दूसरी भूल

यतींद्र और शैलजा के विवाह की यह दसवीं वर्षगांठ थी। सुबह के आठ बज रहे थे। मौसम खुशगवार था। आसमान में घिरे हुए हल्के-हल्के बादल जैसे सूरज को इधर-उधर झांकने का अवसर ही नहीं देना चाहते थे, इसलिये बाहर लॉन में भी प्रकाश केवल देखने भर को था। सुहानी और ठंडी हवा धीरे-धीरे लेकिन लगातार चल रही थी। ऐसे में एक कप गर्म चाय और होती तो मौसम का मजा दोगुना हो जाता। कोई और दिन होता तो दो-तीन कप तो कब के हो चुके होते, मगर यतींद्र जानते थे कि दोपहर से पहले शैलजा के हाथ से उन्हें आज कुछ नहीं मिलने वाला।

अपने जीवन के इस महत्वपूर्ण दिन का पूर्वार्ध शैलजा उन भगवान श्री कृष्ण और राधा की पूजा-अर्चना के लिये सुरक्षित रखती थी, जिनके अलौकिक और अद्वितीय प्रेम की दूसरी मिसाल आज भी सारी दुनिया में और कहीं नहीं। आज दस वर्ष बाद भी शैलजा और यतींद्र के पारस्परिक प्रेम में कोई कमी नहीं आई। एक दूसरे के प्रति दोनों में वैसा ही आकर्षण वही लगाव पूरी तरह मौजूद है, जैसा कभी दस वर्ष पहले था। वे इसे राधा-कृष्ण की कृपा का ही सुफल मानते थे।

शैलजा के साथ यतींद्र के विवाह का माध्यम एक सड़क दुर्घटना बनी थी। उस दुर्घटना से यतींद्र का कोई सीधा सम्बंध नहीं था। उन्हें आज भी ठीक से याद है उस रोज वे सुबह नौ बजे के लगभग किसी जरूरी काम से अपने मित्र के घर जाने के लिये निकले थे। सुबह के समय सड़कों पर भारी और अनियंत्रित भीड़ के दबाव की वजह से आवागमन की कठिनाइयां अक्सर बहुत बढ़ जाती हैं। किसी तरह बचते-बचाते अभी वे मुश्किल से एक-डेढ़ किलोमीटर आगे आये होंगे कि सड़क के दूसरी ओर खून बिखरा हुआ देख कर उन्होंने अपने वाहन की गति कम कर ली। थोड़ा और दूर नजर गई तो देखा एक घायल व्यक्ति अर्धचेतन अवस्था में पड़ा हुआ था, जरूर कोई एक्सीडेंट हुआ होगा। सड़क पर पड़ा खून लगभग सूख चुका था, इसका मतलब उस व्यक्ति को चोट काफी समय पहले लगी होगी, पता नहीं अब तक उसमें सांसें बाकी बची भी हों या नहीं।

यतींद्र वहीं रूक गये। इस उम्मीद के साथ कि कोई एक आदमी और सहायता के लिये साथ आ जाये तो उस मरणासन्न व्यक्ति को तुरंत चिकित्सा उपलब्ध कराने का प्रयास करें लेकिन वे देख रहे थे कि जो भी उधर से गुजरता, एक क्षण के लिये अपने वाहन की गति कम करता, दुर्घटना स्थल पर एक नजर डालता और निर्विकार भाव से आगे बढ़ जाता। किसी की बात सुनने का समय किसी के पास नहीं था। कितना संवेदनाहीन हो गया है आज का आदमी? एक इन्सान जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है और लोग हैं कि ऐसी दुखद घटना को भी निर्ममता से किसी फिल्म या नाटक के दृश्य की तरह देख लेते हैं और देख कर चल देते हैं। इन्सानियत अब कहीं नहीं रही क्या? कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद यतींद्र को लगा कि अगर घायल की जान बचानी है तो उन्हें अकेले ही कुछ करना होगा, यहां साथ देने के लिये कोई आने वाला नहीं। उन्होंने अपना दोपहिया एक जगह खड़ा किया, दूर से आती टैक्सी रूकवाकर ड्राइवर की मदद से उसमें दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को डाला और स्थानीय लोगों से नजदीकी अस्पताल का पता पूछ कर आगे चल दिये।

