भुनाने का दौर

हमने हमारे बचपन में भुनने का दौर देखा है। होरा भुनते देखा है। गेहूं की बाली भुनी हुई देखी। ज्वार-बाजरे की बाली भी भुनते देखी। कम से कम कान की बाली से उठी हुई जमीनी सोच तो थी ही। यहां तक कि नारियल, काजू, मूंगफली, तिल, चना सब कुछ भुनते हुए देखा। इसके स्वाद के बारे में बताने के लिए शब्द नहीं हैं। सब कुछ शब्दातीत है। और अब अतीत भी है। आज लोगों को जब दूसरों के दिल से लेकर दिमाग तक भुनाते हुए देखती हूं तो लगता है कि यदि इन्होंने भुनती हुई भट्टी को देखा होता तो शायद भट्टी की गरमी का अंदाजा लगा पाते और ये भी पता होता कि भुनने के बाद उसकी तासीर, स्वाद और रंगरूप काफी-कुछ बदल जाता है।

अब क्या ही कहा जाए! ये हमसे ज्यादा भाग्यशाली ही कहलाएंगे कि इन्हें एसी की ठंडी हवा आसानी से मिल रही है। ठंडी में गरमी और गरमी में ठंडी का एहसास आसानी से हो रहा है। ये गरमी में भट्टी बनते घरों की वो गरमी कहा भांप सकते हैं जहां गमछे या तौलिए को गीला करके बदन को ठंडा रखा जाता था। इनका अवतार उच्च और दर्जेदार माहौल में हुआ है। इसलिए अब घर ठंडे रहते हैं और धरती पहले से ज्यादा आग उगल रही है।

ठंडे में रह-रहकर इनकी ठंडक देखते ही बनती है। ये इतने ठंडे हैं कि डेड बॉडी को भी भुनाने के काम ला सकते हैं। ठंडी डेड बॉडी से माहौल में गरमी पैदा करना इनकी उच्चतम अवसरवादिता का प्रमाण है। गमगीन आंखों से बहते आंसू तो महज पानी की कुछ बूंदें हैं जिसे भुनाना बाजार का फेवरेट काम है। उसकी कीमत पता है इसलिए वो भुन रहे हैं। आंसुओं के उद्गम स्थल की कोई कीमत नहीं है। कौन खरीदेगा रोने वाले को!! इतना शक्तिशाली खरीददार अब तक नहीं हुआ जो कमजोर में शक्ति जगा सके।

इसके साथ ये भावनाएं भी भुनाते हैं। आजकल बाजार ने भावनाओं की नब्ज पकड़ रखी है। तभी तो कोई भी त्योहार या बड़ा दिन हो, बाजार के रंगीन शामियाने में भावनाएं बिकते हुए और भी खूबसूरत लगती हैं। लोगों को लुभाती भी हैं। इतनी सुंदर भावनाएं हमने पहले कभी देखी ही नहीं थीं। हमारे लिए भावनाओं का मतलब था कि घर में चार लोग इकट्ठा हो हंसी-ठिठोली कर लें। अपने सुख-दुःख साझा कर लें। कुछ अच्छा नमकीन-मीठा घर में बनाकर खिला दें। एकाध कोई ठीक-ठाक कपड़ा खरीदकर दे दें। जाते हुए बड़ों से आशीर्वाद ले लें और साथ में दस का नोट हाथ की मुट्ठी में कसकर बांध लें। यही सब भावनाएं होती थीं एक-दूसरे के लिए जो मुट्ठी से होते हुए दिल में बसती थीं। कहा जाए तो एकदम फोकटिया भावनाएं थीं। दिल और भावनाओं के बीच बाजार कहीं था ही नहीं इसलिए दिखावा भी नहीं था क्योंकि पैसा लिमिटेड था। अब लिमिटलैस पैसा है तो बहती हुई भावनाओं को लपकने का दौर चल रहा है। घर के भीतर भावनाएं बची नहीं इसलिए खरीदकर लाना दिखावे की मजबूरी भी बन गई है।

भावनाएं अब मार्केटिंग की ब्रांड एम्बेसेडर हैं। इसके बिना न नेताओं की मार्केटिंग सम्भव है और न ही छोटे-बड़े बिजनेसमैन की। ऐसी स्ट्रेटेजी बनाने में सब माहिर हो चुके हैं कि हम अब ये नहीं कह सकते कि भावनाएं गईं तेल लेने, हम तो बस सौहार्द्रपूर्वक कमाने में विश्वास करने लगे हैं। अब तो तेल का जुड़ाव भी भावना से है। ‘दिल के पास जो दिल को दे मजबूती और पति-पत्नी को रखे सदा साथ’ टाइप के विज्ञापन तेल को दिल के करीब पहुंचाने के लिए काफी होते हैं। अंडरवियर तक तो कह देती है कि ‘ये अंदर की बात है’। जबकि इस अंदर का ताल्लुक भी दिल से ही होता है।

नेताओं की मार्केटिंग भी इसी तरह होती है। ‘आपकी गली में सबसे पहले बोरिंग खुदवाएंगे। आखिर जनता कब तक पानी ढोकर लाएगी! हम पानी को घर-घर तक पहुंचाएंगे’। ये तब किसे मालूम होता है कि फलानी गली की जमीन के अंदर पानी है भी या नहीं। इसी तरह रोड का भी काम गिना दिया जाता है। स्कूल भी इसी मार्केटिंग के तहत खुल जाते हैं। क्या फरक पड़ता है कि सड़क गिट्टी की बनी है या मिट्टी की!! स्कूल खपरैल का है या आरसीसी की छत है!! अरे भाई! स्कूल में अंगूठाछाप पढ़ा रहा है या लगे हुए शिक्षक की जगह कमीशन पर कोई और ही पढ़ा रहा है, इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं होता। सही बात भी है नया कपड़ा धुलने के बाद छोटा हो जाए तो गलती दुकानदार की थोड़े ही मानी जाती है, कपड़े की होती है।

अब जिधर देखो उधर हर चीज भुन रही है। वंचित वर्ग इन भुंजड़ों का कच्चा माल है तो मध्यमवर्ग इसकी उर्वरक क्षमता बढ़ाने के लिए खाद-पानी है। उसकी सौंधियाती खुशबू हर दहलीज पार करके दिल तक पहुंच रही है। भुनाने का शउर होना चाहिए। भावनाओं में बहकर नहीं बल्कि बहती हुई भावनाओं की बाढ़ को रोककर उमससे बिजनेस पैदा करना मतलब भुनाना होता है। सो भाई लोगों हर जगह भुंजड़े पाए जा रहे हैं। जरा सम्भल के, कहीं आप ही उस सौदागर का शिकार होने तो नहीं जा रहे हैं!!

– समीक्षा तैलंग 

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