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जातीय और साम्प्रदायिक राजनीति का केन्द्र

जातीय और साम्प्रदायिक राजनीति का केन्द्र

by डॉ सुमन गुप्त
in जनवरी २०१६, सामाजिक
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उत्तर प्रदेश सर्वाधिक अबादी वाला सबसे बड़ा प्रदेश है जिसे छठें  देश की संज्ञा दी जाती है। आबादी व विस्तार के साथ ही इससे जुडे पर्वतीय हिस्से को बांट कर अलग उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया। समय-समय पर राजनीतिक सुविधानुसार इसे तीन-चार भागों में बांटकर इसे अलग-अलग प्रदेश बनाने के लिए राजनीतिक आवाज उठती रही है। पूर्वांचल उनमें से एक है। आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक रुप से देखा जाये तो पूर्वांचल में आते ही उसी प्रकार आप प्रदेश के पश्चिम हिस्से से अलग पाते हैं जैसे आप बुन्देलखंड में जाने पर लगता है यह प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। इतनी विविधताओं वाले इस प्रदेश का अवध के नवाबों से राजा-रजवाड़ों की रियासतों तक का अपना राजनैतिक इतिहास है। पूर्वांचल का यह हिस्सा अत्यधिक उपजाऊ क्षेत्र होने के बावजूद इसकी राजनीति और सरकारों की नीतियों ने इसे बहुत तवज्जो नहीं दी।  एक उर्वरा क्षेत्र होने के बावजूद पिछड़ गया। किसी भी राजनीतिक दल ने इमानदारी से इसके विकास को अपना एजेण्डा नहीं बनाया।

पूर्वांचल का प्रदेश से राजनैतिक या भौगोलिक रुप से विभाजन नहीं है यह एक मौखिक सांस्कृतिक सूत्र का परिचायक हो सकता है। इसमें ७ मंडल १७ जिले आते हैं इसकी राजनैतिक ताकत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की संसद में ३० सांसदों और उत्तर प्रदेश विधानसभा की ४०३ सीटों में से ११७ विधानसभाओं पर अपना प्रभाव रखती है।

प्रदेश की इस उर्वरा भूमि पर बहुत से नेताओं ने अपनी किस्मत आजमाई और वे कांग्रेस, सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों के बैनर तले संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व करते रहे। पूर्वांचल की राजनीति का मूलचरित्र ही बदलता गया। १९६२ में प्रसोपा के नेता, बाद में गाजीपुर से कांग्रेस के सांसद हुए विश्वनाथ ‘गहमरी’ ने लोकसभा में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की उपस्थिति में पूर्वांचल की गरीबी और पिछडे़पन की व्यथा की आवाज उठाई तो प्रधानमंत्री अचम्भित हुए थे। वे कुछ दिन पूर्व ही पूर्वांचल के कुछ जिलों के दौरे से लौटे थे। वे सोच नहीं सकते थे कि इस उर्वरा पूर्वांचल में लोग इतने गरीब और पिछडे हैं कि उन्हें दो जून के भोजन की बात कौन कहे एक जून भी भरपेट भोजन नहीं मिलता है। उन्हें दिन भर की मजदूरी का दो आना ही मिलता है। पूर्वांचल की अत्यधिक गरीबी के बारे में जानकर उन्हें धक्का लगा था। उन्होनें कहा था ‘पूर्वांचल क्षेत्र में इतनी गरीबी लोकतंत्र पर धब्बा है।’ इसके तत्काल बाद ही उन्होंने पूर्वांचल के लिए पटेल कमीशन का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट १९६४ में आयी।

आजादी के पहले महात्मा गांधी के आंदोलन को मुखर करने वाले इसी क्षेत्र में चौरी-चौरा है जो गोरखपुर में है। महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का नारा दिया था। चौरी-चौरा थाने पर यह आंदोलन हिंसक हो उठा और थाने के जला देने के फलस्वरूप दु:खी हुए महात्मा गांधी ने आंदोलन स्थगित कर दिया था। १८५७ में अवध से जो चिंगारी निकली थी, अंग्रेजों से लोहा लेने में पूर्वांचल इसके साथ खड़ा था।