कुछ आवश्यक कागजात पर यतींद्र के हस्ताक्षर लेकर  अस्पताल के इमर्जेन्सी स्टाफ ने अविलम्ब चिकित्सा प्रारम्भ कर दी। सूचना पा कर स्थानीय पुलिस के कर्मचारी भी वहीं आ पहुंचे। पूछताछ के बाद उन्होंने घायल के होश में आने तक यतींद्र को वहीं रुके रहने के निर्देश दिये। कैसी अजीब बात थी, जिसने हिम्मत करके एक भले नागरिक का कर्तव्य निभाया, पुलिस ने उसी को अस्पताल में नजर कैद रहने का हुक्म सुना दिया। तो क्या यतींद्र ने एक इंसान की जान बचाने का प्रयास करके कोई भूल कर दी? ऐसी एक भूल वे अपने विद्यार्थी जीवन में भी कर चुके थे और उनका तब का अनुभव बड़ा ही अमानवीय और दुखद रहा था। अस्पताल की बेंच पर बैठे-बैठे उनका ध्यान एक बार फिर उसी अतीत की ओर घूम गया।

यतींद्र तब अपने गृह नगर तो क्या, गृह राज्य से भी बाहर महाराष्ट्र में कहीं रह कर इन्जीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। कुछ दोस्तों ने साथ मिल कर एक मकान किराये पर ले रखा था। उस दिन घर पर बहुत देर हो गई इसलिये यतींद्र ने मकान मालिक का स्कूटर मांग लिया और तेजी से अपने कॉलेज की ओर चल दिये। रास्ते में एक टूटी और कीचड़ भरी सड़क पड़ती थी। सड़क के एक ओर का थोड़ा सा भाग ठीक-ठाक था जिसका उपयोग वाहनों पर चलने वाले लोग करते थे, पैदल या साइकिल सवारों को उसके कीचड़ भरे भाग से होकर गुजरना पड़ता था। यतींद्र ने देखा सामने से एक युवक साइकिल पर आ रहा था। पता नहीं मन में क्या आया कि सूखी सड़क उसके लिये छोड़ते हुए उन्होंने अपना स्कूटर कीचड़ वाली राह पर उतार दिया, लेकिन सामने से साइकिल वाला भी बिना कुछ देखे उसी टूटे रास्ते पर अचानक उनके सामने आ गया और दोनों टकरा गये। युवक की साइकिल एक ओर गिर पड़ी, शायद उसे चोट भी आई थी। यतींद्र चाहते तो युवक को कीचड़ में गिरा छोड़ कर चले जाते, मगर उनके मन ने गवाही नहीं दी। अपना स्कूटर वहीं छोड़ा, कॉलेज भी छोड़ा और उसे साथ लेकर वे अस्पताल पहुंच गये, नहीं जानते थे कि परदेसी होने के कारण वहां उनका कैसा उत्पीड़न होने वाला था। उनकी नेकनीयती पर ध्यान देने की तो किसी को जैसे फुर्सत ही नहीं थी।

चिकित्सक तक पहुंचते-पहुंचते उस लड़के के माता-पिता और परिजन भी पूरी भीड़ लगा कर वहीं एकत्र होने लगे। सब जान गये थे कि एक परदेसी चक्कर में फंस चुका है। देखते ही डॉक्टर ने ताबड़तोड़ दवाइयां लिख डालीं। हुक्म हुआ, तुरंत दवाएं लेकर आओ। यतींद्र दौड़े-दौड़े दवा की दुकान पर गये। दुकानदार ने पहले दवा के पर्चे की ओर, फिर व्यंग्य और उपेक्षा के भाव से यतींद्र की ओर देखा, यतींद्र इस नजर का अर्थ तब नहीं समझ पाये थे। दवाओं का बिल सामने आया तो होश उड़ गये। एक हजार नौ सौ रुपये, लेकिन इतने रुपये उनके पास कहां थे? फिर क्या करें? अचानक गले में पड़ी सोने की चेन का ध्यान आया, उन दिनों चेन की इतनी ही कीमत होती थी, उसी को दुकानदार के पास गिरवी रख कर किसी तरह दवाएं लेकर चिकित्सक के पास पहुंचे तो उसने नया फर्मान सुना दिया कि खून का इंतजाम करो। अब यतींद्र के होश उड़ने लगे थे। फिर चिकित्सक ने ही शरीफ बन कर एक ब्लड बैंक का रास्ता बताया जहां बदले में अपना खून देकर यतींद्र उस युवक के लिये खून का इंतजाम कर के लाये।

