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भोर का उजाला

भोर का उजाला

by सुनीता माहेश्वरी
in कहानी, जनवरी- २०२३, विशेष
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वरांडे में बैठी रिमझिम फुहार का आनंद लेते हुए श्रुति चाय की चुस्कियां ले रही थी। उसकी मधुर स्मृतियों में अमित के साथ बिताए स्कूल, कॉलेज दिन फिल्म की तरह उभर आए थे। स्कूल से ही उनकी मित्रता चल रही थी। उन दोनों की आपस में बहुत लड़ाइयां होती थीं।

एक दिन तो हद हो गयी जब कक्षा में दोनों को लड़ते देखकर हिंदी की अध्यापिका ने डांटते हुए पूछा, आखिर, यह सब क्या है?

अमित ने बड़ी ढिठाई से उत्तर दिया, मैडम, मुझे श्रुति बहुत अच्छी लगती है। जैसे मैं घर में अपनी बहन से लड़ता हूं, वैसे ही मुझे श्रुति के साथ लड़ने में बहुत आनंद आता है। हम दोनों अच्छे मित्र हैं। हिंदी की अध्यापिका तो उसका मुंह देखती रह गयी थीं। स्कूल की उन यादों में खोई श्रुति अकेली बैठी ही मुस्कराने लगी थी।

बड़े होने के साथ उनकी मित्रता और प्रगाढ़ हो गई थी। श्रुति उसकी फ्रैंड तो थी, पर गर्ल फ्रेंड नहीं। इंजिनीयरिंग कॉलेज में भी दोनों साथ ही पढ़ते। दोनों की दोस्ती पूरे कॉलेज में प्रसिद्ध थी। दोनों जीनियस थे। पढ़ाई में और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में तो उन दोनों ने अपना सिक्का जमा रखा था। श्रुति को शास्त्रीय संगीत का बहुत शौक था।

श्रुति का विवाह उसके माता पिता ने अपने शहर के मेयर श्री विकास भंडारी के पुत्र अभिनव के साथ बड़ी धूमधाम से किया। विवाह के बाद श्रुति अभिनव के साथ खुश थी। दोनों में अच्छा तालमेल था।

श्रुति अपने वैवाहिक जीवन की यादों में खोई हुई थी कि अचानक उसने देखा कि उसकी प्यारी शेरी के पीछे कई कुत्ते दौड़ रहे हैं। शेरी स्वयं को बचाने का प्रयास कर रही थी, पर वह कुत्ते उसे तंग कर रहे थे। शेरी दौड़कर हांफते हुए उसके पैरों के पास आकर बैठ गयी थी। श्रुति ने प्यार से शेरी को सहलाते हुए कहा, डर मत मैं हूं तेरे पास।

परन्तु यह दृश्य देखकर श्रुति कांप उठी। उसके साथ हुई दुर्घटना उसकी आंखों के सामने चित्रवत उभर आई थी। वह व्यथित हो गई थी।

एक दिन उसे भी पीछे से चार दरिंदों ने घसीटा और जबरदस्ती अपनी कार में खींच लिया था। वह चिल्लाती रही थी, बचाओ- बचाओ।

बंद शीशों में उसकी आवाज घुटकर रह गई थी। उस भयानक काली रात में वे बलात्कारी उस पर भूखे भेड़िये से टूट पड़े थे। वह अपने को बचाने का भरसक प्रयत्न कर रही थी, पर सफल न हो सकी। उनके द्वारा दी गई यातनाओं ने उसके शरीर को लहूलुहान कर दिया था।

अपने शरीर पर नाखूनों के निशान, घाव पर शराब डालना, नोचना, काटना, मारना सब याद है उसे। वह बेबस, हैरान परेशान सी चिल्लाती रही, पर उस निर्जन स्थान में उसकी आवाज कहीं खो गई थी। उसकी सहायता के लिए कोई नहीं आया। वह पीड़ा से तड़प रही थी। स्वयं को लुटता हुआ देखकर दुख-पीड़ा, अपमान सहते-सहते न जाने कब वह बेहोश हो गई। वे दरिंदे उस अधमरी जान को पूर्णतः भोगकर गाड़ी से फेंक कर चले गये थे।

