प्राचीन काल से ही दुष्यंत पुत्र भरत के नाम पर यह भूमि भारत है। परंतु उच्चारण की अशुद्धता के कारण पश्चिम में इंडिया कहा जाता रहा। पुरानी गलती को सुधारने के प्रति विपक्ष का अड़ियल रवैया उनकी गुलाम मानसिकता का द्योतक है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 1947 में और 1950 में संविधान लागू करते समय तत्कालीन शासकों से जो ऐतिहासिक भूलें हुईं या जान बूझकर जिन मुद्दों की अनदेखी की गईं, वे कालांतर में इस राष्ट्र के लिये तकलीफदेह और कुछ मामलों में तो नासूर साबित हुईं। उनमें से एक मामला देश के नाम का भी है। तब इसे आसानी से हिंदुस्तान या भारत किया जा सकता था। तुष्टीकरण सोच वाले लोगों ने ऐसे हर एक मामले को ऐसा स्वरूप दे दिया, जो अब नित-नये विवादों को जन्म दे रहा है। जबकि वे मामले राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े हैं, देश की सनातन परम्परा से सम्बद्ध हैं, उसकी पहचान के मानक हैं। वर्तमान में देश का नाम बदलने को लेकर चल रही चर्चा कुछ इसी तरह की है।
यह मसला किस अंजाम तक पहुंचेगा, यह तो अभी सुनिश्चित नहीं है, लेकिन इस बहाने एक बार फिर वे लोग बेनकाब हो गये, जो भारतीयता, सनातन, राष्ट्रवाद, प्राचीन पहचान, राष्ट्रीय धरोहर, वैदिक परम्परायें जैसी बातों को निरर्थक या गैर जरूरी मानते हैं। प्रत्येक मामले को राजनीतिक चश्मे से देखने के अभ्यस्त लोग बिना किसी परदे के देश के मूल नाम के मुद्दे पर दुविधाग्रस्त और पूर्वाग्रही हैं। उन्हें इस मुद्दे के समर्थन या विरोध से राजनीतिक लाभ-हानि की ही चिंता लगी रहती है। ऐसा तब है, जब केंद्र सरकार ने अभी तक तो देश का नाम इंडिया से बदलकर भारत कर देने की कोई अधिकृत पहल की ही नहीं है।
बहरहाल हम यह क्यों नहीं जानना चाहते कि राजनीतिक सत्ता परिवर्तन तो हर देश में होता ही रहता है और तमाम सरकारें अपनी रीति-नीति के अनुसार नियम-कानूनों में परिवर्तन करती रहती है। भारत में आजादी के बाद ऐसी गैर कांग्रेसी सरकार पहली बार आई है, जो पूर्ण बहुमत प्राप्त होकर लगातार दूसरा कार्यकाल संचालित कर रही है। तब किसी को यह क्यों लगता है कि उसे वैसे ही कार्य करना चाहिये, जैसे दूसरे दल की सरकार ने अलग-अलग कालखंड में करीब 60 साल तक किया था? नाम बदलने के मामले में विरोधियों की दलीलें भी अजब हैं। जैसे, यह कि भाजपा सरकार तो 2014 में ही आ गई थी तो 9 बरस बाद नाम भारत करने की जरूरत क्यों आई? उनका मानना है कि अगले साल 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के मद्देनजर गैर भाजपाई राजनीतिक दलों का जो मोर्चा बना है, उसका नाम इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस) रखने से लोगों के बीच उसकी स्वीकार्यता से घबराकर भाजपा सरकार ने देश का नाम बदलने का पैतरा चला है।
हो सकता है, विपक्ष की यह आशंका सही हो। तब सवाल यह भी उठता है कि जब संयुक्त मोर्चा बनाया गया, तब उसका संक्षिप्त नाम इंडिया रखने के पीछे उनका मतंव्य इसका राजनीतिक लाभ लेना नहीं था क्या? जब विपक्ष राजनीति कर रहा है तो सत्ता पक्ष गिल्ली-डंडा खेलने, पतंग उड़ाने के लिये तो राजनीति नहीं कर रहे। फिर भी यह देखना ही होगा कि दोनों का लक्ष्य क्या है? साफ जाहिर होता है कि विपक्ष तो जनमानस में अपनी खो चुकी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को पाने के तौर पर नाम को राष्ट्रीय स्वरूप देना चाहता है। जबकि भाजपा देश के नाम को उसकी मूल पहचान देकर उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहती है। तो इसका फैसला जनता ही करे कि दोनों में से कौन सही है?