गोरखपुर, वाराणसी, गाजीपुर, बलिया आजमगढ़  पूर्वांचल की राजनीतिक को बदलने के केन्द्र रहे हैं। सत्तर के दशक के शुरूआती दौर में गोरखपुर से राजनैतिक वर्चस्व को स्थापित करने

के लिए बाहुबल और बंदूकों की ताकत के साथ ही जातीय बाहुबली वर्चस्व की जोर आजमाइश होने लगी जो बाद में गैंगवार के रुप में सामने आयी। वीरेन्द्र प्रताप शाही,  हरिशंकर तिवारी से शुरू हुई इस लड़ाई में राजनैतिक वर्चस्व की स्थापित करने के साथ ही वीरेन्द्र प्रताप शाही की हत्या हो गई। इस इलाके से कृष्णानंद राय व मुख्तार अन्सारी, धनंजय सिंह, बृजेश सिंह, श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे लोगों के उदय ने पूर्वांचल की राजनीति का परिदृश्य ही बदल दिया। बाहुबल, आतंक और गरीब, अतिपिछड़ी जातियों के लोगों को गोलबंद कर उन्हें राजनैतिक उपयोग में लाया जाने लगा। कोयले, रेलवे के ठेके, पट्टे, रंगदारी, अपहरण, फिरौती ने पूर्वांचल की राजनीति को निचले स्तर से लेकर ऊंचे स्तर तक प्रभावित किया इससे धन और अपराधिक राजनीति का बोलबाला हो गया। जो जातीय और साम्प्रदायिक दोनों ही रूपों में राजनीति को प्रभावित करने लगा। बहुत से माननीय इन्हीं राजनीति से होते हुए विधानसभा और संसद में पहुंचे।

पूर्वांचल की राजनीति को देखा जाये तो एक तो वह राजनीति थी जो आजादी के ठीक बाद सामने आयी थी जिसमें पूर्वांचल की व्यथा और इसके विकास के बारे में वास्तव में सोच रखते थे। इसके बाद सत्तर के शुरूआती दशक में बाहुबल का दौर शुरू हुआ जो अस्सी के दशक में जातीय वर्चस्व और बाहुबल में बदल गया। नब्बे के दशक में राममंदिर आंदोलन और उससे उपजी प्रतिक्रिया में यह साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति का केन्द्र बन गया। गोरखपुर इस राजनीति का मठाधीशी केन्द्र बना। हिन्दूमहासभा से होते हुए भाजपा का ऐसा गढ़ हो गया कि भाजपा के फायरब्रांड सांसद योगी आदित्यनाथ पूर्वांचल के मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट होने लगे और भाजपा में इस इलाके के टिकट भी उनकी दया और कृपा पर निर्भर हो गए।

२०१४ के चुनाव में पूर्वांचल की इस उर्वरा भूमि को, वाराणसी को नरेन्द्र मोदी ने अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया और इसी के साथ पहली बार समाजवादी पार्टी के मुखिया और तीसरे मोर्चेकी राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव ने भी अपना इलाका छोड़कर इसी पूर्वांचल के आजमगढ़ को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया। नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं और देश चला रहे हैं। वहीं मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। अब उनके बेटे की सरकार है यद्यपि रिमोट मुलायम सिंह यादव के ही हाथ में है फिर भी पूर्वांचल की स्थिति जहां की तहां है।

आजमगढ़ एक ऐसा क्षेत्र रहा है जो कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट राजनीति का केन्द्र रहा है। पिछले कुछ सालों में आतंकवाद के नाम पर दिल्ली में हुए बटला हाऊस इनकाउण्टर के बाद यहां की राजनीति में मुस्लिम वोटों की राजनीति की ऐसी शुरूआत हुई कि उलेमा कौंसिल का खाता तो नहीं खुला लेकिन उपचुनाव में भाजपा का खाता पहली बार आजमगढ़ से खुल गया। पूर्वांचल की राजनीति में ही पीस पार्टी और उलेमा पार्टी जैसी बनी। विधानसभा २०१२ के चुनाव में समाजवादी पार्टी की लहर के कारण उसे विधानसभ चुनाव में २२४ सीटें हासिल हुईं वहीं पीस पार्टी भी अपने बाहुबल और धनबल के जरिए चार सीटें लेने में कामयाब हो गई।

