पंजाब फिर कट्टरपंथियों के निशाने पर

पंजाब में अमृतपाल सिंह एवं खालिस्तान समर्थकों द्वारा हो रहे कारनामे और उस पर पुलिस कार्रवाई के दौरान उसका फरार हो जाना, यह बात पंजाब की कानूनी व्यवस्था के लिए खतरनाक है। यदि वह देश के सीमावर्ती क्षेत्र को एक बार फिर संवेदनशील स्थिति में पहुंचाने का प्रयत्न करता है तो नशे से जूझ रहे पंजाब की स्थिति बिगड़ने में समय नहीं लगेगा। इसलिए राज्य एवं केंद्र सरकार को समय रहते इस अलगाववाद से निपटने की व्यवस्था करनी चाहिए।

जब लोग हिंदू राष्ट्र की मांग कर सकते हैं तो हम खालिस्तान की मांग क्यों नहीं कर सकते? पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने खालिस्तान का विरोध करने की कीमत चुकाई थी। हमें कोई भी नहीं रोक सकता, फिर चाहे वह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हो या अमित शाह। यह बयान खालिस्तान समर्थक संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल सिंह का है। दरअसल पंजाब में एक बार फिर से खालिस्तान चर्चा में है।

खालिस्तान से सहानुभूति रखने वाले ‘वारिस पंजाब दे’ संघटन के मुखिया अमृतपाल सिंह ने  पंजाब में अमृतसर के अजनाला में पुलिस थाने में कानून की धज्जियां उड़ाने वाले हालात निर्मित किए थे।

क्या आप सरकार के नेतृत्व वाले पंजाब राज्य में कानून-व्यवस्था ढह चुकी है? पंजाब में कट्टरपंथी अराजकता फिर से हावी हो रही है। वहां पुलिस ने लवप्रीत सिंह नाम के व्यक्ति को अपहरण समेत कई अन्य आरोपों में गिरफ्तार किया था। लवप्रीत सिंह को अमृतपाल सिंह का करीबी माना जाता है। उसे रिहा कराने के मकसद से अमृतपाल सिंह हजारों हथियारबंद खालिस्तानी समर्थकों के साथ अजनाला थाने पर पहुंच गया था। भीड़ में कई लोग बंदूक और तलवार से भी लैस थे। भीड़ के तेवर और दबाव के सामने वहां मौजूद पुलिसकर्मी लाचार दिखे। पंजाब पुलिस ने लवप्रीत को रिहा कर दिया और यह भी कहा कि वह दोषी नहीं है। ऐसी अप्रत्याशित स्थिति कहीं भी आ सकती है, लेकिन शासन-व्यवस्था एकदम लाचार और उपद्रवियों के सामने समर्पण करती हुई दिखाई दे तो आम जनता अपनी सुरक्षा की उम्मीद किससे करेगी? इस घटनाक्रम से, पंजाब में कानून-व्यवस्था पर सवाल उठा है? आप सरकार के माध्यम से जिस तरह संविधान का संरक्षण होना चाहिए था, वह पंजाब में नहीं हुआ है।

अजनाला थाने का घेराव दिखने में अचानक हुई घटना लगती है, मगर सच यह है कि इसकी पृष्ठभूमि कई दिनों से तैयार हो रही थी। ‘वारिस पंजाब दे’ और उसके मुखिया अमृतपाल सिंह को खालिस्तान से सहानुभूति रखने वाला माना जाता है। समझा जा सकता है कि इस संगठन की चुनौती अब मौजूदा संदर्भों में किस रूप में खड़ी हो रही है। पंजाब में कोई नहीं चाहेगा कि अतीत की वह त्रासदी फिर से खड़ी हो। पंजाब में जब से आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तब से  आपराधिक तत्त्वों को बेलगाम होने का मौका मिल गया है। यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि पंजाब देश का सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य है।

