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महाराष्ट्र का विकास  हिंदीभाषियों के साथ

महाराष्ट्र का विकास हिंदीभाषियों के साथ

by धर्मेन्द्र पाण्डेय
in भारत विकास विशेषांक - जुलाई २०१८, सामाजिक
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मायानगरी मुंबई की खासियत है कि यहां जो आता है, यहीं का होकर रह जाता है। उत्तर भारतीय भी यहां की आबोहवा में इतने विलीन हो चुके हैं कि परायापन कब विदा हो चुका यह उन्हें भी पता नहीं चला। मुंबई ने उन्हें बहुत कुछ दिया और उन्होंने भी मुंबई को अपनी मेहनत से खूब दिया। शेष महाराष्ट्र में भी इससे जुदा स्थिति नहीं है।

मुंबई के उपनगरीय भागों से लेकर ठाणे, पालघर, डहाणू, डोंबिवली, कल्याण से होते हुए अंबरनाथ-बदलापुर तक की ज्यादातर विधान सभा और लोकसभा सीटों पर हिंदीभाषी मतदाता काफी महत्व रखते हैं। इसके अलवा महाराष्ट्र के नागपुर, नाशिक, जलगांव, जालना, औरंगाबाद समेत कई जिलों की लगभग 60 से 65 सीटों पर हिंदीभाषी मतदाताओं की संख्या काफी बड़ी है जिनमें से ज्यादातर सीटों पर वे बड़ी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। लगभग हर राजनीतिक दल इस समुदाय के मतों को अपनी तरफ करने की कोशिश करता है। वे निर्णायक भूमिका भी अदा करते हैं। राज्य के सभी प्रमुख दलों भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी ने हिंदीभाषियों को प्रमुख पदों पर स्थान दिया है। कांग्रेस के चरम दिनों में आर.आर. सिंह मुंबई के मेयर रह चुके हैं। भाजपा शिवसेना के कब्जे के बाद राहुल देव और विद्या ठाकुर जैसे नेता भाजपा के कोटे से उप महापौर पद को सुशोभित कर चुके हैं। राज्य के मंत्रिमंडल की बात करें तो प्रख्यात भाषाविद्, साहित्यकार और राजनेता डॉ. राममनोहर त्रिपाठी, कृपाशंकर सिंह, चंद्रकांत त्रिपाठी, आरिफ नसीम खान, राज पुरोहित, बाबा सिद्दिकी, नवाब मलिक, विद्या ठाकुर समेत तमाम नेता समय-समय पर राज्य के विभिन्न मंत्रिमंडलों का हिस्सा रहे हैं।

करुणाशंकर उपाध्याय – हिंदी भाषा विशेषज्ञ

महाराष्ट्र, खासकर मुंबई के साहित्यिक परिवेश में इतना लम्बा समय गुजार चुका हूं। मुंबई विश्वविद्यालय में शिक्षण के दौरान भी और जीवन क्षेत्र में भी कभी कोई ऐसा क्षण नहीं आया जब एक हिंदीभाषी होने के कारण दोयम दर्जे का महसूस होना पड़ा हो। वर्तमान सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में काफी काम किया है और लगातार करते जा रहे हैं। हमारे शहर की सबसे बड़ी समस्या यातायात रही है। उससे मुक्ति दिलाने की दिशा में वर्तमान सरकार ने काफी काम किया है जिसके परिणाम आने वाले दिनों में दिखाई देंगे। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में और कार्य किए जाने की आवश्यकता है। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के पास अपना भवन नहीं है। उस दिशा में कार्य किए जाने की आवश्यकता है। इस राज्य के लोगों को देवेंद्र फडणवीस सरकार से काफी उम्मीदें हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि वे उम्मीदों पर खरे उतरेंगे। 

पूर्व सांसद रमेश दुबे का भी कभी व्यापक जनाधार रहा है। घनश्याम दुबे शिवसेना के विधान परिषद सदस्य रहे हैं। डी. पी. त्रिपाठी एनसीपी के कोटे से लगातार राज्यसभा जाते रहे हैं। पत्रकार से राजनेता बने प्रेम शुक्ल का अपना एक अलग वर्चस्व, प्रशंसक वर्ग और राष्ट्रीय स्तर का जनाधार है। मुंबई कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष संजय निरुपम भी एक बड़े और कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि मुंबई की इस पुण्य भूमि ने हिंदीभाषियों को उनकी मेहनत का भरपूर प्रतिसाद भी दिया है। यहां तक कि घोर हिंदीभाषा भाषी विरोधी पार्टी मानी जाने वाली मनसे के उपाध्यक्ष और प्रवक्ता वागीश सारस्वत भी एक हिंदीभाषी हैं।

