जैव विकास में दशावतार की अवधारणा और डार्विन

एनसीइआरटी अर्थात राष्ट्रिय शैक्षिक अनुसंधान और प्रषिक्षण परिषद द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम से नवीं एवं दसवीं कक्षाओं की विज्ञान पुस्तकों से चार्ल्स डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत को हटा दिए जाने पर विवाद गहरा रहा है। देश के लगभग 1800 वैज्ञानिक और शिक्षकों ने एनसीइआरटी की इस पहल की आलोचना करते हुए इसे शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा उपहास बताया है। दरअसल भारत के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जब भी किसी पाश्चात्य सिद्धांत या इतिहास के भ्रामक प्रसंगों को हटाए जाने की बात छिड़ती है तो उसके पक्ष में उठ खड़े होते हैं।

जबकि चार्ल्स डार्विन ने जब जीवों के विकासवाद का अध्ययन करने के बाद 1859 में ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज‘ अर्थात ‘जीवोत्पत्ति का सिद्धांत‘ दिया तब इसका ईसाई धर्मावलंबियों और अनेक ईसाई वैज्ञानिकों ने जबरदस्त विरोध किया था। क्योंकि इसमें मनुष्य का अवतरण बदंर से बताया गया था। अलबत्ता जब यही अवधारणा भारतीय ऋषियों ने भगवान विष्णु के दशावतारों के रूप में दी तो इसका वर्णन प्राचीन संस्कृत के प्रमुख ग्रंथों में समाविष्ट किया गया और जैव विकास एवं आनुवंशिकता के इस विज्ञान को मंदिरों की दीवारों पर उकेरा गया। जबकि इसमें सिंह से मनुष्य के संक्रमण को प्रतिपादित किया है।

मानव प्रजाति के विकास क्रम में चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत के अनुसार माना जाता है कि मानव बंदर की एक प्रजाति का विकसित रूप है। तब नरसिंह अवतार की अवधारणा के अनुरूप यह भी कहा जाता है कि मनुष्य सिंहनी का विकसित रूप है ? डार्विन के सिद्धांत से कहीं ज्यादा मनुष्य के जैविक विकास की यह अवधारणा ज्यादा तार्किक है। क्योंकि दषावतारों की भौतिकवादी अवधारणा के अंतर्गत नरसिंह की अवधारणा जीव-जगत के विकास क्रम की श्रृंखला से जुड़ी है। इस धारणा के अनुसार पहले मत्स्यातवार हुआ यानी जल में जीवन की उत्पत्ति हुई। विज्ञान भी इस तथ्य से सहमत है कि जीव-जगत में पहला जीवन रूप पानी में विकसित हुआ। दूसरा अवतार कच्छप हुआ, जो जल और भूमि दोनों स्थलों पर रहने में समर्थ था। तीसरा वराह हुआ, जो पानी के भीतर से जीव के धरती की ओर बढ़ने का संकेत है, अर्थात पृथ्वी को जल से मुक्त करने का प्रतीक है। चैथा नरसिंह अवतार है, जो इस तथ्य का प्रतीक है कि जानवर से मनुश्य विकसित हो रहा है। आधा मनुष्य, आधा सिंह शरीर संक्रमण का प्रतिबिंब है।

इसके बाद पांचवां अवतार वामन के रूप में है, जो मानव का लघु रूप है। सृष्टि के आरंभ में मनुष्य बौने रूप में ही अस्तित्व में आया था। 45 लाख साल पुराने स्त्री और पुरुष के जो जीवाश्म मिले हैं, उनकी ऊंचाई दो से ढाई फीट की है। वामन के बाद परशुराम हैं, जो मनुष्य का संपूर्ण विकसित रूप है। इसी समय से मानव जीवन को व्यवस्थित रूप में बसाने के लिए वनों को काटकर घर-निर्माण की तकनीक को अभिव्यक्त करता है। परशुराम के हाथ में फरसा इसी परिवर्तन का प्रतीक है। सातवें अवतार में राम का धनुष बाण लिए प्रकटीकरण इस बात का संकेत है कि मनुष्य मानव बस्तियों की दूर रहकर सुरक्षा करने में सक्षम व दक्ष हो चुका था। आठवें अवतार बलराम हैं, जो कंधे पर हल लिए हुए है। यह स्थिति मानव सभ्यता के बीच कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विकास को इंगित करता है। कृष्ण मानव सभ्यता के ऐसे प्रतिनिधि है, जो नूतन सोच का दर्शन देते है। दसवां, कल्कि ऐसा काल्पनिक अवतार है, जो भविष्य में होना है। इसे हम कलियुग अर्थात कलपुर्जों के युग से जोड़कर देख सकते है।

