आगामी विधानसभा चुनाव और कर्नाटक की राजनीति

कर्नाटक में चुनाव होने वाले हैं। भाजपा-कांग्रेस एक दूसरे को भ्रष्टाचार और टीपू सुल्तान जैसे मुद्दों को लेकर घेरेंगे। यद्यपि भाजपा के पास येदियुरप्पा जैसा अनुभवी लिंगायत नेता है और कांग्रेस का राज्य नेतृत्व आपसी झगड़ों में उलझा हुआ है। इसके बावजूद चुनावी मुकाबला चुनौतिभरा हो सकता है।

कर्नाटक की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी की भूमिका क्या होगी? क्या पुनः सत्तासीन होने का अवसर उसे मिलेगा? क्या भाजपाई नेता या यूं कहें छत्रप आंतरिक प्रतिस्पर्धा को भूल कर एकजुट होकर कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त हो सकेंगे? ये ऐसे कुछ प्रश्न हैं जिनके उत्तर के लिए भाजपा के शीर्ष नेताओं को भी लगातार चिंतन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय के सर्वमान्य नेता कैसे बने?

2008 में जब जद (सेकुलर) के नेता एच.डी. कुमारास्वामी ने भाजपा जद(से) गठबंधन के समझौते के अनुसार सरकार के गठन में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने तक समर्थन किया परंतु सदन में बहुमत साबित करने से पहले ही गठबंधन को तोड़ दिया। उस समय येदियुरप्पा मात्र 7 दिन ही मुख्यमंत्री बने रह सके। उसके बाद राज्य में मध्यावधि चुनाव की घोषणा हो गई। कुमारास्वामी के इस व्यवहार को लिंगायत समुदाय ने अपना अपमान माना और पूरी तरह से येदियुरप्पा के समर्थन में आ गया। कांग्रेस नेता राजीव गांधी ने भी 1990 में लिंगायत नेता मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बर्खास्त करने की धमकी देकर उनसे इस्तीफा ले लिया था। उनके इस व्यवहार को लिंगायत समुदाय ने अपना अपमान माना था। उस समय भाजपा में येदियुरप्पा तो थे लेकिन उनकी पहचान लिंगायत नेता के रूप में नहीं बनी थी। आगे चलकर पार्टी के लिए समर्पित जुझारू नेता येदियुरप्पा लगभग 18 प्रतिशत लिंगायतों के एक सशक्त नेता तो बने ही और भाजपा को एक लिंगायत नेता भी मिल गया।

यह वही समय था जब कांग्रेस ने भाजपा सरकार के कामकाज के विरोधी लहर और पार्टी के अंदरूनी झगड़े का लाभ उठाया। उस समय सिद्धारमैया कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उनके द्वारा निर्मित अहिंद (अल्पसंख्यक पिछड़ावर्ग और दलित) के नाम पर बनी संस्था को काफी जनसमर्थन मिल रहा था जिससे कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला और सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बने। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी येदियुरप्पा को भाजपा में वापस लेकर आए। कर्नाटक जनता पार्टी का भाजपा में विलय हो गया। अब भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में एक सशक्त लिंगायत नेता येदियुरप्पा मिल गए। भाजपा में येदियुरप्पा का आना कांग्रेस के नेताओं के लिए खतरे की घंटी तो बन ही गई।

2018 में मुख्यमंत्री बने येदियुरप्पा को एकबार फिर पांच वर्ष पूरा करने का अवसर नहीं मिला। क्योंकि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने नीतिगत निर्णय लिया था कि 75 वर्ष से अधिक के लोग किसी भी सक्रिय राजनीतिक पद की जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे। केन्द्रीय नेतृत्व की इस नीति पर दो साल तक के लिए येदियुरप्पा को छूट इसलिए दी गई कि कहीं येदियुरप्पा को बलपूर्वक मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने से लिंगायत समुदाय भाजपा के विरुद्ध न हो जाए। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय कर्नाटक में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ही थे और मोदी की लोकप्रियता के कारण भाजपा ने लोकसभा के 28 सीटों में 25 पर जीत हासिल की और एक-एक कांग्रेस और जनतादल(से) को मिला। भाजपा के समर्थन से एक पर निर्दलीय उम्मीदवार को विजय मिली। ज्ञात हो कि राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। येदियुरप्पा की अधिकतम आयु सीमा और उनके द्वितीय पुत्र विजयेंद्र के सरकार के काम काज में हस्तक्षेप के कारण येदियुरप्पा की पकड़ सरकार के साथ ही पार्टी संगठन में कम होती गई, क्योंकि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने कर्नाटक भाजपा में भारी फेरबदल कर दिया। भाजपा के सामने समस्या यह थी कि लिंगायत नेता को यदि पद से हटाया तो इसका असर पार्टी संगठन के साथ ही सरकार के कामकाज पर भी पड़ेगा। लेकिन पार्टी को कोई निर्णय तो लेना ही था, उसने येदियुरप्पा को मनाया और उनकी सलाह से लिंगायत एस.आर. बोम्मई को मुख्य मंत्री बना दिया।