अपनी मेहनत और मराठीभाषियों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर हिंदीभाषियों ने महाराष्ट्र की धरती के आर्थिक पक्ष को सुदृढ़ करने में भरपूर सहयोग दिया है। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ल के अनुसार, ‘मुंबई सारे भारतीयों के लिए व्यापार, उद्योजकता और वाणिज्य का केंद्र रहा है। पूरे उत्तर भारत खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के वंचित लोगों ने सबसे पहले महाराष्ट्र को अपनी कर्मभूमि बनाया और यहां के कमाए पैसे का ‘मनीआर्डर‘ भेजकर अपने परिवार और क्षेत्र के विकास में भरपूर योगदान दिया। उस समय का मनीआर्डर आज के पेटीएम व आरटीजीएस का ही पुरातन रूप था।

रवि किशन – फिल्म अभिनेता

मैंने मुंबई शहर में काफी लम्बा संघर्ष कर अब तक का मुकाम पाया है। इस दौरान मैंने जीवन के हर क्षेत्र में देखा कि यहां के लोगों का हिंदीभाषियों के प्रति काफी प्रेम रहा है। हिंदीभाषी उनके दैनंदिन की छोटी-मोटी हर जरूरत की चीजें जैसे दूध, सब्जी, अखबार वगैरह मुहैया कराए जाने के विकल्प बनते हैं। यहां की भाषाई एकात्मता देखकर काफी हर्ष होता है। अगर राजनैतिक स्थिति की बात करें तो कांग्रेस ने आम उत्तर भारतीय को हमेशा हाशिए पर रखने की कोशिश की; पर भाजपा ने हमेशा ही उनके महत्व को परखा और उनकी समस्याओं को हल करने की सार्थक कोशिश की। हिंदीभाषी समाज काफी कर्मठ, संतोषी और मिलनसार होता है तथा लोगों के प्रति आदर भाव रखते हैं इसलिए वे हर माहौल में समाहित हो जाते हैं। यहां भी वे मराठी समेत देश के हर समुदाय के साथ घुल मिलकर रहते आए हैं।

महाराष्ट्र ने हिंदीभाषियों को स्वीकारा और भरपूर समृद्धि दी। पिछली चार से पांच पीढ़ियों से हिंदीभाषी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मुंबई ने एक सम्बल प्रदान किया है। इसका एक बड़ा परिणाम यह रहा कि मुंबई में उत्तर भारतीय संस्कृति का बहुत बड़ा प्रभाव रहा है। हिंदीभाषियों की कहें या सम्पूर्ण भारतीयों की, एक खासियत रही है, ये जहां गए वहां की संस्कृति को तो अपनाया ही पर अपनी भी अमिट छाप छोड़ी। मुंबई का मदनपुरा मूलतः बनारस के मदनपुरा से प्रेरित है। दादर में काशी विश्वेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर हैं। हमें मुंबई ने खूब स्वीकारा और इस शहर ने उत्तर भारत का खूब पेट भरा। मुंबई शहर के निर्माण और विकास में हिंदीभाषियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आज भी शहर की दूध और सब्जी जैसी दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं उत्तर भारतीयों के अथक श्रम की बदौलत ही मुंबईकरों तक अच्छी तरह पहुंच पा रही हैं। मुंबई ने हिंदीभाषियों और हिंदीभाषियों ने मुंबई को खूब दिया है। हिंदीभाषियों का मुंबई में बसना, रचना और इसे स्वीकारना श्रम संस्कृति और शौर्य संस्कृति का अद्भुत संगम है।’

अर्थात् इस शहर और यहां पर हिंदीभाषियों के दोयम दर्जे को लेकर भले ही तमाम अफवाहें उड़ाई जाएं लेकिन जमीनी हकीकत एकदम उलट है। यहां हिंदीभाषा भाषी अपने जीवन मूल्यों एवं आदर्शों का पूर्ण निर्वहन करने में सक्षम हैं और उन्हें स्थानीय भूमिपूत्रों की ओर से भरपूर सहयोग मिलता रहा है। एकाध बार दोनों तरफ से कुछ अराजक तत्वों ने माहौल बिगाड़ने की कोशिश की पर इस शहर की आबोहवा ही कुछ ऐसी है कि यहां नफरत बहुत ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह पाती, जल्दी ही दम तोड़ देती है।

