मुंबई से दिल्ली प्लेन का सफर मुझसे काटे नहीं कट रहा था। आज सुबह ही नीरा की बेटी शालिनी का फोन आया था। उसने रोते हुए कहा था, आंटी, मम्मी से मिलना है, तो जल्दी से आ जाइए। डॉक्टर ने कहा है, उनके पास अब अधिक समय नहीं है। शालिनी की हिचकियां मुझे फोन पर साफ सुनाई दे रही थीं। मेरे मन में अपनी प्रिय सहेली नीरा का हंसता हुआ चेहरा सजीव हो उठा था। नीरा मस्तमौला स्वभाव की थी। वह सबको हंसाती।
उसे देख कर कभी ऐसा लगता ही नहीं था कि उसने जिंदगी में केवल दुख ही दुख भोगे हैं। वह तो स्वयं दुख की पर्याय बन कर रह गई थी। बचपन में माता-पिता जल्दी छोड़ कर चले गए। विवाह के बाद पति शराबी मिला, जो उसे कठोर यातनाएं देता था। जैसे तैसे नीरा ने उसके साथ आठ वर्ष बिताए थे। पर एक दिन तो हद ही हो गई जब उसके पति शीतल ने अफीम का नशा कर लिया। उसकी स्थिति बहुत खराब हो गई। पुलिस आयी और नीरा से पूछताछ करने लगी। पुलिस नीरा पर भी तरह-तरह के आरोप लगाने लगी।
उसी दिन नीरा ने अपने पति शीतल से तलाक लेने का मन बना लिया था। उसने अपने सास, ससुर से कहा, मैंने शीतल का साथ निभाने की बहुत कोशिश की है। अब मैं हार चुकी हूं। शालिनी बिटिया भी बड़ी हो रही है। अपने पिता की आदतों के कारण उसे भी न जाने कितने अपमान के घूंट पीने पड़ेंगे। शीतल शराब पीकर मुझ पर हाथ उठाता है, तो वह नन्ही सी जान बुरी तरह सहम जाती है। मैं शीतल से तलाक लेकर अपनी बेटी शालिनी के साथ अलग फ्लैट में रहना चाहती हूं।
नीरा के सास, ससुर मान गए थे। वे अपने बेटे की कमजोरी समझते थे। नीरा स्वयं पढ़ी लिखी थी और बैंक में मेनेजर थी। एक वर्ष बाद ही उसे तलाक मिल गया था। शालिनी और नीरा दोनों एक दूसरे की सुख- दुख की साथी थीं। शीतल तो उन दोनों मां बेटियों को तलाक के बाद भी तंग करता था। चाहे जब आ जाता और उससे नशे के लिए रुपये मांगने लगता। कई बार तो मां ,बेटी को पुलिस तक बुलानी पड़ी थी। शालिनी बचपन से बड़ी सहनशील और समझदार थी। जिंदगी की परेशानियों में तप कर वह खरा सोना बन गई थी। अठारह वर्षीया बेटी शालिनी की मुझे बहुत चिंता हो रही थी। कैसे सहेगी शालिनी सब कुछ। अकेले कैसे जिंदगी काटेगी। अपने पिता से तो उसे कोई आशा थी ही नहीं।
जब मैं दिल्ली एयरपोर्ट से नीरा के घर पहुंची तो मेरे बचपन की प्यारी सखी नीरा मुझे देख कर पहले तो मुस्कराई फिर उसकी आंखों से आंसुओं की बूंदें लुढ़क कर तकिये पर आ गिरी। मैंने देखा, लगातार रोने के कारण उसकी आंखों के नीचे आंसुओं की रेखा सी बन गई थी। आंखों के चारों और काली झाइयां पड़ गई थी। वह सिर-दर्द से व्याकुल थी। ब्रेन ट्यूमर की गहन पीड़ा के कारण न वह कुछ बोलना चाहती थी न सुनना। मैं उसका हाथ पकड़ कर उसके बिस्तर पर बैठी रही। हम दोनों की आंखों से आंसू बहते रहे। उसने अपने मन की कुछ जरूरी बातें मुझसे धीरे-धीरे कहीं।
मैं उसे झूठी दिलासा देती रही, नीरा तू चिंता मत कर। तू जल्दी ही ठीक हो जाएगी। सब ठीक हो जाएगा। पर नीरा को भी अपनी पीड़ा से शायद ये आभास हो रहा था कि अब वह अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकेगी।