मुख्य मंत्री बोम्मई के सामने 2023 के चुनाव में भाजपा सरकार की योजनाओं को लेकर जनता के बीच जाकर सरकार बनाने की चुनौती है। लिंगायत होने के बाद भी बोम्मई की लिंगायत समुदाय में ऐसी पकड़ नहीं है जितनी येदियुरप्पा की है। भाजपा नेतृत्व के सामने एक समस्या यह भी थी कि येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से मुक्त करने के बाद उन्हें ऐसी कौन सी जिम्मेदारी दी जाए जिससे लिंगायत समुदाय में सकारात्मक संदेश पहुंचे। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने येदियुरप्पा को केंद्रीय चुनाव समिति का सदस्य और अभी हाल ही में कर्नाटक चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख भी बनाया। कर्नाटक राज्य में भाजपा के उम्मीदवारों के चयन में येदियुरप्पा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी।

कर्नाटक विधानसभा के बजट सत्र में येदियुरप्पा ने भावुक होकर सदन को बताया कि यह उनके जीवन का आखिरी सत्र है, अब वे विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। उनके भावुकता भरे भाषण का प्रभाव कांग्रेस और जद(से) की राजनीति पर भी पड़ेगा। अब येदियुरप्पा मुख्य मंत्री के दावेदार तो नहीं हैं लेकिन वे भाजपा को सत्ता में लाने और अपने किसी खास को मुख्य मंत्री बनवाने के लिए जीतोड़ परिश्रम से पीछे नहीं हटेंगे।

कर्नाटक कांग्रेस के सामने येदियुरप्पा एक चुनौती बनकर तो खड़े ही रहेंगे। कांग्रेस में अंदरूनी उठापटक और गुटबाजी से कांग्रेस के नेता सार्वजनिक रूप से इनकार करते हैं परन्तु पूर्व मुख्य मंत्री और विधानसभा में वर्तमान विपक्षी नेता सिद्धारमैया (सिद्धू) और कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष डी के शिवकुमार के बीच जिस प्रकार से मुख्य मंत्री बनने की होड़ मची है, उससे तो यही लगता है कि चुनाव में जिस नेता के समर्थक अधिक संख्या में जीतेंगे उसे ही मुख्यमंत्री बनाने का दबाव कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर रहेगा। यहां केंद्रीय नेतृत्व का तात्पर्य कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से नहीं लगाना चाहिए। कर्नाटक कांग्रेस की राजनीति में खड़गे भी चाहेंगे कि उनके समर्थकों को पार्टी का टिकट अधिक संख्या में मिले।

राज्य के चुनाव में कांग्रेस और जद(से) प्रमुख रूप से चुनाव के दौरान भाजपा सरकार के कामकाज, सिविल कांट्रेक्टर्स की संस्था द्वारा 40 प्रतिशत कमीशन का आरोप, अभी पिछले दिनों भाजपा विधायक के घर से करोड़ों रुपए लोकायुक्त पुलिस द्वारा बरामद किए जाने के मामलों को प्रमुखता से उठाएंगे। वहीं, भाजपा कांग्रेस के नेता सिद्धारमैया द्वारा टीपू सुल्तान को हीरो साबित करने, कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष डी के शिवकुमार द्वारा मंगलुरू में ऑटो रिक्शा में बम धमाके को लेकर दिए विवादित बयान को चुनावी मुद्दा बनाने से नहीं चूकेगी। जद(से) के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री एचडीके ने साफ तौर पर कहा है कि वह चुनाव भाजपा और कांग्रेस के विरुद्ध लड़ेंगे, जनता दल (से) का इतिहास रहा है कि चुनाव परिणाम में तीसरी पार्टी होने के बाद भी मुख्यमंत्री का पद उसी खाते में आता रहा है।

वर्तमान में राज्य के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्रमु्ख रूप से भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सीधी लड़ाई है। भाजपा के नेता येदियुरप्पा का लिंगायत समुदाय पर किस स्तर तक प्रभाव रहता है और कांग्रेस भाजपा सरकार की असफलताओं और भ्रष्टाचार को किस हद तक चुनाव में भुना सकती है, यह देखना है। अभी तो चुनाव की घोषणा भी नहीं हुई है, चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा करने के बाद चुनावी समर की गतिविधियों और विभिन्न पार्टियों की रणनीति को देखा जा सकता है। अभी किसकी सरकार बनेगी इस पर किसी तरह की भविष्यवाणी या आकलन करना जल्दबाजी होगी।

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