गोरखपुर की शान और पहचान गीता प्रेस

पूर्वांचल में यदि गोरखपुर की पहचान पूछी जाए तो इसके दो ही  प्रमुख उत्तर होंगे। पहला तो गोरखनाथ पीठ जिसे यहां के लोग गोरक्षपीठ के नाम से जानते हैं। ये पूर्वांचल के करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र है। दूसरा, गीता प्रेस जिसे आज भी गोरखपुर ही नहीं बल्कि पूर्वांचल का हर हिंदू बेहद सम्मान के साथ देखता है। गीता प्रेस की महत्ता गोरखपुर में इतनी है कि एक पूरा इलाका, एक पूरी सड़क और शहर का एक हिस्सा गीता प्रेस के नाम से ही जाना और पहचाना जाता है। हिन्दू समुदाय में आज भी घर-घर में पाई जाने वाली श्रीमद्भागवत गीता की ९० प्रतिशत प्रतियां इसी प्रेस में छपी हैं। इसके अलावा इस प्रकाशन से करोड़ों की संख्या में ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन होता है जो हिन्दू समाज, इसके वैभवशाली इतिहास, हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था, हिंदू धर्म के वैज्ञानिक आधार, संस्कार, व्यवस्थाएं, महापुरुष, भगवान और उनके अवतार से जुड़ी कहानियां, प्रेरणादायक प्रसंगों से पटी हैं। गीता प्रेस ही वह भूमि है जहां से हिंदू समाज में बेहद लोकप्रिय पत्रिका कल्याण (हिंदी में) तथा कल्याण कल्पतरु (अंग्रेजी में) आज भी प्रकाशित होती हैं। करीब ९५ वर्ष के गौरवशाली अतीत को समेटे हुए यह प्रकाशन केंद्र हाल में अचानक से चर्चा के केंद्र में आया। इसकी वजह थी इस प्रकाशन में प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच का विवाद जिसके बाद गीता प्रेस के इतिहास में पहली बार हड़ताल की स्थिति पैदा हुई। हालांकि श्रम विभाग के हस्तक्षेप और प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच कई स्तर पर हुई वार्ताओं के बाद इसे सुलझा लिया गया। अब गीता प्रेस में पुन: प्रकाशन शुरू हो चुका है।

१९२० के दशक में शुरूआत

गीता प्रेस की शुरूआत संगठित रूप से १९२० के दशक में हुई। गोरखपुर में हनुमान प्रसाद पोद्दार इस अभिनव प्रकाशन के संस्थापक के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। हालांकि गीता प्रेस की स्थापना और संचालन में हनुमान प्रसाद पोद्दार के अभिन्न मित्र जगदयाल गोयनका के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। मूलत: मारवाड़ी व्यापारी होने के बावजूद इन दोनों के सफल प्रयास, सोच और परिश्रम के फलस्वरूप ही गीता प्रेस तथा कल्याण पत्रिका की शुरूआत हुई है। २०१४ के वर्षांत तक गीता प्रेस ने श्रीमद्भागवत गीता की कुल सात करोड़ से ज्यादा प्रतियां प्रकाशित की हैं और बेची हैं। ये किसी विश्व कीर्तिमान से कम नहीं है। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस की भी सात करोड़ से ज्यादा प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। पुराण और उपनिषदों को जोड़ा जाए तो दो करोड़ की संख्या और बढ़ जाती है। इस तरह करीब १६ करोड़ से ज्यादा धर्म ग्रंथों का प्रकाशन यह पब्लिकेशन कर चुका है। ये आंकड़ें कल्पना से परे और आश्चर्यचकित करने वाले हैं। कल्याण पत्रिका का प्रत्येक अंक करीब दो लाख और कल्याण कल्पतरू का प्रत्येक अंक एक लाख की संख्या में प्रकाशित किया जाता है। ये भी एक मिसाल है। सिर्फ भारत भूमि ही नहीं बल्कि विदेशों में और देश के अधिकांश साहित्य बाजारों तथा रेलवे स्थानकों पर गीता प्रेस के स्टाल आपको जरूर नजर आएंगे।