उसने मुझसे आशा भरी आंखों से विनती के स्वर में कहा, सुनीता, तू मेरी सबसे अच्छी मित्र है। मुझे इस दुनिया में मात्र तुझ पर ही विश्वास है। प्लीज, मेरी बेटी शालिनी का ध्यान रखना। मैंने उसे पूर्ण दिलासा देते हुए कहा, नीरा, तू एकदम चिंता मत कर, मैं शालिनी को अपने साथ मुंबई में रखूंगी। मेरे रहते उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होगी। मैं उसकी शिक्षा, उसकी हर जरूरत का पूरा ध्यान रखूंगी। मेरी बात सुन कर नीरा आश्वस्त सी हो गई थी। मैंने उसके मुख पर एक अनूठा शांत भाव देखा था। बात करते हुए उसकी आंख लग गई। मैं उसके पास बैठी उसके और शालिनी के विषय में सोचती रही। नीरा की बेटी शालिनी उसकी बहुत सेवा कर रही थी। उसने हर सम्भव इलाज करवाया था।
जब डॉक्टर ने पहली बार ब्रेन ट्यूमर होने की बात कही थी, तभी डॉक्टर ने भी जवाब देते हुए कहा था, ब्रेन ट्यूमर बहुत बढ़ चुका है। अब इलाज से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
दुःख और पीड़ा ने जैसे उनके घर में अपना डेरा डाल दिया था। परंतु शालिनी ने आशा नहीं छोड़ी थी। शालिनी के मन में पूरी आशा थी कि उसकी प्यारी मां अवश्य ही ठीक हो जाएंगी। उसने डॉक्टर को कहा, प्लीज, आप इलाज जारी रखें। ऑपरेशन करें, जो सम्भव हो अवश्य करें। उसकी आशा को देख कर डॉक्टर ने भी प्रयास किया था। किसी दिन स्वास्थ्य अच्छा रहता तो आशा प्रबल हो उठती, पर किसी दिन बीमारी बढ़ जाती तो निराशा पांव पसार लेती। सिर दर्द की असह्य पीड़ा के बाद जब नीरा को उल्टियां होने लगतीं तब नीरा की कमजोरी और पीड़ा को देख कर शालिनी का दुख दुगना हो जाता। हर दिन कुछ नया दिन होता। नीरा तकलीफ में भी मुस्कराती रहती। वह किसी को दुःख नहीं देना चाहती थी। पर शालिनी की चिंता उसे खाये जा रही थी। शालिनी पल-पल अपनी मां को मृत्यु से लड़ते देख रही थी। इन दुख के क्षणों में भी उसके दादा-दादी आदि ने कोई मदद नहीं की थी। परेशानियों के कारण युवती शालिनी अचानक बहुत बड़ी हो गई थी।
शालिनी भी अपनी मां की हर इच्छा पूरी करना चाहती थी। वह उसे कार में बैठा कर घुमाने ले जाती। दोनों मां बेटियां कभी ताश खेलतीं। कभी गाने सुनतीं। एक दिन तो नीरा बोली थी, शालिनी मुझे गोलगप्पे खाने हैं। शालिनी को लगा था, गोलगप्पे तो मां को नुकसान करेंगे पर उसे डॉक्टर की यह बात याद आ गई थी, अब जो वे चाहतीं हैं करने दो। शालिनी ने मां की व्हील चेयर कार में रखी और उन्हे गोलगप्पे खिलाने ले गई। नीरा मात्र तीन गोलगप्पे खाकर ही तृप्त हो गई थी। उस दिन शालिनी उसे मॉल भी ले गयी। नीरा बहुत खुश थी। बीमारी को भुला कर कुछ पल उसने आनंद से बिताए। कुछ पुरानी यादें ताजा कीं। नीरा के तलाक के बाद शालिनी और नीरा एक दूसरे की पूरक सी हो गईं थीं। जब नीरा दुःखी होती थी, तो शालिनी ही उसका सहारा होती थी। जब शालिनी कभी परेशान होती तो नीरा इसी मॉल में उसे घुमाने लेकर आती थी। नीरा अपने पति द्वारा दी हुई यातनाओं की याद में डूबी रहती तो शालिनी उसको जीने की नई राह दिखाती।