आर. एन. सिंह – अध्यक्ष, उत्तर भारतीय संघ

इस राज्य ने हिंदीभाषियों को बहुत कुछ दिया है। अगर हम हिंदी भाषियों की यहां की स्थिति की बात करें तो बाकी राज्यों के लोग तो काफी संगठित हैं पर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग काफी बिखरे हुए हैं। यहां की सरकार ने उत्तर भारतीयों की संस्था ‘उत्तर भारतीय संघ‘ के लिए जमीन दी। जब मैं अध्यक्ष बना तो उस जमीन पर भवन बनवाया। हमारे समाज के लोग इतने निष्क्रिय हैं कि वे संस्थाओं के सदस्य भी नहीं बनते। यह समुदाय खुद तो कमाता है पर समाज के लिए कुछ नहीं करता। वर्तमान सरकार हिंदीभाषियों के लिए कार्य करने के लिए हमेशा तत्पर रहती है। कई बार ऐसा हुआ है कि मेेरे पास कोई व्यक्ति समस्या लेकर आता है और मैं उसको लेकर सम्बंधित लोगों को फोन करता हूं। तुरंत कार्य हो जाता है। अब हिंदीभाषियों के मन में भाजपा की जड़ें काफी गहरे समा चुकी है। आर. एन. सिंह – अध्यक्ष, उत्तर भारतीय संघ

एक खास कालखंड को छोड़ दें तो यहां का भाषाई सौहार्द्र काफी दोस्ताना रहा है। उस समय मनसे के अराजक तत्वों ने मुंबई और नाशिक में ठेले, खोमचे और सब्जीवालों को कुछ दिनों तक काफी हद तक दहशत के माहौल में रखा। तत्कालीन सरकार की निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता का भी काफी बड़ा योगदान रहा। राजनीतिक गलियारों में यह अफवाह भी उड़ती रही कि तत्कालीन कांग्रेसनीत सरकार के कुछ महानुभावों और एक उत्तर भारतीय नेता की शह पर यह असंवैधानिक कार्य किया गया। इस अफवाह को तब और बल मिला जब 2014 के लोकसभा और राज्य विधान सभा चुनावों में बुरी तरह हारने के बाद मनसे ने 2015 में वही काठ की हांडी फिर चढ़ाने की कोशिश की। पर यह उनकी एक बड़ी भूल साबित हुई राज्य में निजाम बदलने के साथ ही साथ सामाजिक हवा भी बदल चुकी थी। इस बार उत्तर भारतीय खोमचे वालों ने उनका प्रतिकार करना प्रारम्भ किया। कारण साफ है। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वर्तमान भाजपानीत सरकार उन्हें पूर्ण सहयोग देगी। उनका यह विश्वास गलत नहीं था।

मुंबई ही नहीं, उसके आसपास के सटे क्षेत्रों को देशभर के मानव श्रमबल ने अपने सीकर से सींचकर इतना उर्वर बना दिया है कि अकर्मण्यता भी असहिष्णुता एवं नफरत की ही भांति अल्पकाल में काल गवलित हो जाती है। आप अनपढ़ हों या उच्च शिक्षित, अमानुषिक ताकत के धनी हों या साधारण डीलडौल वाले तुच्छ मानव, मायानगरी के स्वर्णमृग की लालसा में हों या महात्वाकांक्षाविहीन शांत जीवन जीवन जीने की आशा रखने वाले; यह क्षेत्र आपको उसी प्रकार अपने अंदर समेटकर आर्थिक-धार्मिक-सांस्कृतिक सुरक्षा देता है जैसे कोई चिड़िया अपने डैने में अपने चूजों को छिपा लेती है। इस उर्वरा भूमि की इसी खासियत को उत्तर प्रदेश में कुछ यूं बयां किया जाता है कि, सोनपुर के मेले से फिरा बर्द और मुंबई से फिरा मर्द किसी काम का नहीं। अर्थात् एशिया के सबसे बड़े पशु मेले सोनपुर से बिना बिके वापस आ जाने वाले बर्द (बैल) और मुंबई से बिना आजीविका पाए वापस आ जाने वाले मर्द किसी काम के नहीं, भविष्यहीन होते हैं।