न्यूनतम दर पर बिक्री

गीता प्रेस की सबसे बड़ी खूबी यह रही है कि प्रारंभ से लेकर आज तक यहां से प्रकाशित प्रत्येक पुस्तक, ग्रंथ एवं पत्रिका को न्यूनतम दर पर पाठकों तक उपलब्ध कराया जाता है। यही वजह है कि घर-घर में इसकी उपलब्धता है। यहां तक विदेशों में रहने वाले हिंदू समाज के लोगों के यहां भी गीता प्रेस की पुस्तकें पूरे सम्मान के साथ मिल जाती हैं। सामान्य रूप से देखें जो जहां हिन्दू परिवार है वहां गीता प्रेस जरूर है। चाहे वह श्रीमद्भागवत गीता के रूप में हो, रामचरितमानस के रूप में या फिर कल्याण पत्रिका के रूप में।

भारत हो या विदेश, कहीं भी इस प्रकाशन ने मुनाफा कमाने के उद्देश्य से कारोबार नहीं किया। संस्थापकों का उद्देश्य था हिंदू समाज को एकजुट रखने और सनातन हिंदू धर्म के मूल्यों को साहित्य के माध्यम से पुनर्स्थापित किया जाए, इसके लिए ही उन्होंने कम से कम मूल्य में साहित्य प्रकाशन प्रारंभ किया जो आज भी जारी है।

जनपद को दी नई पहचान

गोरखपुर जिले की ज्यादा पहचान गोरखनाथ मंदिर है जिसे भारत में नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र माना जाता है। नाथ सम्प्रदाय हिंदू समाज की एकता की बात करते हुए वर्ण व्यवस्था के खिलाफ है। जबकि गीता प्रेस, जिसने गोरखपुर को एक नई पहचान दी, वह मूलत: सनातन हिंदू वर्ण व्यवस्था का पक्षधर है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों विपरीत विचारधाराओं के बावजूद दोनों पक्षों ने हिंदू समाज को जोड़ने और एकजुट करने का ही काम किया है। गीता प्रेस के साहित्यों में, विशेष तौर से कल्याण पत्रिका की बेबाकी के अनेकों उदाहरण हैं। विभिन्न मुद्दों पर कल्याण पत्रिका ने देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों का खुला विरोध किया और किसी न किसी रूप में हिंदू समाज से एकजुटता की अपील की। गीता प्रेस हमेशा से इस भावना का पोषक रहा है कि यदि हम हिंदू हैं तो हमें एकजुट रहना चाहिए। मुद्दों पर अलग-अलग राय रखने के बजाय मुस्लिम समुदाय की तरह एकजुटता का परिचय देना चाहिए। इसके अलावा हिंदू सनातन मूल्यों को अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए।

राष्ट्रीय मुद्दों पर दिखाई बेबाकी

आजादी के ठीक पहले जब देश में स्वतंत्रता की बयार महसूस की जाने लगी थी और अंग्रेज देश को बांटने के लिए साजिश शुरू कर चुके थे तब गीता प्रेस ने ही सबसे पहले मोहम्मद अली जिन्ना की खुली खिलाफत की थी। गीता प्रेस ने कल्याण के एक अंक में ’जिन्ना चाहे दे दे जान, नहीं मिलेगा पाकिस्तान’ जैसे नारे से इस खिलाफत की शुरूआत की। १९४० के दशक में कल्याण ने महात्मा गांधी की भी खुले शब्दों में आलोचना की। जबकि गीता प्रेस संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार और महात्मा गांधी में कभी प्रगाढ़ संबंध थे लेकिन बाद में पोद्दार जी ने नीतिगत विभेद के कारण महात्मा गांधी से किनारा कर लिया। मदन मोहन मालवीय के निधन के बाद कल्याण ने मालवीय अंक प्रकाशित किया जिसकी विषय वस्तु को उत्तेजक करार देते हुए कई राज्यों में इसके वितरण पर रोक लगा दी गई। हिंदू कोड बिल मुद्दे पर कल्याण पत्रिका ने जवाहर लाल नेहरू की आलोचना की। पत्रिका ने नेहरू को अधर्मी तक लिख डाला। इन मुद्दों के अलावा गीता प्रेस ने बाद में हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, गोरक्षा आंदोलन, घर वापसी, आदि विषयों पर बेबाकी का परिचय दिया और हिंदू जनमानस को मुद्दों पर एकजुट करने का प्रयास किया है।