मैं नीरा के पास बैठी शालिनी और नीरा की जिंदगी के पन्ने पलट रही थी, तभी शालिनी आई और बोली, आंटी, प्लीज आप खाना खा लीजिये। श्यामा ने खाना टेबिल पर लगा दिया है। मैं उठी। मैंने हाथ मुंह धोये। फिर मैंने और शालिनी ने खाना खाया। मैंने कहा , शालिनी, नीरा को भी खाना खिला दो। शालिनी ने कहा, आंटी, उन्हें तो केवल लिक्विड डाइट ही देनी है। जैसे ही मां जागेंगी, मैं उन्हें दे दूंगी। दोनों कुछ देर आराम करने लगीं। अचानक नीरा के खांसने की आवाज आई। वे दोनों उसके पास गईं। नीरा बुरी तरह छटपटा रही थी। शालिनी ने डॉक्टर को फोन किया। पर कुछ ही पल में उसकी छटपटाहट शांत हो गई। डॉक्टर आए और बोले, सॉरी, शी इज नो मोर। एक गहन शांति वहां पसर गई थी। बस आंखों से आंसू बह रहे थे। इस अंत का सबको पता था।
शालिनी के आंसू रुक ही नहीं रहे थे। मैं शालिनी को सांत्वना देने का प्रयास करती रही। सभी को नीरा के निधन की सूचना दी गई। धीरे-धीरे लोग एकत्रित हो गए। नीरा के सास-ससुर और उनका पूरा परिवार वहां पहुंच गया था। हांलाकि तलाक के बाद उनसे कोई सबंध नहीं था, फिर भी मृत्यु की घड़ी में वे आ गए थे। नीरा के बैंक और आस पास के लोग भी एकत्रित हो गए थे। अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हो गई थीं। स्वयं शालिनी ने अपनी मृत मां को तैयार किया। उसे बिंदी, लिप्स्टिक, नेलपेंट आदि लगाया। नीरा को नेलपेंट का बहुत शौक था। शालिनी की सहनशक्ति और धैर्य देख कर मैं दंग रह गई थी।
पंडित जी ने कहा, अंतिम संस्कार के लिए कौन काम करेगा, वह आगे आ जाए। शालिनी जब तक आगे आती, उसकी दादी बोली, शालिनी का चचेरा भाई प्रांशु ही नीरा का अंतिम संस्कार करेगा। शालिनी तड़प उठी थी। वह जो अपनी मां के हर एक सुख-दुःख में साथ थी, उसी से अंतिम संस्कार का अधिकार क्यों छीना जा रहा है॥ शालिनी ने बड़े दृढ़ता से कहा, दादी, मां का अंतिम संस्कार मैं ही करूंगी।
दादी ने कहा, अरी शालिनी, ये अधिकार तो पुत्र का ही होता है। बेटा बन के पैदा हुई होती, तब तो तू अंतिम संस्कार कर पाती। पर तेरी मां ने तो बेटी ही जनी थी न। दादी की बात सुनकर शालिनी का मुख क्रोध से लाल हो उठा था।
शालिनी में उस दिन न जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई थी, वह दादी का विरोध करती हुई बोली, दादी, जिन्होंने मां के लिए कभी कुछ नहीं किया, वे क्यों उनका अंतिम संस्कार करेंगे। रही बात मेरे लड़की होने की, तो इससे क्या फर्क पड़ता है। आजकल लड़की-लड़का सब समान हैं। आज बहुत सी लड़कियां अपने माता-पिता को मुखाग्नि देती हैं। आज की लड़की कमजोर नहीं है।
शालिनी की दादी फुसफुसाते हुए बोलीं, आजकल की लड़कियों के तो कुछ ज्यादा ही पर निकल रहे हैं। अपने को लड़कों से कम मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं। मैंने देखा, शालिनी के उत्तर पर वहां एकत्रित लोगों में कानाफूसी शुरू हो गयी थी। उसके परिवार के लोग दबी आवाज में उसका विरोध कर रहे थे।
उसी समय पंडित जी ने कहा, शास्त्रों के अनुसार तो अन्त्येष्टि संस्कार सोलह संस्कारों में से एक है। हिंदू धर्म के अनुसार पुत्र ही माता-पिता को मुखाग्नि दे सकता है। वही तर्पण कर सकता है। पुत्र के द्वारा मुखाग्नि देने पर ही मृतात्मा को मुक्ति मिलती है। बेटियों के लिए तो यह निषिद्ध है। उन्होंने शालिनी की इच्छा पर प्रतिबंध लगा दिया था। शालिनी बोली, पंडित जी, जो अधिकार पुत्र का है वह पुत्री का क्यों नहीं?
