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जरूरी है शहरों में आउटलुक टावर

जरूरी है शहरों में आउटलुक टावर

by अमोल पेडणेकर
in विशेष, सामाजिक, सितम्बर २०२३
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कोई शहर केवल ईंट-पत्थरों या इंडस्ट्री से नहीं बनता। जब तक उस शहर का भौगोलिक स्तर और हर नागरिक का जीवन स्तर सुधारने का प्रयास नहीं किया जाता, उस शहर मात्र का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है। इसके लिए लोगों को अपने शहर की अंतर्आत्मा में झांककर उसके विकास की रूपरेखा बनाने की आवश्यकता है।

पैट्रिक गेडिस एक प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता और आधुनिक शहरी नियोजन के जनक थे। ग्रेट ब्रिटेन के स्कॉटलैंड में जन्मे हुए पैट्रिक गेडिस का बचपन से ही प्रकृति से अटूट रिश्ता था। प्रकृति के सभी तत्व एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और अपना-अपना विकास करते हैं। यह उनका विचार था। वह श्रमिकों की बस्तियों में नियमित रूप से जाते थे। अपने शहर के हालात को देखते हुए पैट्रिक ने एक अनोखे रूप में अक्ल लड़ाई। अपने शहर के मध्य में उन्होंने एक बड़ा स्तम्भों वाला टावर बनवाया। इसका नाम रखा, आउटलुक टावर! जिज्ञासावश शहरवासी अपने प्रिय शहर को देखने के लिए बड़े उत्साह से आउटलुक टावर पर चढ़ जाते थे। वहां की ऊंचाई से लोगों को अपने शहर की गंदी बस्तियां, अस्तव्यस्त यातायात, गटर, नाला और गरीबी दिखती थी। अपने ही शहर के नागरिक इतनी बुरी स्थिति में कैसे रहते हैं, ये देखकर लोगों को भी दुख होता था। उस टावर के ग्राउंड फ्लोर पर एक ‘इनरलुक रूम’ भी था। वहां बैठकर लोगों को अपनी अंतरात्मा में झांककर, अपने शहर की स्थिति को हम कैसे सुधार सकते हैं, इस पर विचार करने के लिए पैट्रिक गेडिस प्रेरित करता था। इससे लोग स्वयं प्रेरणा से शहर के विकास के लिए आगे बढ़े और एक अद्भुत एडिनबर्ग शहर का निर्माण हुआ। यह कहानी इसलिए बता रहे हैं, क्योंकि आज भारत में स्थापित शहरों की ओर जब हम अपनी नजरें घुमाते हैं तो पैट्रिक गेडिस जैसे नगर नियोजक व्यक्तित्व की नितांत आवश्यकता महसूस होती रहती है।

नैसर्गिक रूप से विकसित शहर, शहरों की मूल संकल्पना है। यह ग्रामीण और तहसील क्षेत्रों में हमें ज्यादातर महसूस होती है। दुनिया में बहुत से शहर ऐसे हैं जहां जमीन और पानी के गठन ने एक शहर को आकार दिया है। समय-समय पर समुद्र से खींचकर निकाली गई जमीन ने घनी आबादी को पनपने का मौका दिया। यह वर्तमान शहरों की सही पहचान है। समय-समय पर इंसान की बढ़ती जरूरत ने नगर रचना के नैसर्गिक शहर के अर्थ को ही गायब कर दिया है। समय के साथ बड़ी-बड़ी इमारतों का खड़ा होना, बस्तियों का फैलते जाना, कारखानों से निकलता धुंआ और अनवरत उत्पादन, थकान और पसीना, बेसुध भाग-दौड़ और बदहवासी इन सारी बातों के एकीकरण को आधुनिक शहर कहा जाने लगा है। भू माफिया के साथ-साथ हर कदम पर भ्रष्ट राजनीति और अपराधों का नेटवर्क विकराल होता गया। हरियाली बची ही नहीं। समुद्र तट, पहाड़ या अन्य नैसर्गिक संसाधनों पर अवैध कब्जा हुआ। यह हमारे आज के शहरों का नजारा है।