सुबह किसी ने उसे देखा, अस्पताल पहुंचाया। मेयर साहब की बहू होने के कारण डॉक्टरों का पैनल उसके इलाज में जुट गया था। पर कुछ समय बाद मेयर साहब के आदेश पर उसे शीघ्र ही घर भेज दिया गया। बलात्कार की घटना को बदनामी के डर से वहीं दबा दिया गया। श्रुति के आंसू रुकने का नाम न लेते। घर आते ही काले बादलों ने उसकी जिंदगी को तहस नहस कर दिया था। अभिनव यह सब बर्दाश्त नहीं कर सका। श्रुति को देखकर उसका मन क्रोध और घृणा से भर गया। उसे श्रुति का शरीर दलदल सा प्रतीत हो रहा था। वह उस दलदल से दूर रहना चाहता। श्रुति का कोई दोष न होते हुए भी वह श्रुति को ही दोष दे रहा था।

अभिनव बड़ी निर्दयता से श्रुति से बोला, क्यों गई थीं, इतनी रात में अकेले? मुझे कह दिया होता। अब भोगो तुम अकेले ही। आज से मेरा और तुम्हारा कोई सम्बंध नहीं है।

श्रुति फटी फटी आंखों से उसे देख रही थी। उसे अभिनव से ऐसी उम्मीद न थी। तभी अभिनव पुनः बोला, ऐसे क्या देख रही हो? अब तुम अपने माता-पिता के घर पर ही रहो। मैं रोज रोज की बदनामी नहीं सह सकता। लोगों के ये वाक्य मैं नहीं सुन सकता, यह उसी का पति है, जिसका बलात्कार हुआ था। रोज पुलिस के चक्कर में कौन पड़ेगा? मुझसे कोई उम्मीद मत करो।

अभिनव की बात सुनकर श्रुति को विश्वास ही नहीं हो रहा था। क्या साथ जीने मरने की कसम खाने वाला व्यक्ति इतना बदल जाएगा? कोई प्यार नहीं, सहानुभूति नहीं, ऊपर से ऐसे कटु वचन। पुरुष होने का इतना दंभ! श्रुति तो पहले ही टूट चुकी थी।उसके टूटे बिखरे अस्तित्व को भी अभिनव ने चूर चूर कर दिया था।

श्रुति की सास विमला और ससुर मेयर विकास भंडारी भी कहने लगे, श्रुति, दुर्भाग्य से तुम्हें जो बदनामी मिली है, उसे तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। इस घर की एक मान मर्यादा है, इज्जत है। तुम्हारे कलुषित व्यक्तित्व के कारण हम उसको नहीं गंवा सकते। समझदारी इसी में है कि तुम अब इस घर को छोड़ कर चली जाओ। कुछ दिन बाद तलाक के पेपर तुम्हें मिल जाएंगे।

अभिनव बोला, मैंने तुम्हारे पापा को फोन कर दिया था। वे कुछ ही समय में पहुंचते होंगे।

श्रुति के ऊपर एक के बाद एक बिजलियां गिरती जा रही थीं। उसके आंसू भी सूख गए थे। वह अपनी जीवन लीला समाप्त कर पूरी कहानी पर विराम लगा देना चाहती थी। पर उसके माता-पिता आ गए। श्रुति माता-पिता से लिपट रोती रही। सारी बात जानकर पिता ने कहा, श्रुति बेटा, अपने घर चलो।

श्रुति ससुराल के घर के दरवाजे पर आ कर ठिठक गई थी। इसी दरवाजे पर ही तो बड़े स्वागत और रस्मों के साथ उसका गृह प्रवेश हुआ था। उसने गृह लक्ष्मी के रूप में अपने घर में प्रवेश किया था। पर कैसी विडम्बना थी, उस दिन पल भर में दूसरों की हैवानियत के कारण उसे अपना घर छोड़ना पड़ा था। उसकी आंखों का सैलाब रुकने का नाम नहीं ले रहा था।