ब्रिटेन के जेबीएस हल्डेन नामक शरीर, आनुवंशिकी और विकासवादी जीव विज्ञानी हुए हैं। गणित और सांख्यिकी के भी ये विद्धान थे। हल्डेन नास्तिक थे। किंतु मानवतावादी थे। इन्होंने प्रकृति विज्ञान पर भी काम किया है। हल्डेन को राजनीतिक असहमतियों के चलते ब्रिटेन छोड़कर भारत आ गए। भारत में वे पहले सांख्यिकीय आयोग के सदस्य बने और प्राध्यापक भी रहे। हल्डेन ने जब भारत के मंदिरों में जैव व मानव विकास से जुड़ी मूर्तियों का अध्ययन किया तब उन्होंने पहली बार व्यवस्थित क्रम में अवतारों की बीती सदी के चैथे दषक में व्यख्या की। उन्होंने पहले चार अवतार मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह को सतयुग से, इसके बाद के तीन वामन, परशुराम और राम को त्रेता से और आगामी दो बलराम और कृष्ण को द्वापर युग से जोड़कर कालक्रम निर्धारित किया। हल्डेन ने इस क्रम में जैविक विकास के तथ्य पाए और अपनी पुस्तक ‘द काॅजेज ऑफ़ इव्यूलेषन‘ में इन्हें रेखांकित किया।

उन्होंने स्पष्ट किया कि विज्ञान जीव की उत्पत्ति समुद्र में मानता है। इस नाते इस तथ्य की अभिव्यक्ति मत्स्यावतार में है। कूर्म यानी कछुआ जल व जमीन दोनों पर रहने में समर्थ है, इसलिए यह उभयचर कूर्मावतार के रूप में सटीक मिथक हैं। अंडे देने वाले सरीसृपों से ही स्तनधारी प्राणियों की उत्पत्ति मानी जाती है। इस नाते इस कड़ी में वराह अवतार की सार्थकता है। नरसिंह ऐसा विचित्र अवतार है, जो आधा वन्य प्राणी और आधा मनुष्य है। इस विलक्षण अवतार की परिकल्पना से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का विकास पशुओं से हुआ है। यह लगभग वही अवधारणा है, जो चाल्र्स डार्विन ने प्रतिपादित की है। हल्डेन ने मानवीय अवतारों में वामन को सृष्टि विकास के रूप में लघु मानव (हाॅबिट) माना है। परशुधारी परशुराम को वे पूर्ण आदिम पुरुष मानते हैं। राम सामंती मूल्यों को सैद्धांतिकता देने और सामंतों के लिए भी एक आचार संहिता की मर्यादा से अवध करते हैं। हल्डेन बलराम को महत्व नहीं देते, किंतु कृष्ण को एक बौद्धिक पुरुष की परिणति के रूप में देखते हैं। सृष्टिवाद जुड़ी इतनी सटीक व्यख्या करने के बाबजूद हल्डेन की इस अवधारणा को भारतीय विकासवादियों व जीव विज्ञानियों ने कोई महत्व नहीं दिया। क्योंकि उनकी आंखों पर पाश्चात्य-वामपंथी वैचारिकता का चष्मा चढ़ा था, दूसरे वे मैकाले की इस धारणा के अंध अनुयायी हो गए थे कि संस्कृत ग्रंथ तो केवल पूजा-पाठ की वस्तु और कपोल-कल्पित हैं।