कुमार बिहारी पाण्डेय- उद्योगपति

इस शहर की आत्मीयता और उर्वरा शक्ति और मातृत्व भाव का मैं एक जीता जागता उदाहरण हूं। चौदह पंद्रह साल की उम्र में जब मैं इस शहर में आया था तब नई-नई आजादी मिली थी। तब भी यह देश की आर्थिक राजधानी थी। मेरे जैसे अनपढ़ और निपट गंवार को इस राज्य में इतना कुछ मिला। इसके पीछे मैं मां नारायणी, मुंबादेवी और इस शहर के मूल निवासियों के मैत्री और सहयोगी भाव को श्रेय देता हूं। कुछ लोग भले ही कभी-कभार यहां की हवा को दूषित करने का प्रयास करें पर यहां के समावेशी परिवेश में उसका अस्तित्व बहुत लम्बे समय तक नहीं रह पाता है। इस शहर की प्रवृत्ति है कि यह सबको अपने अंदर समेट लेती है पर अब इसके सीने पर कुछ ज्यादा ही बोझ लदा हुआ लगता है। पुरानी सरकारों ने इस दिशा में उतना तीव्र कार्य नहीं किया जितना तेज कार्य वर्तमान केंद्र और राज्य सरकार कर रही है। शहर बहुत तेजी से फैल रहा है। और तेज फैलाव की आवश्यकता है। साथ ही अन्य राज्यों में भी रोजगार के उचित साधन उपलब्ध कराए जाएं ताकि इस शहर का बोझ कम हो। 

हम किसी क्षेत्र विशेष में जाकर नौकरी व्यापार आदि करते हैं तो साथ ही साथ उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक व राजनीतिक मनोवृत्तियों से भी दो चार होते हैं। लगातार बदली वाली नौकरी करने वाले कर्मचारियों पर यह नियम पूरी तरह लागू नहीं होता है। बेंगलुरू, जमशेदनगर जैसे शहर इस मामले में छूट पा जाते हैं क्योंकि वहां नौकरी करने वाले लोग किसी फील्ड विशेष में मातहत होते हैं। जीवन के अन्य क्षेत्रों से पूरी तरह अछूते। पर मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों की मानवीय बुनावट इतनी विस्तृत, जटिल और बहुआयामी होती है कि आबादी का एक खास प्रतिशत होने के बाद आप यहां की राजनीतिक अथवा सामाजिक भागीदारी से भाग नहीं सकते। ठीक यही मुंबई में हुआ।

आज आपको बहुत सारे हिंदीभाषी मिल जाएंगे जो पांच छः पीढ़ियों से यहां के बाशिंदे हैं तथा पूरी तरह मुंबईकर (हमारे गांव की जबान में कहें तो ‘बंबइया’) हो चुके हैं। जिस प्रकार यहां के जीवन के छोटे से लेकर बड़े पदों तक हिंदीभाषियों का अच्छा खासा वर्चस्व देखने को मिलता है उसी प्रकार हर राजनीतिक दल में सामान्य स्तर से लेकर बड़े पदाधिकारी मिल जाएंगे। जैसा कि मैंने ऊपर कहा, मनसे जैसी हिंदीभाषी विरोधी कही जाने वाली पार्टी में भी।

सुरेश मिश्र – महासचिव, महाराष्ट्र रामलीला समिति

इतने लम्बे समय से मेरे परिवार की तीन पीढ़ियां आजाद मैदान में रामलीला का आयोजन करवाती रही हैं। हमारी कमेटी में महाराष्ट्रियन, दक्षिण भारतीय, मुसलमान समेत सभी समुदायों के सदस्य हैं पर कभी हमें किसी प्रकार की समस्या नहीं आई। प्रशासनिक समस्याएं आती हैं पर वे विशेष तौर पर हमारे लिए आती हैं, ऐसा नहीं है। हमें हमेशा ही मराठी समुदाय का स्नेह व आशीर्वाद मिलता रहा है। समय के साथ यहां हिंदीभाषियों ने आर्थिक व सामाजिक स्तर पर तो बढ़ोत्तरी की पर दिन-ब-दिन उनमें आपसी बिखराव होता गया। आज हिंदीभाषी समाज के पास नेतृत्व की कमी है। शायद इसीलिए ज्यादातर सरकारों ने इनका चुनावी उपयोग मात्र किया। पर वर्तमान मुख्यमंत्री ने उन्हें सम्मानजनक भाव दिया और उनकी समस्याओं पर ध्यान देने की कोशिश की है। यह हिंदीभाषियों के लिए बड़ी अच्छी बात है। सुरेश मिश्र – महासचिव, महाराष्ट्र रामलीला समिति