हमने अपनी बढ़ती हुई जरूरतों के पूरा करने अपने लिए नई जमीनों को भी पैदा किया। लेकिन प्रकृति को ठेंगा दिखाया गया। कभी कोई जमीन सागर से छीन निकाली गई है, कभी इसके लिए नदी और दलदल के सीने पाट दिए गए। कभी वनस्पतियों, जंगलों और पहाड़ों को रौंद दिया गया, तो कभी जनजातियों, आदिवासियों, पुराने रहवासियों को उनकी परम्परागत धरती से खदेड़ कर शहर बसाए गए हैं। इस शहरी सभ्यता की बुनियाद ही विस्तार और लालच पर टिकी है। जहां भी मौका मिला, अपने लिए नई जमीनें पैदा कर लीं और अपनी इस लालच को ‘विकास’ नाम दे दिया गया।

आप मुंबई शहर की संवृद्धि और विकास के समूचे इतिहास को मुड़कर देखें तो पाते हैं कि इस शहर का 40 प्रतिशत हिस्सा पुनर्विकसित जमीन पर ही बसा हुआ है। यह पहले अस्तित्व में ही नहीं था। विकास की योजनाएं बनाने, सपनों एवं विसंगतियों को पोसते हुए अपने भीतर एक तीव्र गति को समेटे हुए यह शहर स्मार्ट सिटी की ओर बढ़ रहा है। अंतर्विरोधों से भरे इस शहर की नींव दो दुनियाओं की वास्तविकता पर रखी गयी थी। एक प्रभावशाली लोगों की आरामदायक, सुनियोजित दुनिया जो कोलाबा से लेकर मलाबार हिल तक फैली हुई है। दूसरी भीड़-भाड़ से भरी अस्त व्यस्त दुनिया जहां श्रमिकों, कारीगरों, छोटे-मोटे धंधे रोजगारवालों और क्लर्कों की बस्तियां बिखरी पड़ी हैं। आज जब पुरानी चालों और श्रमिक बस्तियों के बीचोंबीच पच्चीस और तीस मंजिला के चमकीले टॉवर खड़े हो रहे हैं, टावर और झुग्गी झोपड़ियों के बीच एक ही ‘स्पेस’ के भीतर सिकुड़ आयी दो अलग-अलग दुनिया प्रस्तुत होती है। देश के ज्यादातर शहरों की आबादी बढ़ रही है। सामाजिक ढांचे के भीतर शहरों की व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। आज 21 वीं सदी के शहर का चेहरा एक अधूरी चित्रकला की तरह हो गया है, जिसमें परस्पर विरोधी स्वभाव वाली चीजें एक दूसरे के अगल-बगल रख दी गयी हैं।

शहरों के विकास के इस स्वरूप पर कुछ मूल सवाल उठते हैं। संदर्भ यह है कि बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में देश के छोटे-छोटे गांवों और कस्बों से उजड़ कर मुंबई और देश के अन्य प्रमुख शहरों की ओर आबादी का जो अभूतपूर्व आगमन हुआ है, उसने शहरों के विकास के उस पुराने ढांचे को लगभग तहस-नहस कर डाला है। वह न अब पुराना ग्रामीण रह गया और न एक आधुनिक शहरी बन पाया। उसका सारा संघर्ष महज अपने अस्तित्व को किसी तरह बचाये रखने का है। नगरीकरण की इस समस्या से जुड़े बहुत सारे नए आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक पहलू उभरे हैं, जो हमारे लिए एक नया उदाहरण बना रहे हैं।