हमें यह भी समझना होगा कि पाकिस्तान की ओर से कई वर्षों से यह कोशिश हो रही है कि पंजाब को अस्थिर किया जाए, पंजाब  फिर साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ की आग में जल जाए। नशीले पदार्थों और हथियारों की तस्करी के जरिये पाकिस्तान एक-डेढ़ दशक से अपनी बिसात बिछा रहा था। विदेशों में भी उनके द्वारा खूब भारत-विरोधी दुष्प्रचार किया जाता रहा है। कुछ दिन पहले ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में कई हिंदू मंदिरों को निशाना बनाते हुए तोड़फोड़ की गई थी। इन घटनाओं को लेकर सीधे तौर पर खालिस्तान समर्थक आंदोलन के सदस्यों को जिम्मेदार ठहराया गया।

खालिस्तानी आंदोलन  की वजह से देश में अब तक हजारों लोग काल के गाल में समा चुके हैं। 1980 के दशक में जब पंजाब में हिंसा और अशांति चरम पर थी, तब इसमें पाकिस्तान की भूमिका को लेकर भारत अवगत था। ऑपरेशन ब्लू स्टार के माध्यम से सरकार ने खालिस्तान मूवमेंट को कुचल तो दिया लेकिन वह जो अलगाववादी विचारधारा थी, उसके कुछ तत्व बचे रह गये। इन तत्वों को समय-समय पर कोई न कोई हवा देता रहता था। हमें तब सतर्क हो जाना चाहिए था, जब पंजाब के संगरूर में लोकसभा का उपचुनाव हुआ। उस चुनाव में जीता हुआ प्रत्याशी सिमरनजीत सिंह मान घोषित रूप से खालिस्तानी हैं। एक ऐसा व्यक्ति, जिसे दो-तीन हजार से अधिक वोट नहीं मिल पाता था, वह लोकसभा का चुनाव जीत गया। उस समय के संकेत को समझ लेना चाहिए था कि दोबारा पंजाब में कुछ खतरनाक हो रहा है।

जिस तरीके से पंजाब में नशीले पदार्थों का कारोबार बढ़ा और उसी के साथ वहां गिरोह बनने लगे, उस पर भी निगरानी होनी चाहिए थी कि कैसे इन सबका सम्बंध खालिस्तानी आतंकवाद के साथ बन रहा है। दुनियाभर में हमने देखा है कि नशे के कारोबार, हथियारों की तस्करी जैसी गतिविधियों का नेटवर्क आतंक के साथ जुड़ा होता है। पंजाब के भीतर जिस तरह की राजनीति हो रही थी, उससे भी संकेत मिल रहे थे। जैसे कि, कैप्टन अमरिंदर सिंह को सत्ता से बेदखल करना। ये सब वैसी ही घटनाएं हैं, जो किसी-न-किसी रूप में सत्तर और अस्सी के दशक में भी घटित हो रही थीं, लेकिन इन बातों को लेकर हमारे यहां ठीक से सोच-विचार नहीं हुआ। आज स्थिति खतरे की घंटी से कहीं आगे निकल चुकी है।

कुछ दिन पहले तक जो अमृतपाल सिंह एक मामूली आदमी था आज न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश की मीडिया में उसका कवरेज हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी उसके बारे में जानने की दिलचस्पी पैदा हो गयी है। ऐसी स्थिति जब भी बनती है, तो बहुत से लोग ऐसी गतिविधियों से जुड़ने लगते हैं। उसकी विचारधारा को इन सब चीजों से और ताकत मिलेगी। पंजाब में जो हालात आज हम देख रहे हैं, उससे खालिस्तान की मांग फिर उठायी जा रही है, इससे संबंधित विचारधारा का प्रचार-प्रसार हो रहा है। इसका प्रतिकार कैसे हो? इसे कैसे रोका जाए? इस पर सही तरह से ध्यान नहीं दिया गया है। हमें याद रखना चाहिए कि सत्तर और अस्सी के दशक में खालिस्तान का मामला विदेश, मुख्य रूप से इंग्लैंड से शुरू हुआ था। बाद में उसका केंद्र कनाडा चला गया, लेकिन आज इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जर्मनी, इटली आदि अनेक देशों में यह प्रोपेगैंडा चल रहा है। मौजूदा हालात का सामना करने के लिए पंजाब राज्य सरकार और केंद्र सरकार के माध्यम से कोई सोची-समझी रणनीति अपनानी चाहिए।