ऐसा नहीं है कि उत्तर भारतीयों का यह प्रभाव केवल मुंबई एवं उसके आसपास तक ही सीमित रहा बल्कि जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, राज्य की लगभग एक चौथाई विधान सभा सीटों पर वे निर्णायक भूमिका अदा कर रहे हैं। राज्य के सुदूर क्षेत्रों तक वे फैले हुए हैं। पर मुंबई और उसके आसपास के क्षेत्रों के बाद विदर्भ क्षेत्र उन्हें ज्यादा रास आया क्योंकि वह भूभाग मध्यप्रदेश से लगा होने के कारण वहां गांव देहातों में हिंदी समझने व बोलने वाले बहुतायत में मिल जाते थे। उस क्षेत्र में आपको बहुत बड़ी संख्या में खेतिहर हिंदीभाषी किसान मिल सकते हैं।

अब अगर हम लोगों के झुकाव की बात करें तो अस्सी के दशक तक देश के अन्य भागों की ही भांति यहां के हिंदीभाषियों के बीच कांग्रेस का एकमेव प्रभाव रहा था। अगर कुछ अलग शब्दों में कहें तो कांगे्रसी नेता इस एकमुश्त वोटबैंक को अपनी बपौती समझते थे। पर समय के साथ बदलाव आया, खासकर 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी ढांचे के ढहने के बाद। पूरे देश में भाजपा की लहर चल पड़ी। स्वाभाविक सी बात है। इसका प्रभाव मुंबई और महाराष्ट्र पर भी पड़ा। 1994 में भाजपा-शिवसेना राज्य की सत्ता में आई पर महानगरपालिका की ही भांति यहां पर भी भाजपा की भूमिका छोटे भाई की ही रही। अर्थात् वह पूरी तरह शिवसेना की सरकार बनकर रह गई। नतीजतन, एक तरफ जहां पूरे देश में भाजपा और अटल हवा चल रही थी वहीं महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन हो गया जो लगभग एक दशक तक रहा।

ओमप्रकाश शर्मा- भाजपा नेता

महाराष्ट्र में एक हिंदीभाषी होने के अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी। गैर हिंदीभाषी राज्य होते हुए भी हिंदीभाषियों की इतनी बड़ी संख्या और जीवन के ज्यादातर पहलुओं का भाग होने के कारण ही यहां का हर नागरिक राष्ट्रभाषा हिंदी का भरपूर जानकार हो जाता है। पर गैर मराठियों के खिलाफ होने वाले किसी भी आंदोलन का सीधा असर भी सबसे पहले इन्हीं पर पड़ता है क्योंकि इनका परिवेशात्मक दखल समाज के हर भाग में होता है। अब यहां पर उत्तर भारतीय पचास से ज्यादा सीटों पर इस स्थिति में हो चुके हैं कि किसी भी चुनाव का पासा बदल सकते हैं इसलिए यहां की सरकारों द्वारा इनके लिए काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है। वैसे वर्तमान सरकार इस दिशा में काफी सार्थक कार्य कर रही है। देवेंद्र फडणवीस के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वे विदर्भ के हैं। नागपुर में आपको मराठीभाषियों से कम हिंदीभाषी नहीं मिलेंगे। इसीलिए उन्हें हिंदीभाषियों की समस्याओं का काफी अच्छे ढंग से पता है। वैसे भी हिंदीभाषियों ने कभी अतिरिक्त की मांग नहीं की। उन्हें वर्तमान सरकार से काफी अपेक्षाएं थीं जिस पर यह सरकार खरी उतर रही है।

