आखिर गृह और कुटीर उद्योग कैसे विकसित हो?

लघु और कुटीर उद्योगों पर विचार करना  हो तो हमारी आज की आवश्यकताएं, स्वभाव और वस्तुओं के उपयोग करने की पसंद, प्रमुख और निर्णायक बन जाएगी। हम आज से ५०     या १०० साल पहले की स्थिति के आधार पर अध्ययन करना चाहें तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि हम तो उससे बहुत आगे निकल आए हैं; इसलिए पुरातन की ओर नहीं मुड़ सकते। हमारी पसंद वर्तमान और दृष्टि भविष्य पर होगी।

स्वतंत्रता के पूर्व हमारे घर और बाहर प्रयोग और उपयोग की अनेक ऐसी वस्तुएं थीं, जिनसे हम किनारा कर चुके हैं। तब हमारे पैरों में जो चमरौधा जूता रहता था, वह भी कुछ पैरों में, अब उसका स्थान किसने ले लिया है? खड़ाऊ हमारे कितने उपयोग की वस्तु रह गया है? स्लीपर हर घर में पहुंच रहा है। पैरों में चमड़े के जूतों के बजाय प्लास्टिक के जूते, चप्पल अधिक शोभा पा रहे हैं। कुछ समर्थ लोग ही चमड़े के महंगे जूतों को अपनी शान के अनुरूप पसंद करते हैं। हम कपड़े के रूप में खादी को प्रोत्साहित करने के लिए आंदोलन चला रहे थे, गांधी आश्रम खुल रहे थे, गांव-गांव में हथकरघे वितरित हो रहे थे; क्योंकि लक्ष्य था कि लंकाशायर से आयातित कपड़ों को आने से रोका जाए। खादी हमारे शरीर की शोभा थी, लेकिन क्या आज भी वही स्थिति है? हमारे घर में झौली, मौनी, डलिया, झउवा जो सरपत की मूंज बांस, झाऊ, अरहर के डंंठल, वेत से बनते थे, उनका स्थान कौन ले रहा है?

हमारे कृषि कार्य में जो यंत्र प्रयुक्त होते थे, जिन्हें हम खुरपा, खुरपी, बांका, कुल्हाड़ी, कुदाल और फावड़ा के रूप में जानते पहचानते हैं, अब इनका परिवर्तित स्वरूप कहां से आ रहा है। वह लोहार जो इनकी आपूर्ति करता था, उसकी क्या हालत है? कहीं वह भी काम की खोज में दुकान बंद कर, गांव छोड़कर तो नहीं चला गया? बढ़ई, जो हमारे लिए हल, जुआठ, पीढ़ा, चौका, बेलन, चौकी, कुर्सी, मेज की आपूर्ति करता था उसका उत्पादन कितना घटा है? बड़ी और छोटी सन्दूकें किस वस्तु की बनी हुई उपलब्ध हैं, इन पर कौन से पहचान के निशान लगे हैं? यह दिशा प्राचीन उद्यमों को बढ़ाने वाली नहीं है। कुम्हार की हालत क्या है? वह चाय के लिए जिन कुल्हड़ों का निर्माण करता था उन पर भी प्लास्टिक ने कब्जा कर लिया है। इस प्लास्टिक उद्योग को हम कितना ग्रामोद्योग और कुटीर उद्योग मानें।

पुराने कपड़ों के निर्माण में कोरी और जुलाहों की विशेष भूमिका थी, उनके अपने हथकरघे थे जिन पर वे हमारी पसंद और आवश्यकता की वस्तुएं बनाकर उपलब्ध कराते थे। लेकिन हम हथकरघों और शक्तिकरघों को आर्थिक सहायता देकर भी नहीं बचा सके। इनके जो केन्द्र थे, उनके कारीगर और उद्यमी परेशान होकर यह धंधा बंद करते जा रहे हैं। टाण्डा में कारीगरों द्वारा डोरिया और जामदानी बनाने वालों को राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने सम्मानित किया था, लेकिन इस पर लगने वाली लागत का भुगतान करने और इसे धारण करने वालों की संख्या घटी है इसलिए सवाल है कि इसे बेचा  कहां जाए? परिणाम स्वरूप राष्ट्रपति द्वारा दिए गए सम्मान पदक तो आज भी सुरक्षित हैं लेकिन हथकरघे और शक्तिकरघे नहीं। टाण्डा, खलीलाबाद और जलालपुर में अंगोछे, चादरें, साड़ियां आदि बनती थीं, इनके खरीददारों की भीड़ भी रहती थी, लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से जब यही माल बड़े उद्योगों द्वारा निर्मित बाजार में मिलेंगे तो इन्हें कोई कैसे खरीदेगा और प्रतिस्पर्धा में यह उद्योग कैसे खड़े हो सकेंगे, क्योंकि इन पर आने वाली लागत तो मिलनी ही चाहिए जिससे वे अपने उद्यम की रक्षा कर सकें।