तब तक यतींद्र हलकान हो चुके थे। जो कुछ उनके पास था सब लुटा दिया, फिर भी जान छूटने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। एक अजीब सा आतंक उन्हें चारों ओर से घेरने लगा था। यहां उनका अपना तो कोई था नहीं। भीड़ में खून के बदले खून की आवाजें आने लगी थीं। कुछ लोग कह रहे थे हाथ पैर तोड़ कर ही छोड़ेंगे। जितने मुंह उतनी बातें, लेकिन उन सब में ऐसी कोई बात नहीं जो यतींद्र को तसल्ली दे। वह लड़का जिसकी साइकिल टकराई थी, अब आराम से बैठा था। आश्चर्य तो यह कि न तो यतींद्र की लाई दवाओं में से कोई दवा उस लड़के को दी गई और न ही वह खून चढ़ाया गया जिसे वे अपना खून देकर लाये थे। हर ओर से निराशा ही निराशा दिखाई दे रही थी तभी एक युवक जो प्रारम्भ से ही सारा नाटक देख रहा था, चुपके से उनकी ओर आया और उन्हें कुछ समझा कर उस लड़के के पास ले गया।

युवक के निर्देश के अनुसार उन्होंने साइकिल वाले लड़के को ठीक से समझा दिया कि उनसे जितना बन पड़ा उतनी मदद वे कर चुके, यहां तक कि अपना खून भी दे दिया, अब वे एकदम खाली हो चुके हैं, उनके पास कुछ नहीं बचा, इसलिये उसे चाहिये कि वह अपने माता-पिता को समझाये कि वे यतींद्र को जाने दें। कुछ देर बाद लड़के ने अपने मा-बाप से बात की। शायद समझाने का कुछ असर हुआ और तब बड़ी कठिनाई से यतींद्र अपनी जान बचा पाये। बहुत दिन बाद जब उनके पापा वहां आये तो वे उनके साथ जाकर मेडिकल स्टोर से किसी तरह अपनी चेन वापस लेकर आये जो आज भी उनके गले में है। पापा ने पूछा भी था कि लड़के से टक्कर कैसे हुई और यतींद्र ने बड़ा सहज उत्तर दिया था कि वे तो स्वयं कीचड़ के रास्ते जाकर उस लड़के को सूखी सड़क से निकालना चाहते थे। उन्हें क्या खबर थी कि नेकी खुद उन पर ही भारी पड़ जायेगी।