आखिर, 2014 में मोदी लहर पर सवार होकर एक बार फिर भाजपा सत्ता के नजदीक पहुंच गई। उस चुनाव की खासियत रही कि 25 सालों से बड़े भाई की भूमिका में रही शिवसेना ने 25 सितम्बर को अलग राह पकड़ ली थी। 22 ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली शिवसेना को भाजपा की अपेक्षा आधी सीटों से संतोष करना पड़ा था। यदि मुंबई और आसपास के इलाकों पर नजर डालें तो हिंदीभाषी बहुल इलाकों में भाजपा का पलड़ा भारी रहा। उससे ठीक पहले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा-शिवसेना गठबंधन की तूती बोली थी। यहां तक कि उत्तर मुंबई संसदीय सीट से गोपाल शेट्टी ने कांग्रेस के कद्दावर नेता माने जा रहे निरुपम को चार लाख छियालीस हजार से अधिक मतों से परास्त किया था। शेट्टी को 70% से अधिक वोट मिले थे। जाहिर सी बात है कि इस जीत के पीछे क्षेत्र के हिंदीभाषियों का एकमुश्त वोट भाजपा के पक्ष में गिरना था।

कुछ ऐसा ही आगे चलकर विधान सभा चुनाव में अजेय मानी जानेवाली गोरेगांव विधान सभा सीट पर हुआ। शिवसेना के पक्ष में जाने वाले उत्तर भारतीय वोट पूरी तरह भाजपा की झोली में गिरे। भले ही विद्या ठाकुर और सुभाष देसाई के बीच 3% मतों का ही अंतर था लेकिन देसाई का मत प्रतिशत 14 प्रतिशत गिरा था। यह तब हुआ था जबकि मनसे पूरी तरह कमजोर हो चुकी थी। जहां 2009 में मनसे प्रत्याशी को 25 हजार से अधिक मत मिले थे वहीं 2014 में उसका मतों का योग सिमट कर 6 हजार के करीब पहुंच गया था। सबको पता है कि मनसे शिवसेना के ही कैडर मतों में सेंध लगाती रही है। इस बार शिवसेना ने अपने मतों पर दोबारा अधिकार जमा लिया था पर भाजपा की वजह से उसकी झोली में गिरने वाले वोट अपनी जगह पर स्थिर रहे। कुल मिलाकर हिंदीभाषी मत एकमुश्त भाजपा की झोली में गिरते रहे हैं।

एड. विजय सिंह- अध्यक्ष, हमलोग

‘हमलोग‘ संस्था के माध्यम से मुंबई शहर और महाराष्ट्र राज्य की बहुसंख्यक जनता के निरंतर सम्पर्क में रहा  हूं। यहां हिंदीभाषी समाज की निरंतर प्रगति काफी अच्छी रही है। इस शहर की तासीर ही ऐसी है कि इसने देश के हर राज्य के नागरिकों को अपने में समाहित कर उन्हें प्रगति के मार्ग पर अग्रसर किया है। दूसरे शब्दों में इसे आप मुंबादेवी का आशीर्वाद भी मान सकते हैं। हमारे पूर्वज भले ही एक प्रवासी के तौर पर यहां आए पर अपने श्रम और यहां के मूल निवासियों के प्रेम के वशीभूत होकर यहां की मिट्टी का एक भाग हो चुके हैं। अब यह शहर हमारा है और हम इस शहर के हैं। वैसे एक बड़ी समस्या है कि बहुत सारे हिंदीभाषी मतदाता बनने की योग्यता रखते हैं पर उनका नाम मतदाता सूची में दर्ज नहीं हो पाता। इस दिशा में व्यापक कार्य किए जाने की आवश्यकता है और वर्तमान सरकार से काफी उम्मीदें भी हैं। यह शहर देश को जितना कुछ दे रहा है, उस अनुपात में इस शहर को नहीं मिल पाता। सरकारों को इस पर भी ध्यान देना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर काफी कार्य किया गया है पर यहां की जनसंख्या को देखते हुए यह नाकाफी है। 

कुछ वैसा ही माहौल पिछले दिनों पालघर संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में हुआ। दिवंगत भाजपा सांसद चिंतामण वनगा के बेटे श्रीनिवास वनगा को शिवसेना ने अपने पाले में खींचकर सहानुभूति लेने की कोशिश की। मौका कमजोर होते दिखने पर तीखी बयानबाजी भी की। बहुजन विकास आघाडी के उम्मीदवार ने भी क्षेत्र विशेष में कड़ी टक्कर दी पर हिंदीभाषियों के बहुसंख्यक मतों की बदौलत बाजी भाजपा के हाथ रही। मराठी मतों का जमकर बंटवारा हुआ पर हिंदीभाषियों के वोट एकमुश्त भाजपा की झोली में गिरे। मुंबई और आसपास के क्षेत्रों में यही भाजपा की ताकत है जिसे 2019 तक बनाए रखना उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी और शायद सबसे आसान कार्य भी।