तभी उसके चाचा श्याम सामने आये और कहने लगे, बेटा, जिद मत करो, यह काम लड़कों का ही है। तुम अंतिम समय का वह दृश्य नहीं देख पाओगी। शालिनी ने दृढ़ स्वर में कहा , दादी तो पुराने जमाने की हैं चाचा, पर आप भी ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं? शालिनी की बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा, आप तो प्रोफेसर हैं। आप तो कॉलेज में लड़के-लड़कियों को पढ़ाते हैं। आप दोनों की योग्यताओं से भली भांति परिचित हैं। आज लड़कियां बहुत आगे बढ़ चुकी हैं। फिर आप ऐसी दकियानूसी, अव्यवहारिक बातें क्यों कर रहे हैं? पुरुष प्रधान सोच आखिर कब तक लड़कियों को कमजोर समझती रहेगी? जब यह कार्य बेटों के लिए पुण्य का काम है, तो बेटियों के लिए क्यों नहीं? बेटी यदि मुखाग्नि देगी तब भी मृतक को मुक्ति ही मिलेगी। इसके लिए प्यार, आदर तथा अच्छी भावनाओं का होना आवश्यक है।
श्याम बोले, इतनी बहस की क्या आवश्यकता है? प्रांशु है तो सही, वही कर देगा। यह सुन कर मैं अपना क्रोध न रोक सकी। मैंने उन्हें कहा, आप लोगों ने जीते जी तो नीरा की कोई सेवा नहीं की फिर अंत में यह जग दिखावा क्यों? नीरा शालिनी की मां हैं, उसे ही नीरा का अंतिम संस्कार करने का पूरा अधिकार है। शालिनी को उसके अधिकार से कोई वंचित नहीं कर सकता। रही बात अंतिम समय के दृश्य को देखने की, तो वह आप लोगों के द्वारा दिखाये गए इससे भी भयानक दृश्य अपने बचपन से देखती आ रही है। आप उसकी चिंता न करें।
मैंने शालिनी की दादी से विनम्रता से कहा, माताजी, इक्कीसवीं सदी में भी आप किन रूढ़ियों को दिल में पाल कर बैठी हैं? आजकल एकल परिवार हैं। बच्चे भी एक या दो होते हैं। कुछ परिवारों में इकलौती लड़की ही होती है, कुछ में केवल लड़कियां ही होती हैं, तो क्या उन्हें अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार के लिए दूसरों का मुंह देखना चाहिए? संतान होने के कारण उन्हें भी पुत्र के सामान सब अधिकार मिलने चाहिए।
वहां उपस्थित लोग मेरी बातों से सहमत होने लगे थे। मैंने पुन: कहा, जिस परिवार से नीरा का कुछ लेना देना ही नहीं है, वह अब क्यों अपनी मनमानी करना चाहता है? शालिनी बचपन से अपनी मां की सुख-दुःख की असली साक्षी है, वही उसकी बेटी है, वही उसकी दोस्त है, वही तो उसकी सब कुछ है। फिर ये लोग व्यर्थ क्यों उससे उसका अधिकार छीनना चाहते हैं। आज की नारी हर क्षेत्र में नए आयाम रच रही है। उसे कमजोर समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। वहां उपस्थित शालिनी के साथियों और पड़ोसियों को मेरी बात ठीक लगी। सभी लोगों ने शालिनी की दृढ़ इच्छा शक्ति को समझा और उसे खुल कर समर्थन देते हुए कहा, सुनीता जी का कहना एकदम ठीक है। अंतिम संस्कार तो शालिनी को ही करना चाहिए।
शालिनी की दादी पहले तो अपना सा मुंह लिए चुप हो गईं, फिर शालिनी से बोलीं, तुम्हारी बहुत इच्छा है तो चलो, तुम्हीं अपनी मां का अंतिम संस्कार करो। शालिनी ने दुपट्टा सिर पर रखा और मां के मृत शरीर के पास बैठ गई। पंडित जी ने उससे कहा, चलो बेटी, विधि आरंभ करते हैं।
जैसे जैसे पंडित जी पिंड आदि बनवाते गए, वह बनाती गई। मेरी प्रिय सहेली नीरा की अंतिम यात्रा की तैयारी निर्विवाद होना शुरू हो गई थी। नीरा की अंतिम यात्रा में शालिनी ने अपनी मां को कंधा दिया, फिर अग्नि दी। उसने स्वयं को संयत रखते हुए सभी विधि विधानों एवं औपचारिकताओं को बड़े आदर से सम्पन्न किया। अपनी मां को मुखाग्नि देकर उसके मुख पर अभूतपूर्व संतोष था। उसे लग रहा था, जैसे उसने मां की अंतिम इच्छा की पूर्ति कर दी हो। केवल मुझे ही नहीं बल्कि वहां उपस्थित सभी लोगों को ऐसी अनुभूति हो रही थी, मानो आपनी प्यारी बिटिया शालिनी के हाथों अपना अंतिम संस्कार करवा कर नीरा की आत्मा को भी परम शांति मिल गयी हो। सभी लोगों ने शालिनी के धैर्य, साहस और हिम्मत की बहुत सराहना की।