बिना अतीत से कुछ सीख लिये आज फिर वे नादानी कर बैठे और परिणाम भी ठीक वैसा ही निकला, फिर झमेले में फंस गये। पहली बार केवल सादे कपड़े वालों से वास्ता था, इस बार मामले में वर्दी वाले और शामिल हैं। अब तो भगवान ही मालिक है। कहीं फिर से हवन करते हाथ न जल जायें। सुबह से दोपहर हो ही चुकी, शायद रात भी यहीं गुजारनी पड़े। एक सिपाही कुछ देर पहले दो-तीन लोगों को साथ लेकर आया था, पता नहीं कौन लोग थे, कहीं कोई और नई मुसीबत गले न पड़ जाये। यतींद्र आज फिर परेशान थे। न कुछ खाने का मन हो रहा था, न पीने का। भूख-प्यास सब जैसे गायब। अचानक एक अधेड़ से आदमी ने आकर आवाज लगाई, ‘यतींद्र कौन है’, बड़ी भारी और रौबीली आवाज थी। सुन कर यतींद्र का हलक सूखने लगा, उस कठोर स्वर के प्रभाव से वे अपनी पुरानी यादों से तो बाहर आ गये, लेकिन उन यादों के कारण जो मानसिक व्यथा और टीस उनके मन में घर कर गई थी उससे बाहर आना उनके लिये आसान नहीं था। उन्होंने अपने नाम से हुई उस पुकार को अनसुनी सी करके मुंह दूसरी ओर फेर लिया, लेकिन वही आवाज फिर से आई, ‘अरे भाई, चेहरा तो देखने दे अपना’। यतींद्र अभी कुछ और सोच पाते उससे पहले उसी आवाज के पीछे एक महिला का स्वर और सुनाई दिया, ‘ये फौज वाली कड़क बोली कम से कम यहां तो छोड़ देते। आपका बेटा अब होश में है, आप उधर जाइये, उस भले आदमी को मैं देखती हूं, यहीं कहीं होगा, पुलिस वालों ने जाने ही कहां दिया होगा।’

महिला की बात सुनकर यतींद्र की जान में जान आई। चलो, खतरा थोड़ा तो कम हुआ। जिस व्यक्ति को वे मरणासन्न अवस्था में यहां लेकर आये थे वह होश में है और उसकी देख-भाल के लिये सम्भवतः कुछ परिजन अब अस्पताल मे आ चुके हैं। ये स्त्री-पुरुष शायद माता-पिता होंगे जो उसे बेटा कह रहे हैं। यतींद्र ने साहस करके अपना चेहरा आवाज की ओर घुमाया तो एक बड़ी उम्र की मगर आकर्षक महिला को सामने खड़े पाया। उसने जब दोबारा उनका नाम पुकारा तो निकट जा कर उचित आदर और नम्रता के साथ वे बोले, ‘जी कहिये, मैं ही यतींद्र हूं।’ फिर जो उत्तर मिला उस पर यतींद्र को यकीन ही नहीं आया, सामने खड़ी महिला बड़े वात्सल्य के साथ कह रही थी,  ‘बेटा, तुम सुबह से यहीं हो, अब तक शायद ही कुछ खाया-पिया हो। बहुत भूख लगी होगी। लो, पहले खाना खा लो, और बातें बाद में करते हैं।’ और बिना यतींद्र की कोई बात सुने उसने खाने का बड़ा सा टिफिन बॉक्स खोल कर उनके आगे रख दिया, इतना ही नहीं उनके चेहरे पर आया पसीना देख कर धीरे-धीरे अपने दुपट्टे से हवा भी करने लगी।

इस बार का अनुभव कॉलेज वाले अनुभव के एकदम विपरीत जा रहा था। कहां कालेज के दिनों में उस साइकिल सवार की मामूली सी चोट के चक्कर में अपनी चेन गिरवी रख कर दवा लाना, खुद का खून देकर उसके लिये खून का इंतजाम करना फिर भी मुश्किल से अपनी जान छुड़ा कर निकलना और कहां आज इस महिला के दुर्घटना ग्रस्त बेटे को अस्पताल में लाकर छोड़ने भर के बदले इतना प्यार। यतींद्र को कुर्बानी के बकरे की मिसाल याद आ गई। ये लोग भी शायद उसे छोड़ेंगे नहीं, हलाल करके ही मानेंगे, मगर पहले खिला-पिला कर तगड़ा करने के जुगाड़ में होंगे, तभी तो उस पर इतना लाड़ जता रहे हैं। मरता क्या न करता, उन्होंने सोचा खाना छोड़ कर भी जान तो बचने से रही, क्यों न कुछ खा ही लिया जाये। वह महिला अभी तक अपने दुपट्टे से यतींद्र की हवा किये जा रही थी, साथ ही साथ उनके घर-परिवार, जमीन-जायदाद, शिक्षा-दीक्षा, जाति-गोत्र और उम्र की जानकारी भी लेती जा रही थी। वे जान-बूझ कर अपने और अपने परिवार के आर्थिक-सामाजिक स्तर के बारे में जितना हो सकता था, कम से कम करके बता रहे थे। जानते थे कि किसी न किसी मुकाम पर यह सब मिल कर दुर्घटना के नाम पर उनका भरपूर शोषण करने का प्रयास अवश्य करेंगे। इसीलिये उन्होंने हर लिहाज से खुद को बहुत ही मामूली आदमी जताने की पूरी कोशिश की।