राम जन्मभूमि और जन जागरण

कल्याण पत्रिका के नियमित पाठकों को आज भी याद है कि जब राष्ट्रीय स्तर पर रामजन्म भूमि का मुद्दा छाया हुआ था तब कल्याण पत्रिका ने ही देश के तमाम हिंदुओं को इस मुद्दे पर जन जागरण से जोड़ा। यहां तक की कारसेवा के संबंध में ही उसके लेखों ने हिंदू युवाओं को झकझोरा और वह बिना कुछ सोचे घरों से निकल पड़े। बाबरी ढ़ांचे के विध्वंस तक कल्याण ने अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। सेतुसमुद्रम परियोजना भी एक उल्लेखनीय मुद्दा है जिस पर कल्याण पत्रिका ने खूब लेखनी चलाई। सेतुसमुद्रम के वैज्ञानिक आधारों की चर्चा के साथ पत्रिका ने इस ऐतिहासिक एवं दुर्लभ धरोहर को बचाने के लिए अनेक लेखों का प्रकाशन किया। इस कड़ी में २०१४ का लोकसभा चुनाव भी उल्लेखनीय है। चुनाव के एक वर्ष पहले से ही कल्याण पत्रिका ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उन मुद्दों पर लेख प्रकाशित किए जो हिंदू समाज के विरोध में थे। तत्कालीन सरकार की नीतियों की खुले तौर पर आलोचना की और नतीजा यह हुआ कि केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को अविस्मरणीय पराजय का सामना करना पड़ा और भाजपा के अगुवाई में नरेन्द्र मोदी भारत के नए प्रधानमंत्री बने।

रामनाम बैंक की स्थापना

गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार कहा करते थे कि यदि आप अनायास राम-नाम का जप करते हैं तो उसका फल भी मिलेगा। कल्याण पत्रिका ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए राम-नाम जप बैंक प्रारंभ किया। यह एक अभिनव प्रयास था। कल्याण पत्रिका में छपी अपील पर देश के कोने-कोने से लोग कापियों में राम-नाम लिखकर भेजते और इन कापियों को राम नाम जप बैंक में सुरक्षित रखा जाता। इसके साथ ही पत्रिका उन पाठकों के पत्र भी प्रकाशित करता था जिसमें लोग अपने अनुभव साझा करते थे कि उन्हें किस प्रकार से राम नाम लिखने से लाभ पहुंचा। १९७० और ८० के दशक में राम नाम जप बैंक ने अभूतपूर्व रूप से अरबों की संख्या में राम नाम जमा करने में सफलता प्राप्त की। आज भी ये बैंक चलन में हैं। अब राम नाम लिखकर भेजने वालों की संख्या काफी कम है मगर बैंक में राम नाम की पूंजी का लगातार विस्तार हो रहा है। कल्याण ने बाद में रामायण परीक्षा भी प्रारंभ की जिसका उद्देश्य था देश की भावी पीढ़ी में रामायण कथा के प्रति लगाव उत्पन्न करना। इस परीक्षा में रामायण से जुड़े सवाल पूछे जाते जिनका विद्यार्थियों को जवाब देना होता था और विजेताओं को गीता प्रेस से पुरस्कृत किया जाता।

जीवंत इतिहास है यह प्रेस

देखा जाए तो पूर्वांचल में गीता प्रेस प्रकाशन क्षेत्र का जीवंत इतिहास है जिसको आज भी देखा और महसूस किया जा सकता है। कल्याण पत्रिका के संपादक राधेश्याम खेमका कहते हैं कि हमारे सभी प्रकाशन मानव कल्याण और जीवन के लक्ष्यों के लिए मार्गदर्शन जैसे हैं। मानव समाज की आध्यात्मिक उन्नति ही सभी साहित्य का अंतिम उद्देश्य है। उनकी बात हर मायने में सही है। गीता प्रेस ने हिंदू समाज के लिए जितना कुछ लिखा और छापा है वह अतुलनीय और अद्भुत है।

गीता प्रेस तमाम उतार चढ़ाव झेलने के बाद एक बार फिर पाठकों की सेवा में जुट चुका है। हालिया हड़ताल के बाद प्रेस में काम पुन: सुचारू रूप से चल रहा है और गोरखपुर की जनता को विश्वास है कि यह कभी बंद नहीं होगा।

 

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