दुखी माता-पिता अपनी लाड़ली को साथ लेकर दिल्ली आ गए थे। श्रुति को पुरुष जाति से ही घृणा होने लगी थी। एक ओर वे दरिंदे और दूसरी ओर विवाह के बंधन में बंधा उसका अपना पति। आखिर किस पर विश्वास करे।

दिन व्यतीत होते जा रहे थे। उसे माता विनोदिनी, पिता श्यामशरण व अन्य लोग समझाते, पर उसकी मानसिक पीड़ा घनीभूत होती जाती। डॉक्टरों ने जैसे-तैसे इलाज के बाद उसमें प्राण तो फूंक दिए थे, पर मन को वे न जिला सके थे।

वह जिंदा लाश सी अपने कमरे में पड़ी रहती। जिसके तन- मन को किसी ने घोर यातना देकर लूट लिया हो, उस पीड़िता के लिए उसका अस्तित्व ही छिन्न भिन्न हो जाता है। वह अपने अस्तित्व को ही निरर्थक, हीन और तुच्छ समझ बैठती है। यही हाल श्रुति का हो गया था।

उसकी माता विनोदिनी, पिता श्यामशरण बहुत दुखी थे। वे उसे समझाते पर नतीजा कुछ न निकलता। वे उसे मनोचिकित्सक के पास भी लेकर गए, पर श्रुति के मन के घावों पर उनके परामर्श का मरहम कोई काम न करता। एक दिन श्रुति के पिता श्यामशरण जी ने कहा था, बेटा, यदि कोई गटर में गिर जाए, तो क्या जीवन जीना छोड़ देगा? क्या उस गंदगी को अपने तन और मन से चिपकाए बैठा रहेगा? तू सोच, बेटी। नई खुशहाल जिंदगी जी। तू भूल जा वे सारी बातें, सोच ले कोई बुरा स्वप्न था।

श्रुति की मां विनोदिनी ने भी कहा , कोई यदि गलत काम करे तो, उसका दोषी वह स्वयं होता है। उसकी दोषी पीड़िता नहीं होती बेटी? ऐसे में लड़कियों को दोषी ठहराना सर्वथा अनुचित है। यदि कोई व्यक्ति या समाज ऐसा मानता है, तो हमें उसे बदलना ही होगा। हम सबसे मिलकर ही तो समाज बनता है बेटी। आज लड़कियों को हिम्मत से काम लेना होगा।

माता-पिता का चिंतित चेहरा उसे आज भी याद आ रहा था। कितने बेबस और लाचार थे। एक तो बेटी के साथ इतनी बड़ी दुर्घटना हुई, उस पर समाज के कुछ लोग संवेदनात्मक स्वर में पूछते , बहन जी, यह सब कैसे हो गया? कौन था? कैसे उसने बिटिया को पकड़ लिया? आदि आदि। माता-पिता ऐसे प्रश्नों के उत्तर देते देते थक गए थे। कुछ लोग तो इन जानकारियों को चटकारे के साथ दूसरों के सामने परोस रहे थे। वे श्रुति को ही ताना देकर बदनाम कर रहे थे। उसके मां-बाप को लगता समाज कब बेटियों के प्रति संवेदनशील बनेगा।

इस स्वार्थी दुनिया में नेता हो, धर्माधिकारी हो, मीडिया हो, सब अपने फायदे के लिए बेटी के साथ हुई दुर्घटना का लाभ उठाने को तैयार हो जाते हैं। वे अपने लाभ के लिए बलात्कारियों को सही सिद्ध करने से भी नहीं कतराते। बच्चों से गलती हो जाती है। कहकर उनके रक्षक तक बन जाते हैं। कुछ मोमबत्ती जलाकर अपने एन. जी. ओ. का नाम बढ़ाने के लिए झूठी सहानुभूति दिखाने आ जाते हैं। आखिर माता-पिता किस-किस को सफाई दें।

अचानक श्रुति की यादों में अपने कॉलेज के मित्र अमित एवं उसकी पत्नी वृंदा का चेहरा उभर आया था। अमित एवं वृंदा की याद आते ही वह कुछ सम्भली। यदि अमित और वृंदा उसे नई दिशा न देते तो शायद वह कभी ठीक भी न हो पाती।