पिछले चुनाव में जनसम्पर्क अभियान ने भाजपा की चुनावी तैयारी को नई ऊंचाइयां दी थीं। इस बार भी मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिए बूथ प्रबंधन पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। भाजपा के समर्थकों में वोटिंग को लेकर लगातार उत्साह की कमी दर्ज की जा रही है जिस पर रोकथाम किए जाने की नितांत आवश्यकता है। अगर पालघर उपचुनाव की बात करें तो वहां मात्र 53 प्रतिशत वोट पड़े हैं। भाजपा के मतों वाले क्षेत्रों में उच्च वर्ग के लोग घरों से कम निकले। 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर आगे के ज्यादातर चुनावों में बूथ प्रबंधन और पन्ना प्रमुखों की रणनीति काफी कारगर दिखी थी जो कि पिछले कुछ चुनावों में कमजोर रही है। शायद यही कारण रहा कि पिछले साल राजस्थान के अलवर में हुए उपचुनाव में कुछ बूथ ऐसे भी थे जहां भाजपा को एक भी वोट नहीं मिला।

मुस्लिमों के लिए भाजपा हमेशा से ही एक अछूत पार्टी रही है इसलिए उस वर्ग से किसी बड़ी उम्मीद की आशा बेमानी रहेगी। वैसे धीरे-धीरे राष्ट्रवादी मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ रहा है पर इसे कैडर मत बनने में समय लगेगा। हम आजादी के बाद के इतिहास पर नजर डालें तो लगातार सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम मतों के बल पर राज्य करती रही है। बाकी के दलों का भी अपना एक कैडर वोट रहा है। इन्हीं कैडर मतों में इधर-उधर कर सभी दल सत्ता का स्वाद चखते रहे थे। पर 2014 में पहली बार हुआ कि किसी राजनीतिक दल को समाज के लगभग हर दल से मत प्राप्त हुए। भाजपा को अपनी उसी छवि को बचाए रखना होगा जो कि एक चुनौती भी होगी भाजपा के लिए। पिछड़े व दलित वर्ग को नहीं लगे कि यह तो अगड़ों की पार्टी रही है, हम उपेक्षित हैं तथा पार्टी के पुराने वोटबैंक को भी नहीं लगना चाहिए कि वर्तमान व्यवस्था में उनकी पूछ घट गई है।

प्रेम शुक्ल- राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा

इस शहर में किसी वर्ग विशेष के लिए अलग समस्या नहीं रही है। बीच में अल्पकाल के लिए आपसी सौहार्द्र बिगाड़ने की कोशिश हुई पर वर्तमान सरकार के आने के पश्चात् असामाजिक तत्वों को अपनी क्षमता का पता चल गया। हिंदीभाषियों के विरोध की राजनीति करने वाले राज ठाकरे आज अप्रासंगिक हो गए हैं। यह वर्तमान सरकार के हिंदीभाषियों के प्रति दृढ़ अपनत्व का ही परिणाम है। हर आम महाराष्ट्रवासी की छोटी से छोटी समस्या का वर्तमान मुख्यमंत्री समाधान करने के लिए तत्पर रहते हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश का कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां जातिगत राजनीति न होती रही हो। पर यह अनुमान लगाना गलत है कि हिंदीभाषी क्षेत्र की जातिगत राजनीति यहां पर भी प्रभाव छोड़ती है। मायावती ने बहुत कोशिश की पर वे न्यूनतम प्रभाव ला पाईं। समाजवादी पार्टी यहां आकर मुस्लिम लीग बन जाती है। यादव बंधुओं में भी प्रभाव नहीं छोड़ पाती है। वैसे भी शहरीकरण के प्रभाव में आते ही जातिगत राजनीति दम तोड़ देती है। मुंबई ही नहीं महाराष्ट्र के अन्य कई जिलों में हिंदीभाषी समाज अपने श्रम और लोगों के साथ समन्वय की कला के चलते अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहा है। शिक्षित और साम्प्रदायिक विचारधारा वाले मुसलमानों का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ रहा है। सीएसडीएस जैसे बड़ी एजेंसी ने अपने सर्वे में कहा था कि 2014 के चुनावों में दस प्रतिशत मुसलमानों ने भाजपा के पक्ष में अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। गुजरात के 22 फीसदी मुसलमान स्थानीय निकाय, विधान सभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा को वोट देते हैं। मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में राष्ट्रवादी विचार वाले मुसलमानों की संख्या काफी है जो भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। ‘सबका साथ-सबका विकास‘ में मुसलमान भी उतने ही लाभान्वित हुए हैं, जितने अन्य लोग। 