डार्विन के विकासमत का विरोध आरंभ से ही हो रहा है। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने तो यह मत व्यक्त किया है कि जीव या मनुष्य पृथ्वी पर किसी दूसरे लोक या दूसरे ग्रह से आकर बसे। जैसे कि आजकल एलियन को सृष्टि का जनक बताया जा रहा है। 1982 में प्रसिद्ध अंतिरक्ष वैज्ञानिक फ्रायड हायल ने यह सिद्धांत प्रतिपादित करके दुनिया को आश्चर्य और संशय में डाल दिया कि किन्हीं अंतरिक्षवासियों ने सुदूर प्राचीन काल में पृथ्वी को जीवन पर स्थापित किया। डार्विन के बंदर से मनुश्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धांत को हायल ने बड़ी चुनौती दी हुई है। हायल ने राॅयल इंस्टीट्यूट लंदन में आयोजित हुई वैज्ञानिकों की गोष्टी में इस सिद्धांत का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा था कि ‘जीवन की रासायनिक संरचना इतनी जटिल है कि वह क्रमिक या आकास्मिक घटनाओं से उत्सर्जित नहीं हो सकती है। जैसा कि विकासवादी विश्वास करते है। जीव की उत्पत्ति ब्रह्मांड के ध्रुव सिद्धांतों के अनुसार हुई है। यह सिद्धांत भारतीय दर्शन के जीवोत्पत्ति के पांच तत्वों धरती, आकाश, अग्नि, वायु और जल के दर्शन के निकट है। इस विषय पर हायल की ‘एव्यूलेशन फ्रॉम स्पेस‘ पुस्तक भी है।

अवतारों के इस जैव-विकास के क्रम में जहां क्रमषः सृजनात्मकता है, वहीं जीव-विज्ञान संबंधी तार्किक सुसंगति भी है। हालांकि सिंह से मनुष्य के विकसित रूप को अवतारवादी अवधारणा के विरोधी यह तर्क देते हैं कि मनुष्य व चिंपैंजी के डीएनए में आनुवांषिक स्तर पर छियानवें प्रतिषत समानता मानी जाती है। लेकिन इसी प्रजाति के गोरिल्ला और वनमानुष (ओरांगऊंटान) से इस रिष्ते में बहुत बड़ा अंतर है। जीव विज्ञानी यह मानते हैं कि दस लाख साल पहले ही मनुष्य में चिंपैंजी से कुछ गुण विकसित हुए थे। इन गुणों में उम्र अधिक होना और बचपन की अवधि बड़ी हो जाना माने जाते हैं। पहले दोनों प्राणियों में इन गुणों में ज्यादा अंतर नहीं था। चिंपैंजी से मनुष्य जीवन की उत्पत्ति संबंधी अनुसंधान में सबसे बड़ी खलने वाली कमी यह है कि पूर्वज जीवों या आदिम अणुओं के जीवाष्म नहीं मिल पा रहे हैं।

जब महारसायन अर्थात डीएनए के आदिम जीवाष्म आधिकारिक रूप से मिले ही नहीं हैं तो डार्विन कैसे कह सकते हैं कि कथित बंदर से मनुष्य की उत्पत्ति हुई ? हालांकि डार्विन के विकासवाद को प्रमाणित करने वाले जैविक विश्व में प्रकृति चयन, अनुकूलन और प्रजाति सृजन के अनेक प्रमाण मिलते हैं, लेकिन बंदर से मनुष्य की उत्पत्ति सिद्ध करने के लिए इन प्रमाणों को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है ? शायद इसीलिए जैव रसायन शास्त्र मानव या जीव कोशिका की कई सजीव आण्विक संरचनाओं का ब्यौरा तो देता है, लेकिन यह रहस्योद्घाटन नहीं करता कि अंततः ये संरचनायें किस प्राकृतिक-प्रक्रिया से अस्तित्व में आईं। गोया, मनुष्य के जैविक विकास-क्रम में धरती पर मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई, यह अंतिम निर्णय होना अभी शेष है ? इस स्थिति में दशावतारों की क्रमिक भौतिकवादी अवधारणा ज्यादा पुष्ट और तर्कसंगत है।

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