उस घटना के लगभग एक साल बाद एक दिन अमित और वृंदा मुम्बई से उसके घर आए थे। अमित को देखकर श्रुति उसे अपना दुःख बताकर रोना चाहती थी, पर उसकी पत्नी को साथ देखकर ठिठक सी गई। अमित ने सब कुछ जानते हुए भी उससे दुर्घटना का कोई जिक्र ही नहीं किया। मानो कुछ हुआ ही न हो। उसने अपने हंसमुख स्वभाव से वातावरण में जान फूंक दी थी। अमित ने बड़े सम्मान से श्रुति से कहा, यार, हमारे विवाह का तोहफा तो बनता है। श्रुति ने उदास मन से कहा, बोलो, क्या तोहफ़ा दूं?

तभी वृंदा ने कहा, अमित ने मुझे बताया है कि तुम बहुत ही मधुर गाती हो। गीत और कविताओं को स्वरबद्ध करने में तो तुम निपुण हो।

अरे अब कहां? यह सब तो कॉलेज के समय की बात हैं। शादी के बाद तो मैंने न गाना गाया न कोई प्ले किया। श्रुति ने उत्तर दिया।

अमित ने कहा, तो क्या हुआ श्रुति, नहीं किया, तो अब तुम्हें करना है। वृंदा चाहती है कि तुम उसके द्वारा महा शृंगार छंद में लिखे प्रेम गीत को स्वरबद्ध करो और अपनी मधुर आवाज में गाकर एलबम तैयार करो। भला इससे अच्छा हमारे लिए विवाह क्या उपहार हो सकता है?

श्रुति का मन तो नहीं था, पर अपने प्रिय मित्र और उसकी पत्नी वृंदा के आग्रह को वह टाल न सकी। उसने वृंदा के लिखे गीत को जब स्वरबद्ध किया तो वृंदा की लेखनी में चार चांद लग गए। जब उसका एलबम तैयार हुआ तो वृंदा एवं श्रुति दोनों को ही समाज में विशेष सम्मान मिला। अमित और वृंदा श्रुति को उन कड़वी यादों से निकालकर संगीत की दुनिया में ले जाना चाहते थे। साहित्य, संगीत और कला में वह ताकत होती है जो बड़े से बड़े दुःख भुला देती है। अमित और वृंदा श्रुति के लिए नए नए कार्यक्रम आयोजित करते। धीरे धीरे न जाने कब श्रुति अपने पुराने रूप में उभरने लगी। संगीत के प्रति उसका जुनून बढ़ता ही गया।

एक दिन श्यामशरण जी बोले, श्रुति मैं तुम्हारे लिए म्यूजिक स्टूडियो बनाना चाहता हूं।

पिता की बात सुनकर श्रुति खुश हो गयी थी। उसका स्टूडियो बना। संगीत ही उसका जीवन था। वह संगीत सिखाती, नए नए एलबम बनाती। उसके गाये हुए गीतों की बाजार में धूम सी मच गयी थी। हर एक की जुबां पर उसके गीत होते। उसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

अमित और वृंदा के विश्वास, सुलझी हुई सोच और निस्वार्थ, प्रेम ने श्रुति की संगीत साधना एवं प्रतिभा को जगाकर उसमें आत्मसम्मान की अनंत शक्ति का संचार कर दिया था। जब अपने मित्र के द्वारा सम्मान, प्रेम, विश्वास मिलता है, तब दुख का घोर तिमिर स्वयं ही नष्ट होने लगता है। श्रुति के जीवन में संगीत के नए रंग भरने शुरू हो गए थे। अचानक घड़ी ने आठ घंटे बजाये। श्रुति अपने विचारों की दुनिया से निकल संगीत साधना में लीन होने के लिए उठ गयी।

संगीत के मधुर स्वरों ने उसके जीवन की काली स्याह रात के तिमिर को दूर भगाकर भोर के उजाले से उसका जीवन आनंदमय कर दिया था।

 

सुनीता माहेश्वरी

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