वे कुछ खो चुके हों। एक अधिक उम्र के स्वयंसेवक, जो बगल में खड़े थे, उन्होंने रज्जू भैया को देखते हुए कहा, ‘एक व्यक्ति, सर्वाधिक महान् से भी अधिक महान् है।’ क्या उचित टिप्पणी थी यह! शाखा जब समाप्त हुई, उन्होंने कई लोगों से मुलाकात की, कुछ हंसी-मजाक के क्षण साझा किए और फिर अपनी कार में बैठे और चले गए।

सरसंघचालक के पद से स्वेच्छा से मुक्त होकर रज्जू भैया ने संघ के लिए कार्य करना निरंतर जारी रखा। वे सभी महत्त्वपूर्ण बैठकों और कार्यक्रमों में उपस्थित रहा करते थे। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में यात्रा करना भी जारी रखा, परंतु पहले की भांति नहीं। अब वे अपनी यात्रा में सरपट एक स्थान से दूसरे की ओर न दौड़ते थे। अब वे एक स्थान पर कुछ दिनों के लिए रुकते थे। अपने प्रवास के दौरान वे अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत स्वयंसेवकों से व्यक्तिगत रूप में तथा सामूहिक रूप से मिलते थे। उन्होंने हमेशा एक ही बात पर बल दिया कि यह आवश्यक नहीं है कि आपके पास कोई पदनाम व पद हो, तभी आप समाज के लिए काम करेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को समाज के लिए कार्यरत रहना ही चाहिए, चाहे उसे जीवन के अंत तक किसी भी क्षमता में यह काम करना पड़े।

रज्जू भैया अपने जीवन के अंत के कुछ वर्षों में अपना काफी समय पुणे में स्थित ‘कौशिक आश्रम’ में धार्मिक गीत (भजन), श्लोक आदि सुनने में बिताते थे। देश के हर कोने से लोग उन्हें मिलने के लिए आते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक उन्हें नियमित रूप से मिलने आते थे और उनके लिए प्रतिदिन अंग्रेजी तथा हिंदी समाचार-पत्र पढ़ते थे। अप्रैल, 2003 में उनके पांव की हड्डी टूट गई। यद्यपि उनका पांव ठीक हो गया, पर वे पूर्ण रूप से तंदुरुस्त नहीं हो पाए, क्योंकि उनका चलना-फिरना काफी हद तक रुक गया था। 14 जुलाई, 2003 को दिन में 12.30 बजे उन्हें हृदयाघात हुआ, और उनका निधन हो गया।

रज्जू भैया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति के साथ सम्बंधों के बारे में बिल्कुल स्पष्ट राय रखते थे। उन्होंने एक बार कहा, यह कहना गलत है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीति से प्रेरित होता रहा है। सच्चाई यह है कि हमने कभी भी राजनीति को अधिक महत्त्व नहीं दिया। वर्ष 1977 में चंद्रशेखर ने बालासाहब देवरस से कहा कि अब आपकी अपनी पार्टी की सरकार है, इसलिए आपकी संस्था (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) को भी अब सरकार में आना चाहिए। बालासाहब ने कहा, यह आवश्यक नहीं है कि सभी ट्रेनें केवल एक ही प्लेटफार्म से छूटें। जो महत्त्व की बात है, वह यह है कि इन सभी ट्रेनों की दिशा एक ही होनी चाहिए।

रज्जू भैया ने इस बात को और अधिक साफ करते हुए कहा था, हमारी दिलचस्पी मात्र इस बात में है कि राजनीति के क्षेत्र में अच्छे लोगों का निर्वाचन होना चाहिए। हम यह नहीं मानकर चलते कि राजनीतिक संस्थाएं समाज को परिवर्तित करेंगी। परंतु अगर अच्छे लोगों का चुनाव होगा, तब वे राष्ट्र-निर्माण में बाधाएं नहीं पैदा करेंगे, वे..हिंदुत्व का विरोध नहीं करेंगे। अगर इतना सब सुनिश्चित हो सके, तो हम बाकी का काम कर लेंगे…

वर्ष 1995 के विजयादशमी के वार्षिक संबोधन में रज्जू भैया ने जोर देकर कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक शाखा आयोजन की रीति समाज में चरित्र-निर्माण का एक आदर्श तरीका है, जो अंततः समाज में परिवर्तन ला देगा। सरकारी कर्मचारी या सरकार इस प्रकार का परिवर्तन नहीं ला सकती है। यह केवल दृढ़ चरित्रों के पुरुष और स्त्रियां ही कर सकते हैं। और यही वह कार्य है, जिसे संघ कर रहा है। यह उन स्त्री-पुरुषों को तैयार करने का काम करता है, जो समाज में परिवर्तन ला सकें।

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