पूर्वांचल की राजनीति के बदलते परिदृश्य को देखा जाये कि १९८९ के बाद इस क्षेत्र की राजनीति ने पलटी खायी और कांग्रेस सोशलिस्ट और कम्युनिस्टों को भेजने वाले विधानसभा क्षेत्र ने साम्प्रदायिक और जातीय राजनीति का चोला पहन लिया। विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वाधिक समय तक विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले ऊदल भी इसी पूर्वांचल से रहे और मिर्जापुर जिले की मेजा विधानसभा चुनाव २००२ में जीते रामकृपाल भी इसी पूर्वांचल से विधानसभा पहुंचे। २००२ के बाद हुए विधानसभा चुनाव के बाद से कम्युनिस्ट पार्टी  के किसी  भी उम्मीदवार को बदले हुए राजनैतिक परिवेश में विधानसभा में पहुंचने में सफलता नहीं मिल पाई।

आज भी पूर्वांचल, उत्तर प्रदेश का पिछड़ा हुआ ऐसा इलाका है जो अभी भी विकास की बाट जोह रहा है।  बिहार व नेपाल की सीमा से लगा इलाका उत्तर प्रदेश का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। आजादी के बाद कांग्रेस, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट प्रभाव के बजाय अब यह बाहुबल, धनबल और साम्प्रदायिक राजनीति का केन्द्र बन गया है। योगी आदित्यनाथ से लेकर बृजेश सिंह, मुख्तार अन्सारी इसके कर्णधार हो गए हैं। एक जमाने में हरिशंकर तिवारी और वीरेन्द्र प्रताप शाही की तूती बोला करती थी।

उत्तर प्रदेश को कई भागों में बांटने की कवायद बसपा सरकार में मायावती ने की थी जिसमें पूर्वांचल, बुंदेलखंड और हरित प्रदेश को अलग करने के लिए प्रस्ताव भी पास कराया था यह एक चुनावी स्टंट के अलावा कुछ भी नहीं था।

पूर्वांचल बनाओ मंच १९९० में बना था लेकिन यह भी परवान नहीं चढ़ सका। इसमें लगे नेता अपना भविष्य विभिन्न पार्टियों में तलाशते हुए ठौर तलाश लिए। मुलायम सिंह से अलग होने के बाद आजमगढ़ के मूल निवासी अमर सिंह भी अलग पार्टी बनाकर पूर्वांचल बनाओ का नारा दे रहे थे जो चुनाव के बाद ही खत्म हो गया और इस नारे का कोई असर भी नहीं दिखाई दिया। बसपा जहां छोटे राज्यों और जिलों की राजनीति करने में विश्वास रखती है वहीं समाजवादी पार्टी उत्त्चर प्रदेश के विभाजन के खिलाफ है। भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने ढ़ंग से इसके साथ और खिलाफ नजर आते हैं। यह बात अलग है कि पिछड़ेपन को दूर करने के लिए बंटवारा कोई मानक नहीं हो सकता है। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। फिर भी राजनीतिक तौर पर अपनी सुविधा और असुविधा को देखते हुए राजनीतिक दल इन खांचों में अपने को पहले बिठाते हैं और पलडे़ के भारी और हल्के होने के कदमताल में अपने निर्णय करते रहते हैं।

जातीय और साम्प्रदायिक राजनीति का केन्द्र बन चुका पूर्वांचल अभी भी एक ऐसे नेता की तलाश में है जो उसके बारे में सोचे और उसे ऊंचाइयों तक ले जाने का ख्वाब रखे। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव दोनों ही अपना अपना इलाका छोड़कर इस क्षेत्र में आये हैं लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं लेकिन मौजूदा हालात से यही लगता है कि लोगों के अरमान दिल में ही रह जायेंगे।

डॉ सुमन गुप्त

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