भदोही  के कालीन दुनियाभर में मशहूर थे, वहां दरियां भी बनती थीं और बनारस की साड़ियों की ख्याति तो देशभर में थी लेकिन अब उस क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा में जो बड़े उद्योगों का समावेश हुआ है, उससे इनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। अब तो बनारसी साड़ी के लिए सर्वाधिक धागा भी चीन से आयात हो रहा है। रेशम का उद्योग कितना बढ़ सका? इसका निर्माता प्रतिस्पर्धा में अपने को कैसे खड़ा करें; इसलिए यह अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। सरकारी सहायता और योजनाएं भी सहायक नहीं हो रही हैं।

इसी प्रकार जिन्हें प्रजा पौनी कहा जाता था वे अर्द्ध सामंती प्रथा से मुक्ति के लिए नए संघर्ष में जुट गए हैं। उनके सामने यह भी संकट है कि उनके उद्यमों को विकसित करने के लिए प्रोत्साहन के अलावा शोध, अनुसंधान, विश्लेषण और युग की आवश्यकताओं के अनुसार इन्हें चयनित करने का प्रयत्न ही नहीं हो रहा है। यह काम निजी क्षेत्र के बड़े उद्योगों द्वारा तो हो रहा है लेकिन परिणाम यह होगा कि इस प्रतिस्पर्धा में छोटे उद्यम अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर पाएंगे। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर भी उद्यम विकास के लिए विदेशी पूंजी, तकनीक, और ज्ञान का आयात किया जा रहा है।

रस और सिखरन का स्थान बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मित पेय पदार्थ लेते जा रहे हैं। पशुपालन के क्षेत्र में चरागाहों की संख्या घट रही है। बड़ी खेती में आधुनिक तकनीक की मशीनों का समावेश हो रहा है, कटाई, निकाई, गुड़ाई के क्षेत्र में भी यह मशीनें कार्यरत हैं, जिससे काम करने वालों की बेकारी बढ़ती जा रही है।

यह सवाल उठता है कि गृह और कुटीर उद्योगों को विकसित कैसे किया जाए? इसके लिए सबसे पहला काम तो यह करना होगा कि बाजार में उपलब्ध वस्तुओं का मूल्यांकन लोगों की रुचि, स्वभाव और आवश्यकता के अनुसार कराया जाए। फिर हमें औद्योगिक क्षेत्र में कुछ नीति सम्बंधी परिवर्तन भी करने पड़ेंगे, जिसमें लघु एवं कुटीर उद्योगों के लिए कुछ सामग्री आरक्षित करनी पड़ेगी जिसका निर्माण वे ही करें। कपड़े के क्षेत्र में किन निर्माणों के लिए बड़े उद्योगों को रोका जाएगा, यह राज्य के नीति सम्बंधी निर्णयों से जुड़ा हुआ है। पहले तो हमने विदेशी उद्यमों को देश से बाहर किया और अब उन्हें मनाने के लिए छूट और सुविधाओं का प्रलोभन देकर विदेशों में जाकर उन्हें बुलाना चाहते हैं। हमारी रुचियों में जो परिष्कार हुआ है उसका भी ध्यान रखना पड़ेगा। अब पुरानी पीनश, पालकी, डोली का युग तो आ नहीं सकता, इसलिए मशीनीकृत वाहनों की संख्या बढ़ेगी ही। इनके परिणाम भी हमें भुगतने पड़ेंगे; फिर प्रदूषण और स्वस्थ्य जीवन की चिंता हमें सताएगी। लेकिन अभी भी इसके अंधाधुंध प्रयोग पर सरकार किसी प्रकार के प्रतिबंध की समर्थक नहीं है। हम इस पर प्रतिबंध के लिए किसी आंदोलन के पक्षधर नहीं हैं इसलिए समाज में जो परिवर्तन होता जा रहा है, उसका स्वभाव और चरित्र कैसे निर्धारित हो, इस पर हमारा वश नहीं है।

जिस देश में गरीबी की सीमा से नीचे रहने वालों की संख्या ८६ प्रतिशत हो, बेकारी निरंतर बढ़ती जा रही हो, मशीनों के प्रयोग के कारण सरकारी क्षेत्रों में प्रतिवर्ष १० प्रतिशत कार्यकर्ताओं को घटाने का लक्ष्य हो, उद्यमों का अभिनवीकरण और नई तकनीक मजदूरों की संख्या घटाने के लिए ही हो, वहां बेकारों को खपाने के लिए हमारी वैकल्पिक व्यवस्था क्या होगी, यह प्रमुख प्रश्न है।

