निसंदेह कुमार विश्वास एक अवसरवादी व्यक्ति हैं परंतु उनके वक्तव्य का अर्धसत्य भी जानना चाहिए, वह है वामपंथी कुपढ़। राष्ट्रवादी विचारक अपढ़ तो नहीं लेकिन यह भी सत्य है की पुराने आदर्शवाद की दुहाई देकर कब तक हमारे पैर इस वैचारिक युद्ध में जमे रहेंगे। हमें समझना होगा कि Past records are for the past. क्या कारण है की साहित्य से लेकर समाज, राजनीति और शिक्षा तक सब कुछ केवल कुछ समय में ही (लंबे इतिहास के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस के 70 साल तो नगण्य ही हैं) वामपंथ के पाले में चला गया वह भी हमारे इसी राष्ट्रवादी, हिंदू बहुल समाज के बीच? क्या यह मुट्ठी भर लोगों द्वारा हुआ वामपंथी वैचारिक आक्रमण ऐसा नहीं है जिसे कोई सशक्त राष्ट्रवादी प्रतिकार ही नहीं मिला।
यह उसी इतिहास की पुनरावृत्ति है जैसे मुट्ठी भर आक्रांता गजनी से निकल अयोध्या होते बिहार/बंगाल तक पहुंचे और हम भारतीय/हिंदू उनका सफल प्रतिकार न कर सके। आंशिक प्रतिकार हुए पर वह परिवर्तन न कर सके। आज ईमानदारी से देखिए तो विचारधारा के रण में राष्ट्रवादी विचार केवल वामपंथ से रक्षात्मक रूप से लड़ कर अपनी रक्षा भर कर पा रहा है। वामपंथ आज भी आक्रामक ही बना हुआ है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे हम चीन के विरुद्ध केवल रक्षात्मक हैं।
हमें आक्रामक होना पड़ेगा:
भारतीय सेना ने विगत एक दशक में स्ट्राइक कोर का गठन किया क्यों की उसे महसूस हुआ की केवल रक्षा से काम नहीं चलेगा आक्रामक होना पड़ेगा।
वैचारिक रण में भी हमें वामपंथ पर आक्रामक होना पड़ेगा। आक्रामक का अर्थ है विमर्श का नेतृत्व करना पड़ेगा। बीते 5 वर्षों का मीडिया और समाचारों का डाटा उठाकर देखिए सबसे अधिक चर्चित 80 प्रतिशत घटनाएं/समाचार वामपंथी नैरेटिव द्वारा शुरू किए गए। परिवर्तन तब आएगा जब राष्ट्रवादी विचार, विमर्श के केंद्र में रहें और वामपंथी विचार रक्षात्मक स्वरूप में आएं।
इसके लिए हमें शोध और अनुसंधान आदि में एडवांस होना पड़ेगा। पुराने की जगह नए और अद्यतन अध्ययनों, डाटा, परिवर्तनों आदि की जानकारी के साथ इसके परिवर्तनों की दिशा में कार्य करना पड़ेगा।
हमारे साथ चुनौतियां:
वामपंथ के विरुद्ध राष्ट्रवादी खेमें में कोई सामूहिक बल नहीं है इसका कारण है घोर जातिवाद और राजनीति के आकंठ डूबे संगठन। वामपंथ में विचारधारा सभी वर्गों और राजनीतियों का नेतृत्व करती है जबकि इसके उलट राष्ट्रवादी खेमें में राजनीति और जातियां विचारों का नेतृत्व करती है।
RSS की कार्यशैली उत्कृष्ट तो है परंतु रिस्पांस टाइम बहुत लंबा है। वामपंथ समय के साथ परिवर्तित हो रहा है तथा सोशल मीडिया एवं इंटरनेट के युग में ऐसे पैंतरे अपना रहा है जिससे बहुत कम समय में त्वरित रूप से राष्ट्रवादी विचारों तथा सरकारों को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया जाता है। बीते कई घटनाओं में आप इसका उदाहरण देख सकते हैं।
अजगर (स्लो) की प्रवृत्ति वाले हम राष्ट्रवादी विचार समूह, वामपंथी करैत सर्प का मुकाबला नहीं कर सकते। साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वामपंथी नैरेटिव के विरुद्ध सोशल मीडिया के माध्यम से एक आम हिंदू ही मैदान में लड़ता दिखाई दे रहा है।
संस्था अथवा समूह के रूप में राष्ट्रवादी विचार, वामपंथ से लड़ते नहीं दिखाई देते। युद्ध की भाषा में वामपंथी एवम राष्ट्रवादी के बीच अंतर को टैक्टीकल (क्विक रिस्पांस हेतु) और स्ट्रेटेजिक (स्लो एंड सस्टेन्ड) हथियारों, युद्धकों से समझा जा सकता है। दोनों की अपनी उपयोगिता है लेकिन इंटरनेट, सोशल मीडिया के दौर में टैक्टिकल का रोल स्ट्रेटजिक से अधिक प्रासंगिक है। खालिस्तानी लोगों ने किसान आंदोलन की खाल ओढ़ कर पूरी दुनिया से सेलिब्रिटीज और पॉलिटीशियन से ट्वीट करा भारत को बैकफुट पर किया, हम अब उसे जस्टिफाई करें क्या होगा कुछ नहीं…..l टैक्टिकल को स्ट्रेटेजिक से नहीं हरा सकते।
आज जबकि संघ वैश्विक हिंदू समाज के नेतृत्व के लिए व्यापक वैचारिक उन्नयन के दौर में है तो ऐसे में विश्व हिंदू परिषद के पास एक बहुत ही स्वर्णिम अवसर है कि वह भारत में वामपंथ के विरुद्ध एक टैक्टिकल वैचारिक मंच बनकर स्वयं को प्रस्तुत कर सकता है।
संलग्न चित्र में एक वामपंथी लक्ष्मण सिंह देव के द्वारा किए जाने वाले शोध का विषय देखिए और विचार करिए कि वामपंथ की निगाह कैसे समाज के त्वरित परिवर्तनों पर है और राष्ट्रवादी ऐसे त्वरित सामाजिक परिवर्तनों के शोध के बदले में अपने पुरातन उदाहरणों से कब तक मैदान बचा पाएंगे? हमें मेरिटोक्रेसी पर बल देना होगा। परफॉर्मेंस ड्रिवन राष्ट्रवादी वैचारिक तंत्र विकसित करना होगा।
– शिवेश प्रताप सिंह