पंजाब जलाने को आतुर खालिस्तानी भस्मासुर

भिंडरावाले के जाने के बाद पंजाब को शांत होने में काफी समय लग गया था। सिखों को काफी हानि भी उठानी पड़ी थी। अमृतपाल के रूप में एक बार फिर पृथक खालिस्तान का मुद्दा सामने आया है, जबकि हिंदू और सिख समुदाय आपस में एक साझी विरासत के वाहक हैं इसलिए हिंदू और सिख संगठनों को सामने आकर इनका प्रतिकार करना चाहिए।

पंजाब में अशांति के बादल छाये हैं। खालिस्तान का मुर्दा फिर अपनी कब्र से उठ बैठा है। विगत वर्षों में रेफरेंडम 2020 के नाम पर माहौल बिगाड़ने की कोशिश हो रही थी। वहीं अब आतंकियों की रिहाई के मुद्दे को लेकर पंजाब में हिंसा चालू है। हालिया घटना पंजाब के अजनाल की है जहां एक अनाम से पृथकतावादी संगठन ‘वारिस दे पंजाब’ के बैनर तले पुलिस थाने पर हमला किया गया। इसमें कई पुलिसकर्मी चोटिल भी हुए। इस संगठन का कर्ताधर्ता अमृतपाल नामक एक ऐसा युवा है जो कुख्यात आतंकी भिंडरावाले को अपना आदर्श बताता है। इनके तौर तरीके भी आपस में मिलते हैं। भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर से अपने आतंकी मंसूबों को अंजाम दिया था। वहीं यह युवक पवित्र पुस्तक गुरूग्रंथ साहिब को हमलों में ढाल के तौर पर इस्तेमाल करता है।

खालिस्तान आंदोलन के दूसरे आतंकी जहां विदेशों में बैठ अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। वहीं यह उनसे उलट हिन्दुस्तान की जमीन पर बैठ आये दिन हिंसा और उत्तेजना की बात करता फिरता है। ऐसा ही कुछ भिंडरावाले भी किया करता था। दरसल भारत में खालिस्तानी आतंकी मंसूबों को तो निष्फल किया गया। किंतु इसके पीछे की सोच को बदलने का कोई समुचित प्रयास नहीं हुआ है। दरअसल ये पृथकतावादी विचार पहले भी मौजूद थे। तभी तो मुगलों के खिलाफ निर्णायक युद्ध में सिखों के एक तबके ने साधु बंदा बैरागी का साथ नहीं दिया। जबकि हिंदू वीर थे जिन्होंने गुरुगोविंद सिंह के पुत्रों की शहादत का बदला लिया था। किंतु इस पृथकतावाद को एक विचार के रूप में प्रतिस्थापित करने का घृणित कार्य अंग्रेजी शासन ने किया।

काहन सिंह नाभा जैसे मोहरों के माध्यम से पृथक सिख इतिहास लिखा गया। इतना ही नहीं नाभा के द्वारा ‘हम हिंदू नहीं’ नामक पुस्तक लिखवाई गई। हिंदी में प्रकाशित इस पुस्तक का पंजाबी अनुवाद भी लाया गया था। इस दौर में ब्रिटिश शासन द्वारा पृथकतावादी ‘गुरु सिंह सभा’ जैसे संगठन को खाद पानी दिया गया। किंतु ये यहीं रुके नहीं, सन् 1925 में विलायती हुकूमत ने सिखों को अलग बताते हुए गुरुद्वारा ऐक्ट पास किया। अन्यथा इसके पूर्व गुरुद्वारे भी मंदिर और मठों से थे। बात प्रबंधन व्यवस्थापन की हो तो, तब हिंदू सिखों में कोई भेद नहीं हुआ करता था। स्वतंत्रता के बाद एक समग्र राष्ट्रीय सोच और सांस्कृतिक पहचान के दृष्टिकोण अभाव के नाते भी खालिस्तानी पृथकतावाद पनपता रहा। जिसे कांग्रेस और अकाली दल के निहित स्वार्थ और गलत राजनीतिक नीतियों ने आतंकवाद के रूप में आने का अवसर उपलब्ध कराया।