पूर्वांचल जिसे देश का सबसे जागरूक क्षेत्र माना जाता है, जो स्वतंत्रता आंदोलन में भी अग्रणी रहा है, गांधी और जवाहरलाल ने भी जिसकी प्रशंसा की हो, जिसकी गरीबी की चर्चा संसद में उठने पर प्रधान मंत्री तक अभिभूत हुए हों, उस क्षेत्र का दूसरा दृश्य यह भी है कि यहां ७० प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित हैं, लेकिन अलाभकर जोतों की संख्या ६५ प्रतिशत से अधिक है। पूछना चाहिए कि इस दिशा में जो प्रयत्न किए गए वे कितने लाभकारी, उपयोगी और इस स्थिति से मुक्त कराने वाले थे? इसलिए जब तक लघु, कुटीर ग्रामोद्योगों के लिए क्षेत्र निर्धारित नहीं होगा, तब तक स्थिति यही रहेगी। औद्योगिक विकास के नाम पर सरकारी सहायता और छूट की योजना, जो ६० के दशक में आरम्भ हुई थी, उद्यम तो नहीं बढ़ा सकी लेकिन सरकार का धन डुबोने में अवश्य सहायक हुई।

इसलिए मूल प्रश्न यह है कि समाज का भावी स्वरूप क्या हो? यह भले ही राज्य द्वारा निर्धारित कर दिया गया है?  लेकिन क्या इसके लिए सार्थक प्रयत्न किए जा रहे हैं? क्षेत्र कौन से हो सकते हैं? यह भी तो तय नहीं है। अभी तो आलू की चिप्स और मसाला पीसने और बनाने के क्षेत्र में भी बड़े उद्यम ही प्रभावी हैं। वे लोगों की पसंद का झण्डा गाड़ने में लगे हैं।

इसलिए आज हमारी रुचि, स्वभाव और आवश्यकता में गृह और कुटीर उद्योग कहां-कहां कितना योगदान कर सकते हैं, इस पर पहले विचार करना जरूरी है; क्योंकि अभी तो हमारे पहनावे, ओढ़ावे, चलने, फिरने और उपयोग के क्षेत्र में निरंतर बड़ी कम्पनियां ही समाती जा रही हैं। आज भी हम सबेरे उठकर मंजन से लेकर साबुन और दाढ़ी बनाने की क्रीम के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर ही आश्रित हैं। इसलिए देखना होगा कि यह वर्तमान स्थिति पूर्वांचल में गृह और कुटीर उद्योगों के कितनी अनुकूल है जिससे इस दिशा में आगे बढ़ सकें। अभी तो जो उद्यम कार्यरत हैं सवाल उन्हें बचाने का भी है; परंतु वह कैसे हो इस पर कोई ऐसा प्रयास नहीं हो सका जिससे हम इस क्षरण को रोक सकें। अत: गृह और कुटीर उद्योगों की रक्षा का प्रश्न भी इसी सांसत में है, जिस पर चर्चाएं तो हम करते हैं लेकिन व्यवहार में अमल नहीं। यह उद्यम के साथ ही संस्कृति और कला को भी प्रभावित कर रहा है। हमारी स्वीकार्यताओं की दिशा इसमें प्रमुख सहायक है। विभिन्न क्षेत्रों के सरकारी आंकड़े, विकास की गति और विनियोजन के लक्ष्य तो हमारे पास हैं; लेकिन दिशा का चयन अभी भी असमंजस वाला ही है।

पुरातन का मोह और नए पर आगे बढ़ने की अभिलाषा से कोई क्षेत्र वंचित नहीं है। यह स्थिति  पूर्वांचल की ही नहीं, देश के सभी क्षेत्रों की है। देश में राजनीतिक दलों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। किसी पार्टी के एकाधिकार बढ़ने या घटने की प्रक्रिया में किसने कितने वादों की पूर्ति की या इन सभी की दिशा सत्ता पर अधिकार प्राप्त कर अपने स्वार्थों की रक्षा ही प्रमुख है। लेकिन हम इसे रोक भी तो नहीं सकते। परंतु जिन विदेशी पूंजीगत स्वार्थों की स्थापना के लिए हम प्रयत्नशील हैं, उनका मूल लक्ष्य अपने व्यवसाय की वृद्धि के लिए हमारा उपयोग करना है। ये स्वार्थ चाहते हैं कि आत्मनिर्भर और सुखी बनने के लक्ष्य में हम उसके माल के उपभोक्ता बने रहने की सामर्थ्य न खोयें।

इसलिए यह सारा प्रश्न राष्ट्रीय नीति और सत्ता की इच्छाओं से जुड़ा हुआ है। जन आकांक्षाओं के लिए हम इसे कितना परिवर्तित कर सकते हैं, यह काम एनजीओ कल्चर में नहीं बल्कि इस स्थिति से निपटने के लिए राजनीतिक इच्छा व भावना पैदा करने से ही संभव है।

मो. ९४१५०४७५५५

 

 

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