वर्तमान में नगरों से सम्बंधित एक शब्द प्रचलन में है, ‘स्मार्ट सिटी’। ध्यान से देखा जाए तो इस ‘स्मार्ट सिटी कॉन्सेप्ट’ में और हमारे प्राचीन ‘नगर नियोजन’ में कोई आधारभूत अंतर नहीं है। निश्चित रूप से हम उस समय के हिसाब से आज की नगरीय संरचना का विचार नहीं कर सकते परंतु, आधारभूत नियम तो समान ही होंगे। आज के नगर नियोजन की जो मुख्य कमजोर कड़ियां दिखाई देती हैं वो हैं, दूरदर्शिता, पूर्व नियोजन, वास्तविकता आधारित सोच और दूसरों की नकल करने की बजाय अपनी आवश्यकतापूर्ति का विचार, इन चारों का अभाव।
वर्तमान शहरों को ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने के लिए जिन मूलभूत सुविधाओं की आवश्यकता है, उसमें गृहनिर्माण, यातायात के साधनों की उचित व्यवस्था, जल प्रबंधन, कचरे का उचित निपटारा, ड्रेनेज की व्यवस्था, सामाजिक कार्यक्रमों के लिए जगह इत्यादि बातें प्रमुख हैं। इन सभी के साथ एक और महत्वपूर्ण बात, जो आज नजरअंदाज की जा रही है वह है, पर्यावरण का समुचित ध्यान रखना। बढ़ती जनसंख्या के हिसाब से गृहनिर्माण करने की धुन में पेड़ों, जंगलों की अंधाधुन कटाई की जा रही है और कंक्रीट के जंगल बनाए जा रहे हैं। चूंकि जिस अनुपात में पेड़ काटे जा रहे हैं उस अनुपात में नए लगाए नहीं जा रहे हैं अत: पर्यावरण असंतुलन बढ़ता जा रहा है।
पुराने शहरों की सांस्कृतिक धरोहरों को बचाते हुए उन्हें अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त करना दूसरी बड़ी चुनौती है, विशेषत: महानगरों में, क्योंकि यहां भारत के दूसरे तुलनात्मक छोटे शहरों से लोगों का विस्थापन होता है और जनसंख्या का बोझ और उनकी शहर से मांग बढ़ती जाती है। कम चौड़े और गड्ढों भरे रास्ते और वाहनों की अधिकता से लगने वाला जाम, नागरिकों के जाग्रत न होने के कारण यहां-वहां फैला कचरा, फुटपाथ पर लगने वाली अनधिकृत दुकानें इत्यादि नगर नियोजन की पोल खोल देती हैं। ये अव्यवस्थाएं दिखाती हैं कि सुनियोजित दृष्टिकोण का अभाव किस तरह एक शहर को ‘आनंदित निवास’ की एक जगह से ‘केवल दिन गुजारने’ की जगह में बदल देती है और लोग छुट्टियों या रिटायर्मेंट के बाद ‘सेकेंड होम’ तलाशने लगते हैं, हालांकि यह हर किसी जेब को नहीं सुहाता। इन सब समस्याओं का निराकरण कैसे हो सकता है? इनका हल खोजने के लिए सबसे पहले तो यह समझना आवश्यक है कि हमारे देश के हर प्रांत का हर शहर, उसकी भौगोलिक और वातावरणीय आवश्यकता अलग है। उनकी भारत के ही अन्य शहरों से तुलना नहीं की जा सकती तो विदेशों की बात ही अलग है। अत: भारतीय महानगरों को शांघाई बनाने से अच्छा है उन्हें वहां के निवासियों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना और वह भी एक-दो वर्षों के लिए नहीं अपितु अगले 25 वर्ष बाद की दूरदृष्टि रखकर।
भारत में ऐसे प्रयोग किए भी गए हैं। चंडीगढ़, नवी मुंबई, जमशेदपुर जैसे शहरों को पूरी तरह से ‘प्लान’ करके बसाया गया है। नवी मुंबई की पानी की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मोरबे बांध बनाया गया है। सम्पूर्ण शहर नोडल पद्धति से विकसित किया गया है। दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रहिवासियों को एक-डेढ़ किलोमीटर से अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यहां की सड़कें सीमेंट से बनी हैं, जिनमें गड्ढों की गुंजाइश न के बराबर होती है। इमारतें बनाते समय पर्यावरण का भी ध्यान रखा गया है।
मुंबई की सबसे बड़ी सब्जी, फल और फूलों की मंडी, महामंडल, कारपोरेट जगत, उद्योगों के मुख्यालय नवी मुंबई में हैं। नवी मुंबई अब इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, कम्प्यूटर साइंस आदि जैसी उन्नत शिक्षा का केंद्र बन कर उभर रहा है। टाटा कैंसर अस्पताल जैसे कई उन्नत एवं उच्च तकनीक से सुसज्ज अस्पताल अब नवी मुंबई में हैं। यहां एक ओर आईटी उद्योग के हब हैं तो दूसरी ओर सर्विस प्रोवाइडिंग कम्पनियों के हाईटेक कार्यालय हैं। जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट से सबसे अधिक माल कंटेनर्स में भरकर जलमार्ग से विदेशों में भेजा जाता है। यहां के रेलवे स्टेशन स्वच्छ तथा सर्वसुविधायुक्त बनाए गए हैं। भारत सरकार द्वारा बनाई गई शहरी विकास की नीति जुड़वा शहर पर केंद्रित है तथा मुंबई व नवी मुंबई उसके उत्तम उदाहरण हैं। नवी मुंबई आज तो उन्नत शहर है ही परंतु उसका अगले पंद्रह वर्षों में अधिक उन्नति करने का खाका भी तैयार है।
भारत के अन्य शहरों को भी इन शहरों से प्रेरणा लेकर अपना विकास करने की ओर ध्यान देना होगा। निश्चित ही उनकी अपनी आवश्यकताएं अलग होंगी परंतु अगर इस ‘स्मार्ट सिटी’ को उदाहरण के रूप में सामने रखकर अन्य शहरों के विकास की रूपरेखा निर्धारित की जाए तो निश्चित ही अन्य शहर भी ‘स्मार्ट सिटी’ के रूप में विकसित हो सकेंगे।