खाना समाप्त हुआ तो उस महिला ने अपने पति को भी वहां बुला लिया। तब तक उनके बेटे की देख-भाल के लिये घर के कुछ और सदस्य भी वहां आ चुके थे। उन दोनों ने जिद करके उन्हें अपने वाहन से वहां तक छोड़ा भी जहां सुबह यतींद्र अपना स्कूटर खड़ा कर गये थे। राह चलते-चलते पति-पत्नी ने यतींद्र के घर का पता और पूरा रास्ता भी ठीक से समझ लिया था।

घर वापस आने के बाद थोड़ी देर मन शंका ग्रस्त रहा, फिर सारी बातें आई-गई होने लगीं, लेकिन एक रोज फिर से ऐसा हुआ जो किसी ने सोचा भी नहीं था। दरवाजा खुला हुआ था। सुबह-सुबह सब लोग घर के झाड़ू-पोंछे में व्यस्त थे कि वही दोनों पति-पत्नी सामने के खुले दरवाजे से अपने उसी बेटे के साथ सीधे घर के अंदर चले आये, जिसे दुर्घटना वाले दिन यतींद्र अस्पताल लेकर गये थे। उनके साथ एक सुंदर, सुशील और शर्मीली सी युवती भी थी। अंदर आते ही वे लोग यतींद्र के माता-पिता के पास जाकर बैठ गये और इस तरह घुल-मिल कर बातें करने लगे जैसे एक दूसरे को बरसों से जानते हों। दो-तीन घंटे बाद जब यतींद्र कहीं बाहर जाने लगे तो उनके पिता ने अकेले में एक ओर ले जा कर उनसे कुछ बात करनी चाही, लेकिन तभी वे पति-पत्नी भी आकर वहीं खड़े हो गये और अपनी बेटी शैलजा का परिचय कराते हुए बेबाक होकर यतींद्र का हाथ उसके लिये मांग लिया। दोनों बड़े ही स्पष्ट वक्ता निकले। साफ-साफ कह दिया, पिता फौजी अफसर हैं, मुश्किल से छुट्टी मिल पाती है।

इस बार केवल दस दिन का समय बाकी है, यदि वे लोग हां कहते हों तो शीघ्र ही किसी अच्छे मुहूर्त में फेरे करा दिये जायें। और कुछ नहीं वे यतींद्र की सरलता, संवेदनशीलता और जिम्मेदारी की भावना से प्रभावित होकर इस घर की ओर खिंचे चले आये हैं। पता नहीं कौन सा जादू हुआ, थोड़ी सी बातचीत के बाद दोनों पक्ष विवाह पर सहमत हो गये। चट मंगनी, पट ब्याह। यतींद्र और शैलजा जल्दी ही एक दूसरे के हो गये। दस वर्ष कब और कैसे बीत गये किसी को पता तक नहीं चला। अब शुरू के कुछ दिनों की तरह यतींद्र न तो कॉलेज के समय उस साइकिल सवार की सहायता में उठाये तनाव और आर्थिक शोषण को अपनी पहली, और न ही शैलजा के दुर्घटना ग्रस्त भाई की मदद को अपनी दूसरी भूल मानते हैं। हां शैलजा का नाम जरूर उन्होंने यही रख लिया है और हंसी-हंसी में जब-तब उसे ‘दूसरी भूल’ कह कर चिढ़ाने का असफल प्रयास भी करते रहते हैं, लेकिन उसके चेहरे पर उन्होंने आज तक एक शालीनता भरी मुसकान के सिवा और कुछ देखा ही नहीं।

– मदन मोहन ‘अरविन्द’

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