निम्न मध्यवर्ग की आय के लोगों को अपने घर से कार्य क्षेत्र तक जाने के लिए मीलों का सफर तय करना पड़ता है। प्रत्येक शहर हर साल पानी की कमीे, पार्किंग और ट्रैफिक जाम की बदतर हालत से जूझता है, एक लोकल ट्रेन के रद्द हो जाने पर स्टेशनों पर भीड़ चरम पर पहुंच जाती है। दलदली जमीनों, खाली पड़े भूखंडों, रेलवे पटरियों के किनारे-किनारे, बदबू और गंदगी से भरे नालों के इर्द-गिर्द बनती झोपड़ियां हैं, जिन्होंने शहर की सारी पहाड़ियों, फुटपाथों, पुलों और फ्लाइओवरों के नीचे अतिक्रमण किया हुआ है। सड़कों, फुटपाथों और पुलों पर आजीविका कमाने के लिये बैठे फेरीवालों को कई बार प्रांत और धर्म के नाम पर कुछ राजनीतिक दल अपना ‘निशाना’ बनाते हैं। ये सब संगठित होकर हमलावरों की भीड़ बन जाते हैं। वर्तमान में देश के ज्यादातर शहरों में जब हम यह सब देखते हैं तब यह महसूस होता है कि ये सब बदलते समय के तनाव हैं। किसी के पास इन सवालों का कोई जवाब है? वहीं दूसरी ओर चंडीगढ़, जमशेदपुर और नवी मुंबई जैसे सुनियोजित शहर भी हैं, जहां रहने वाले लोग एक बिल्कुल अलग जीवनशैली का आनंद उठाते हैं। आखिर क्यों कुछ शहरों ने बाकी के मुकाबले बेहतर संचालन किया है?

देश की प्रगति आय से मापी जाती है। क्या हम सचमुच अपनी खुशी का आधार ऐसी भौतिक चीजों के आधार पर मापते हैं? क्या यह जीवन जीने के तरीके पर, सामाजिक कल्याण पर, शहरों में जुड़ी सदन सुविधाओं पर आधारित हो सकता है? हालांकि वित्तीय समस्याएं और खुशी एक-दूसरे से सम्बंधित नहीं हैं, लेकिन एक महत्वपूर्ण कारक जो हमें खुश करता है वह शहर का वातावरण है, जिसमें हम रहते हैं। हमें खुश रखने के कारणों पर विचार करना जरूरी है? न केवल हमारा पर्यावरण अच्छा और साफ पानी है बल्कि हमारे आस-पास मौजूद सभी प्रकार की मूर्त और अमूर्त चीजें भी महत्वपूर्ण हैं। यदि हम जिस शहर में रहते हैं वह सभी सुविधाओं से भरपूर है, सभी प्रकार के बुनियादी ढांचे पर्याप्त और अच्छी स्थिति में हैं। यातायात के सभी पर्याय सुखकर रूप में उपलब्ध हैं, तो वे हमें खुश करते हैं। अच्छी सड़कें, ढेर सारे पेड़, हर किसी के खेलने और घूमने के लिए खुली जगहें एक तरह की संतुष्टि प्रदान करती हैं, जबकि एक सुव्यवस्थित शहर जिसमें व्यक्ति और समाज के जीवन से जुड़ी सभी आवश्यक सुविधाएं हों, सब कुछ साफ-सुथरा और अच्छा हो, निश्चित रूप से हमें खुश रखेगा। साथ ही, जीवन की अच्छी गुणवत्ता और सामाजिक वातावरण भी खुशी बनाए रखने में मदद करेगा।

यदि समाज का स्वास्थ्य अच्छा है तो वह स्वतः ही प्रगति के पथ पर खड़ा हो जाता है, जो अतुलनीय है।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्।

प्राचीन काल से यह प्रार्थना हम सभी की खुशी के लिए की जाती रही है। हम वर्षों से प्रार्थना कर रहे हैं कि हर कोई खुश रहे, बीमारी से मुक्त रहे, हर चीज का अनुभव करे। किसी भी दुख का हिस्सा न बने। आखिरकार, यह खुशी, आनंद और अनुभव निश्चित रूप से अद्भुत है। इस प्रकार के अद्भुत अनुभव के लिए प्रत्येक शहर में ‘आउटलुक टावर’ और ‘इनरलुक रूम’ होना अत्यंत आवश्यक है। साथ में एक नगर हितैषी पैट्रिक गेडिस की भी नितांत आवश्यकता है।

वर्तमान में देश के ज्यादातर शहरों में जब हम यह सब देखते हैं तब यह महसूस होता है कि ये सब बदलते समय के तनाव हैं। किसी के पास इन सवालों का कोई जवाब है? वहीं दूसरी ओर चंडीगढ़, जमशेदपुर और नवी मुंबई जैसे सुनियोजित शहर भी हैं, जहां रहने वाले लोग एक बिल्कुल अलग जीवनशैली का आनंद उठाते हैं। आखिर क्यों कुछ शहरों ने बाकी के मुकाबले बेहतर संचालन किया है?

 

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