विषय का विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञान

विज्ञान ने हमारे जीवन को किस सीमा तक प्रभावित कर रखा है इसका वर्णन करना कठिन है क्योंकि जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक हमारे चारों ओर जो भी घटित होता है वह विज्ञान के अलावा कुछ नहीं है। देखा जाए तो ‘विज्ञान’ शब्द की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई और सामान्य मनुष्य में यह समझ तो और बाद में विकसित हुई कि इसे ‘विज्ञान’ कहा जाता है, विज्ञान तो सदा सर्वदा और शाश्वत था। जब आदिमानव ने आग जलाई तो वह विज्ञान ही था, जब उसने पहिया बनाया तो वह भी विज्ञान ही था, जब उसने लकड़ी और पत्थर को एक साथ बांधकर हथियार बनाया तो वह भी विज्ञान था….बस आदिमानव यह नहीं जानता था कि इसे विज्ञान कहते हैं।

उसे तो जैसे-जैसे आवश्यकता महसूस हुई वैसे-वैसे वह आविष्कार करता गया और वैज्ञानिक बनता गया। वैज्ञानिक इस पूरी प्रक्रिया को दोहराते-दोहराते किसी विषय का ‘विशिष्ट ज्ञान’ प्राप्त कर लेते हैं। इसी ‘विशिष्ट ज्ञान’ को ‘विज्ञान’ कहा जाता है। आदिमानव के इन आविष्कारों से लेकर आज के प्रगत विज्ञान के आविष्कारों तक विज्ञान का जो मूल सिद्धांत नहीं बदला है, वह है आवश्यकता। ब्रह्मांड को जानने की आवश्यकता से खगोलशास्त्र बना, जीवों को जानने के लिए जीव शास्त्र बना, अंतरिक्ष विज्ञान, मनोविज्ञान से लेकर आज के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक; सब कुछ विज्ञान के ही आयाम हैं।

विज्ञान और उसके आविष्कारों की शुरुआत तो हुई थी मानव की आवश्यकता की पूर्ति के लिए परंतु आज विज्ञान राष्ट्रों की प्रगति का मापदंड बन गया है। जिस देश का विज्ञान जितना प्रगत होगा वह देश उतना शक्तिशाली होगा। भारत के प्राचीन विज्ञान की तार्किकता को तो चीनी यात्री फाह्यान ने अपने प्रवास वर्णन में उद्धृत किया ही था, स्वतंत्रता के बाद से इस ओर और अधिकाधिक ध्यान देना शुरू कर दिया था। अब जब भारत ने अपनी स्वतंत्रता को 75 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं तबतक भारत विज्ञान के कुछ आयामों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुका है और कुछ अन्य पर जल्दी ही कर लेगा। अंतरिक्ष विज्ञान में तो भारत अब अन्य राष्ट्रों को सैटेलाइट लांच करने के लिए लांचिंग पैड भी उपलब्ध करवाने लगा है। परंतु क्या भारत का विज्ञान उस मापदंड पर खरा उतर रहा है जो यह सिद्ध कर सके कि भारत एक विकसित राष्ट्र है? क्या आज भारत अपने विज्ञान के सहारे विश्व में अपना अलग स्थान निर्माण कर पा रहा है? क्या हमारे आविष्कारों को विश्व में मान्यता मिल रही है? क्या हम अपने सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर बनाकर उन्हें बेच पा रहे हैं या केवल विदेशों के सॉफ्टवेयर से बग्स निकालने और उनके हार्डवेयर को असेम्बल करने तक ही सीमित रह गए हैं? ये वे प्रश्न हैं जिन्हें सामान्य लोग ‘हमें क्या पता’ कहकर छोड़ देते हैं।

आज का विज्ञान सामान्य जनों से दूर हो गया है। भारतीय विज्ञान की जिस तार्किकता और व्यावहारिकता का वर्णन विदेशी यात्रियों ने किया था वह धीरे-धीरे कम होती दिखाई दे रही है। हाथ में बीकर लेकर रसायनों को मिलानेवाले या कम्प्यूटर-लैपटॉप पर कोडिंग करने वालों को ही वैज्ञानिक माना जाने लगा है। वे वैज्ञानिक तो वैज्ञानिक हैं ही परंतु दिन-रात एक करके ॠतु, मिट्टी, वातावरण को ध्यान में रखकर फसलों और अनाजों की नई-नई प्रजातियां उगाने वाला किसान भी वैज्ञानिक ही है। पर उसका विज्ञान, विज्ञान नहीं लगता। जंगल में मनुष्य, जानवर या पक्षी के घायल हो जाने पर वनवासी वहीं की कुछ पत्तियां या जड़ी-बूटियां लगा देते हैं, और घाव ठीक हो जाता है पर वे वनवासी वैज्ञानिक नहीं कहलाते।

दुर्भाग्य से आज विज्ञान को लैब, लैपटॉप तक सीमित कर दिया गया है। आवश्यकता तो यह है कि जिस प्रकार आदिमानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान का उपयोग करता था वैसे ही मानवीय जीवन के हर पहलू की आवश्यकता को समझकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया जाए। आवश्यकताएं हर राष्ट्र के अनुसार बदलती हैं और वही राष्ट्र प्रगत कहलाते हैं जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुसंधान करते हैं और अपने जीवन स्तर को सुधारते हैं। परंतु अपने जीवन स्तर को सुधारने के साथ यह भी ध्यान रखना हमारा कर्तव्य बन जाता है कि कहीं हम पर्यावरण को या मानवीय जीवन को काल के गर्त में तो नहीं धकेल रहे हैं। हिरोशिमा पर अणुबम गिराए जाने पर महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टिन की आत्मा कराह उठी थी, क्योंकि वह विनाशक बम उनके फार्मूले पर ही आधारित था। विकास को तीव्रता देने के लिए किए जाने वाले वर्तमान अनुसंधान पर्यावरण की अपूरणीय क्षति के लिए जिम्मेदार हैं। जोशीमठ की दुर्घटना इसका सबसे नया और समुचित उदाहरण है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से एवरेस्ट से लेकर अंटार्कटिका तक की बर्फ पिघल रही है।

भारत को यदि प्रगत राष्ट्र बनाना है और हमें हमारे विज्ञान को वैश्विक मापदंडों पर खरा उतारना है तो हमें अपनी सोच भी भारतीय रखनी होगी। भारतीय समाज को जिन अनुसंधानों की आवश्यकता है, वे अनुसंधान करने होंगे। विश्व जो कर रहा है उसकी नकल करने की बजाय हमारा जीवन कैसे सुलभ होगा यह अकल लगानी होगी। आने वाली पीढ़ी के पाठ्यक्रमों में ‘भारतीय आवश्यकताएं क्या हैं और उनकी पूर्ति का भारतीय तरीका क्या हो सकता है’, इसका ज्ञान देना आवश्यक है। हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप जब हमारे यहां अनुसंधान होने लगेंगे और इन अनुसंधानों के निष्कर्षों के आधार पर जब हमारे उत्पाद बनेंगे तब हम सही मायनों में विज्ञान आधारित आत्मनिर्भर कहलाएंगे। तब भारत बाहर के उत्पादों की खपत करने वाला बाजार मात्र नहीं रहेगा अपितु वैज्ञानिक आधार पर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला पूर्ण विकसित राष्ट्र कहलाएगा।

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