कांग्रेस द्वारा शुरुआत में भिंडरावाले का समर्थन एक ऐसा ही कदम था। जबकि अकाली दल द्वारा सन् 1967 एवं 1973 में दो बार पेश किये गए। अकालियों के यह आनंदपुर साहिब प्रस्ताव भारत की एकता अखंडता के सीधे-सीधे खिलाफ है। पंजाब में जब से आम आदमी पार्टी की सरकार आई है तब से इन खालिस्तान आतंकियों के पौ बारह हैं। विगत वर्षों में आम आदमी पार्टी के उभार के साथ ही इनकी गतिविधियों में एकाएक बढ़ोत्तरी देखी गई। बात किसान आंदोलन के नाम पर हुई अराजकता की करें या फिर बेअदबी के नाम पर हुई नृशंस हत्याओं की, सबके पीछे कहीं न कहीं खालिस्तान  समर्थक समूहों की संलिप्तता है।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि आप पार्टी जैसे दल निहित स्वार्थ में इनके प्रति नरम रवैया रखते हैं। ऐसे में आशा की एकमात्र किरण वर्तमान केंद्र सरकार है। किंतु वह अभी तक ‘बिगड़े हुए चंद लोग’ वाली धारणा से बाहर नहीं निकल पाई है। यह  उसे सम्भवतः विरासत और विचार के रूप में मिला है। किंतु अब परिस्थितियां कहीं अधिक जटिल हैं। बदलते दौर में ये खालिस्तानी अतिवादी पहले से कहीं अधिक आक्रामक और उग्र हो चले हैं। दुनिया भर में भारत विरोधी प्रदर्शन किये जा रहे हैं।  भारत के राष्ट्रीय प्रतीक एवं ध्वज का अपमान भी हो रहा है। यहां तक की शासकीय इमारत से लेकर हिंदू समुदाय के मंदिरों को देश विदेश में निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे में इस समस्या को केवल  पाकिस्तान प्रेरित और कनाडा पोषित मान कर विचार करने से काम नहीं चलेगा। सिख समुदाय के लोगों को इस प्रकार के तत्त्वों के खिलाफ आगे आना होगा। अन्यथा यह एकतरफा भाईचारा चलने से रहा।

अतीत में ऐसी ही कारस्तानियों का खामियाजा यह देश देख चुका है और सिख समुदाय झेल चुका है। ऐसे ही घृणित कार्योंका नतीजा है कि बात अब सिख कारोबारियों के बहिष्कार तक पहुंच चुकी है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न में हिंदू समुदाय द्वारा दुख के साथ ऐसा एक निर्णय लिया गया है। ऐसे में भारत के नीति निर्धारकों एवं देशव्यापी प्रभाव वाले संगठनों को भी एकतरफा रिश्तेदारी नातेदारी वाले फलसफे को छोड़ राष्ट्र हित में सोचने की आवश्यकता है।

बात अगर खालिस्तान के सोच को जड़मूल से नष्ट करने की हो तो सिखों को कृत्रिम गौरव बोध से निकलना होगा। वहीं बहुसंख्यक हिंदु जनमानस को भी इस धारणा से निकलने की जरूरत है कि सिखों के उनके ऊपर उपकार हैं। वास्तविकता तो ये है कि सिख गुरुओं ने अगर शहादत दी तो हिंदू वीरों ने उनके लिए जान प्राण न्योछावर किया और अपना धन-सम्मान खर्चा है।

वैसे भी हिंदू और सिख कभी अलग नहीं रहे हैं। एक ही थाती और विरासत के इकट्ठे वारिस हैं। सिख परम्परा की कई धाराएं मसलन उदासी, मीणे, रामराई, निर्मल, बंदई, नामधारी, निरंकारी सिख हिंदुओं से काफी निकट हैं। ऐसे ही अमृतधारी इन तत खालसाई सिखों को भी हिंदू धर्म से परिचित कराये जाने की आवश्यकता है। क्योंकि खालिस्तानी सोच केवल इसी तबके के अंदर मौजूद है। इसके लिए संतों, हिंदू संगठनों और हिंदू सिख धारा के सिख समुदायों को आगे आना होगा। अन्यथा एक पक्ष का हिंसक रवैया और दूसरे की एकतरफा भाईचारा सनातन संस्कृति और पुरातन भारतवर्ष के लिए खतरा है।

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