कुछ यही भाव मुंबई के हिंदीभाषियों के लिए भी होना चाहिए क्योंकि काफी समय से इस राज्य में यह वर्ग हमेशा से भाजपा का कैडर वोट रहा है। इस वर्ग को कहीं से भी नहीं लगना चाहिए कि उन्हें सब्जी के तेजपत्ते की तरह प्रयोग किया जा रहा है। गौरतलब है कि किसी भी सब्जी को सुगंधित बनाने के लिए छौंकते समय सबसे पहले तेज में तेजपत्ता ही डाला जाता है पर उपयोग करते समय वह डस्टबिन का हिस्सा होता है। कुछ लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे हिंदीभाषी राज्यों में होने वाले चुनावी समीकरणों को महाराष्ट्र के हिंदीभाषी मतों के संदर्भ से भी जोड़कर देखते हैं जो सर्वथा गलत है। यह सच है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों के अपने समर्पित जातिगत वोट हैं।

मुसलमान अपने हिसाब से भाजपा को हराने में सक्षम प्रत्याशी की ओर झुक जाते हैं। मुसलमान मतों का यह भाव देश भर में है। वहां पर वे चाहे प्रवासी हों या स्थानीय। पर बाकी लोगों के लिए ऐसा नहीं है। एक उत्तर भारतीय ब्राह्मण, राजपूत, बनिया, यादव, कुर्मी या दलित वहां से बाहर जाने के बाद उत्तर भारतीय हो जाता है। यह कुछ-कुछ देश के बाहर जाने पर अलग-अलग राज्यों के भारतीयों के मन में उठने वाले भाव सा ही होता है। चूंकि उनके कैडर वोट वाली पार्टी का यहां कोई अस्तित्व नहीं है इसलिए उन्हें दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में से किसी एक को ही चुनना होता है। उत्तर प्रदेश व बिहार में कांग्रेस वेंटिलेटर पर है। कांग्रेस का यहां पर भी खिसकता जनाधार उन्हें उससे विमुख करता जा रहा है, अतः विकल्प के तौर पर भाजपा ही बचती है।

आज हिंदीभाषी मुंबई सहित महाराष्ट्र की जिंदगी की धड़कन बन चुके हैं। अब वे श्रमिक वर्ग, टैक्सी मोटर चलाने, हाउसिंग सोसाइटियों में गार्ड की नौकरी करने, सब्जी और पान-सिगरेट बेचने तक ही सीमित नहीं रह गए हैं। बहुत सारे उनके बीच से निकलकर शहर के बड़े उद्योगपति, उच्च एवं मध्यम नौकरीपेशा, बिल्डर आदि हो चुके हैं। इसलिए भाजपा को इन उच्च शिक्षित हिंदीभाषियों को भी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त कराना पड़ेगा क्योंकि बहुसंख्यक स्वभाषियों के बीच उनकी गहरी पैठ है।

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Comments 1

  1. Rahul Lonkar says:
    7 years ago

    बहुभाषीय लोगोंको समालेनेवाली हमारी मुंबा नगरी आपनेआपमे संपुर्ण भारतवर्ष का ऐक छोटा रुप है। अगर हम सभी प्रांतीय संरचनाको केवल राजनैतीक एवं सुशासन के लीये आवश्यक खिंची हुयी लकीर समझें या एक पल के लीये यह प्रांतीय रचना को हम अपनी आॕंखोसे ओझल करें तो देश का जो स्वरुप होगा वही अभी मुंबई है। ऐसेही भारतवर्ष की कामना संभवतः आचार्य चाणक्य ने इसा पूर्व ३२५ साल पहेले की है। ऐसी हमारी मुंबई एक अनुभूती है। उपरोक्त विषय काफी गहेराईसे लीखागया है, इसकै लीये धन्यवाद!

    राहुल लोणकर
    नागपूर
    9823198038

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