जाति की ही पहचान का अत्यंत आग्रह और अत्यंत निषेध, दोनों के पीछे प्रयोजन एक ही होता है।अन्य पहचानों को छिपाना। प्रत्येक संस्कारी और परंपरा से जुड़ा हुआ व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक व्यक्ति की विशेषकर मनुष्य रूप में जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पहचान के अनेक स्तर हैं और अनेक आयाम हैं तथा उन पहचानों यानी उपाधियों के अनेक नाम भी हैं।
व्यक्ति ब्रह्मांडीय इकाई है। वह मात्र सामाजिक इकाई नहीं है।समाज उसकी एक सामाजिक पहचान है। मूल रूप में आत्म सत्ता विराट है। परंतु परिवार के सदस्य के रूप में या किसी भी सामाजिक संस्था के रूप में वह आधारभूत सामाजिक इकाई भी हैं ।पर मात्र वही नहीं है।उससे परे भी वह है।तभी तो कहा है कि “आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत।”
इसी प्रकार राज्य के नागरिक के रूप में वह राजनीतिक इकाई भी है । जाति को हिंदुओं की एकमात्र पहचान मानने का आग्रह करने वाले और उसका निषेध करने वाले दोनों ही का प्रयोजन एक है । वह कुछ छुपा रहे हैं । क्या छुपा रहे हैं ?यह देखने से जाना जा सकता है। अलग अलग व्यक्ति अलग अलग चीज छिपा रहे हैं। जो व्यक्ति एकमात्र जाति का ही आग्रह रखें ,जाति के सिवाय अन्य किसी पहचान की चर्चा ही नहीं करे,
उसे महत्व नहीं दे, वह भी कुछ छुपा रहा है । और जो जाति का निषेध कर रहा है ,वह बाकी कुछ छिपा रहा है।।इसे थोड़ा उदाहरण से स्पष्ट करेंगे।
प्रत्यक्ष देखने में आता है कि एक से एक तपस्वी सदाचारी ज्ञानी जिन्हें देखकर ही प्रणाम करने का मन हो, ऐसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों की भी अच्छी संख्या है। और मांस मदिरा में ही मस्त रहने वाले, व्यभिचार परायण,अनीति परायण, तरह-तरह की पाप की कमाई करने वाले ,झूठ बोलने वाले ,चुगली करने वाले, कलह करने वाले ,झूठी गवाही देने वाले– ऐसे ब्राह्मण भी भरे पड़े हैं।
इसी प्रकार एक से एक तेजस्वी शूरवीर क्षत्रिय हैं और एक से एक कायर, दोमुंहे भी हैं। वैश्यों में तो अब तक मेरे देखने में यह नहीं आया कि ऐसा कोई भी वैश्य होता है जिसमें वैश्य कीवृत्ति नहीं हो, कुछ कमाने और बचत करने की प्रवृति नहीं हो। परंतु उनमें भी बहुत से स्तर हैं।
इसी तरह शिल्पी जातियों में तथा अन्य समुदायों में भी भांति भांति के लोग होते हैं । सामाजिक पहचान में से एक पहचान जाति है। वह एकमात्र पहचान नहीं है।
हमारे शास्त्रों में जाति यानी कुलसमूह को एकमात्र पहचान नहीं माना गया है । कुल समूह और गोत्र एक पहचान है। वर्ण दूसरी पहचान है।
आश्रम तीसरी। सम्प्रदाय उपासना परक सामाजिक पहचान है। आश्रम आयुगत सामाजिक दशा है।। श्रेणी, निगम, संघ और परिषदें व्यावसायिक पहचान हैं। व्यवसाय स्वयं में एक पहचान है। गुरुकुल या विद्या वंश एक पहचान है अलग अलग। कार्यक्षेत्र में दक्षता के स्तर अलग पहचान हैं। इन पहचानों को छिपाने के लिए जाति को एकमात्र पहचान बताया जाता है और इन सब को छिपाने के लिए
भी केवल जाति संस्था पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
वित्तीय दशा एक अलग ही पहचान है। बहुत गरीब ब्राह्मण और अत्यंत संपन्न ब्राम्हण में क्या संबंध होता है, हम सभी जानते हैं। संपन्न बहुत गरीब को पूछता भी नहीं है या किसी मतलब विशेष से कभी पूछ लेते हैं।बस। इन दिनों जाति के नेता बने हुए लोगों का अपनी जाति के गरीबों से प्रायः कोई संबंध नहीं देखा जाता सिवाय वोट के। फिर व्यक्ति रूप में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी विशेषता और अद्वितीयता होती है ।
एक ही परिवार के हर व्यक्ति की अलग-अलग विशेषता होती है।
एक ही जाति और एक ही समाज के भी व्यक्तियों में अलग-अलग विशेषताएं होती हैं और वे विशेषताएं उस व्यक्ति की पहचान होती हैं।
इन सब पहचानो को छुपाकर केवल जाति पर बल देना या जाति की ही निंदा करते बैठना ,उसका निषेध करना, दोनों ही बौद्धिक दरिद्रता के,अत्यंत बौद्धिक विपन्नता और दीनता के लक्षण हैं।
– रामेश्वर मिश्र पंकज