विरोधियों के तर्कों की पोटली काफी बड़ी है। वे गिनाते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आधिकारिक दस्तावेजों और शासकीय कामकाज में भी नाम परिवर्तन की प्रक्रिया बेहद कठिन, खर्चीली और लम्बे समय के साथ होगी, जो कि व्यावहारिक नहीं कही जा सकती। यह भी कि इसमें अरबों रुपये का खर्च आयेगा, जो देश पर बोझ होगा। किसी भी मसले का आर्थिक पहलू तो होता ही है, किंतु जब बात देश के मान-पहचान की हो, उसके मूल स्वरूप की हो, राष्ट्र की मौलिक पहचान की हो तो पैसों का खर्च मायने नहीं रखता। लेकिन ये तमाम बातें तो तब होंगी, जब ऐसा कोई निर्णय सरकारी स्तर पर होता है। यह जब भी होगा पूरी तरह से विधि सम्मत, व्यावहारिक नजरिये से उचित कर लिये जाने और तयशुदा प्रक्रिया को अपनाकर ही होगा। तब विपक्ष को अपनी बात कहने का, विरोध करने का भरपूर अवसर भी मिलेगा ही। तब कर लीजियेगा दो-दो हाथ। अभी तो देश के साथ खड़े होने का एलान करना चाहिये था।
यह सही है कि इंडिया अब वैश्विक स्तर पर बड़ा ब्रांड बन चुका है। जैसे भारत के उद्योग समूह टाटा-बिड़ला-अंबानी-अडानी ने दुनिया में अपना परचम फहराया है, उसी तरह से देश की मौजूदा भाजपा सरकार, उसके प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपनी विकासवादी सोच, सनातनी मूल्यों, वसुधैव कुटुंबकम के जीवन दर्शन, जनोन्मुखी शासन व्यवस्था के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख और भरोसा अर्जित किया है। स्वतंत्रता के बाद पहली बार भारत की ओर दुनिया की निगाहें आशा और विश्वास के साथ उठी हुई हैं। भारत तेजी से विश्वगुरु की ओर ठोस, संतुलित, संयमित और सधे कदमों से आगे बढ़ रहा है। पश्चिमी समाज, राष्ट्राध्यक्ष यदि पूरे जोश-होश के साथ भारतीय नेतृत्व का लोहा मान रहे हैं, तो यह अनायास बरती गई उदारता या कुटिलता नहीं है। यह पिछले नौ साल की हाड़-तोड़ मेहनत, दृष्टि, रीति-नीति, क्रियान्वयन के निरंतर सिलसिले का सुखद परिणाम है। इसका श्रेय जहां सरकार के नेतृत्वकर्ता नरेंद्र मोदी को है, वहीं भारत की जनता को भी है, जिसने पूरे मन से मोदी सरकार में भरोसा जताकर दूसरा कार्यकाल भी दिया, ताकि भारत राष्ट्र राज्य के समुन्नत विकास, उसकी वैश्विक साख को नये आयाम दिये जा सकें।
देश में जब भी और जहां भी इंडिया नाम को बदलकर भारत करने की बात चले तब भेड़चाल की तरह विरोध करने की बजाय इसके पौराणिक, ऐतिहासिक संदर्भ भी देखे जाने चाहिये। वैसे उन लोगों को तो इस मुद्दे का विरोध करने का नैतिक अधिकार ही नहीं है, जो न्यायालयों में शपथपत्र देकर रामजन्म भूमि की वास्तविकता को ठुकराते रहे और राम को काल्पनिक पात्र बताते रहे। यहां तक कि रामेश्वरम के समुद्र में वानर सेना द्वारा बनाये गये पत्थर के पुल की प्रामाणिकता को भी खारिज करते रहे। वे अब स्वार्थ सिद्धि के लिये रामनामी चोला पहन, धोती डाल कर मंदिर-मंदिर घूम कर खुद को हिंदू बताने का ढोंग कर रहे हैं।
यह तो अब सर्वविदित है कि राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर इस राष्ट्र को पहचाना जाता है, जो कालांतर में भारत हो गया। होने को तो वह स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हिंदुस्तान भी हो सकता था, क्योंकि धार्मिक आधार पर विभाजित होकर दूसरा देश पाकिस्तान बना था। तब हिंदू बहुल लोगों का देश आसानी से हिंदुस्तान हो सकता था, किंतु जिनकी नीयत में हमेशा खोट रही, जिनके मंसूबे सदैव वर्ग विशेष के वोटों की खेती करने की रही, जो इस देश में तुष्टीकरण की राजनीति के जनक हैं, उनकी घाघ नजरें भारतीयों की सदाशयता को महत्वहीन समझ कर इस राष्ट्र को अपनी निजी सम्पत्ति बनाना रहा। इसी बदनीयती ने उन्हें देश का नाम हिंदुस्तान या भारत नहीं करने दिया और बिना किसी अर्थ वाला इंडिया कर दिया, जो विदेशी जबान के लिये आसान था।
दरअसल, करीब 8 हजार साल पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता (जो हड़प्पा, मोहनजोदड़ो में रही) के चर्चे तब भी पूरी दुनिया में थे। पश्चिमी समाज के उच्चारण दोष की वजह से सिंध को इंड्स कहा जाता था, जो अपभ्रंश होकर कब इंडिया हो गया, पता ही नहीं चला। यूं एक संदर्भ यह भी है कि यूरोपियन क्रिस्टोफर कोलम्बस मूलत: भारत यात्रा पर निकला था, जिसे तब वैश्विक तौर पर इंडिया कहा जाता रहा होगा। इसीलिये बताते हैं कि बजाय इंडिया पहुंचने के वे अमेरिका पहुंच गये। तब उसे इंडिया समझकर ही वहां के लोगों को इंडियन ही सम्बोधित किया। माना जाता है कि आज भी अमेरिका के जो मूल निवासी हैं, वे रेड इंडियन ही कहलाते हैं। यानी सदियों से विदेशी इसे इंडिया कहते रहे, लेकिन हमारे लिये वह भारत ही रहा। अलबत्ता मोदी सरकार ने इस मामले को बाजार में उतार कर विपक्ष को एक बार फिर बेनकाब जरूर कर दिया। विपक्ष इस मौके को बुरी तरह से चूक गया।