वैसे यह पहला मामला नहीं है, जब धर्म की आड़ में की गई मनमानी के सामने समर्पण किया गया है। ऐसे प्रदर्शन के माध्यम से देश की कानून-व्यवस्था को धता बताने के अलग-अलग मामले यहां-वहां सामने आते रहते हैं। धर्म ध्वजा थामकर  2021 में 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर नई दिल्ली में लाल किले पर राष्ट्रध्वज उखाडकर देश को अपमानीत किया गया था। इससे पहले तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमा पर एक साल तक चले किसानों के आंदोलन के दौरान भी सोशल मीडिया खालिस्तान से जुड़े हैश टैग से भर गया था। क्या ऐसे बेलगाम प्रदर्शनों को हमारा देश बर्दाश्त कर सकता है? किसी भी संगठन को देश की एकता को सबसे ऊपर रखना चाहिए। सिखों की जड़ें भारत की गली-गली में पसरी हुई हैं, कोई उसे सिर्फ पंजाब की भौगोलिक सीमाओं में समेटकर कैसे देख सकता है? समग्र भारतीय सनातन मानस में पूरी सहजता के साथ विराज रहे सिख विचार, संस्कार व संस्कृति के अथाह विस्तार को केवल पंजाब ही में समेटने की कोई भी गलती सिर्फ पंजाब के साथ सम्पूर्ण भारत की पहचान के लिए खतरा है।

पंजाब में सबसे ज्यादा सावधान वहां की राजनीति को रहना चाहिए। सबको इतिहास अवश्य पढ़ना चाहिए। जब पंजाब में आतंकवाद था, तब सबसे भारी कीमत राजनीति ने ही चुकाई थी। धर्म की आंच पर वोटों की रोटियां सेंकना सबसे आसान है, लेकिन ध्यान रहे, ऐसी आंच जब आग में बदलती है, तब बहुत कुछ खाक होने लगता है। इस गम्भीर मसले पर राजनीति नहीं खेली जानी चाहिए। अगर आज राजनीति हुई, तो फिर वही गलती दोहरायी जायेगी, जो सत्तर और अस्सी के दशक में हुई थी। इन्हें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए और न ही यह कहना चाहिए कि पंजाब में कुछ नहीं हो रहा है, क्योंकि सच यह है कि पंजाब में बहुत कुछ हो रहा है। इस देश में किसी भी आस्था आधारित संकीर्ण खेमे को इतना मजबूत नहीं बनने देना चाहिए कि वह स्वयं अदालत लगाकर फैसले सुनाने लगे।

पंजाब में जब से आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तब से कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर कई बार ऐसी हालत देखी गई है, मानो आपराधिक तत्त्वों को बेलगाम होने का मौका मिल गया हो। जबकि चुनावों के दौरान पार्टी ने राज्य की जनता से कानून-व्यवस्था को पूरी तरह दुरुस्त करने से लेकर नशामुक्ति जैसे कई बड़े वादे किए थे। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पंजाब देश का सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य है। ऐसे में मामूली कोताही की वजह से भी कोई साधारण समस्या भी जटिल रूप धारण कर सकती है। ध्यान रहे, कुछ समय से देश ही नहीं विदेशों में भी खालिस्तान समर्थक तत्वों की सक्रियता काफी बढ़ गई है। इन गतिविधियों के पीछे चाहे जो भी साजिश हो, उससे निपटने की जिम्मेदारी राज्य और केंद्र की सुरक्षा एजेंसियों की ही है। पंजाब जैसा सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य एक बार आतंकवाद के दलदल में फंसकर बड़ी मुश्किलों के बाद उससे उबरा है, दोबारा कोई जोखिम मोल नहीं लिया जा सकता।

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