“नेहरू वंश के समय में कांग्रेस शासन के तहत अल्पसंख्यकवाद के नाम पर अलगाववाद की विषबेल लगातार फलती-फूलती रही। बात आज यहां तक पहुंच गयी कि हाल ही में जमीयत उलमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष और दारुल उलूम, देवबंद के सदस्य महमूद असद मदनी ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि ‘हमारा मजहब अलग है, हमारी तहजीब अलग है, हमारा लिबास अलग है, हमारे खान-पान का तौर-तरीका अलग है। जिसे यह पसंद नहीं वह भारत छोड़कर कहीं और चला जाय’ यह वही उद्घोष है जिसके आधार पर भारत का विभाजन हुआ था।“
भारत एक लोकतान्त्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष देश है। 26 जनवरी 1950 से लागू हमारे संविधान ने भी इसे स्वीकार किया है। इस विषय पर लम्बी एवं सार्थक विचार-विमर्श करने के बाद संविधान सभा इस निष्कर्ष पर पहुंची थी। ऐतिहासिक तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं। इसके पीछे मानव कल्याण का भाव है जो सनातन धर्म की देन है। सनातन धर्म के अनुसार समस्त सृष्टि का नियंता एक ईश्वरीय शक्ति है। जिसे लोग अलग-अलग नाम से पुकारते हैं और जिसे प्राप्त करने अलग-अलग मार्गों का अवलंबन लिया जा सकता है। ऐसा करने में राजा अथवा सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? अतः संविधान सभा ने कहा कि भारत में सभी धर्म के नागरिकों को अपने धर्म पालन की छूट होगी। सरकार धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगी। यही है धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक आशय।
मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू राजनीतिक लोभ संवरण न कर सके। धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा स्वीकार करने के बावजूद नेहरू जी ने लोकतांत्रिक भारत में अपने राजनीतिक हित साधने की दूरगामी योजना के तहत विभाजित भारत में मुस्लिम समुदाय को भारत में रुकने की न केवल इजाजत दी बल्कि उसकी भरपूर पैरवी भी करते रहे। उन्होंने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया, उसका अलग संविधान स्वीकार किया, धारा 370 एवं 35A लागू कर अलगाववाद के बीज भी बो दिए। इसके अलावा नेहरू जी ने भारत के नागरिकों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक वर्ग में भी बाँट कर भारत को दोजख की आग में धकेलने का महापाप भी कर दिया।
नेहरू वंश के समय में कांग्रेस शासन के तहत अल्पसंख्यकवाद के नाम पर अलगाववाद की विषबेल लगातार फलती-फूलती रही। बात आज यहां तक पहुंच गयी कि हाल ही में जमीयत उलमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष और दारुल उलूम, देवबंद के सदस्य महमूद असद मदनी ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि ‘हमारा मजहब अलग है, हमारी तहजीब अलग है, हमारा लिबास अलग है, हमारे खान-पान का तौर-तरीका अलग है। जिसे यह पसंद नहीं वह भारत छोड़कर कहीं और चला जाय’ यह वही उद्घोष है जिसके आधार पर भारत का विभाजन हुआ था।
सौभाग्य से भारत की जनता आज बहुत जागरूक है। सामाजिक परिवेश भी बदला है। परिस्थितियों ने जनता को ठोक-पीट कर दुरुस्त कर दिया है। वह योग्य प्रतिकार करने में सक्षम भी हो गया है। ऐसी किसी भी धमकी के आगे देश की जनता झुकने वाली नहीं है। फिर भी सचेत रहने की। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये आवश्यकता है कि हिन्दु के साथ नहीं रह सकने की बात पर भारत के बंटवारे की कीमत चुकाने के मात्र 75 वर्ष के बाद आज किसी मुस्लिम धर्म गुरु के मुंह में ये शब्द आये कैसे? क्या किसी लोकतान्त्रिक देश में ऐसी भाषा अल्पसंख्यक वर्ग की भाषा हो सकती है?
समय रहते इस भाषा का समाधान निकालना ही होगा। घड़ी की सुईं वापस नहीं हो सकती। विभाजन के समय भारत में मुस्लिम आबादी मात्र 21-22 प्रतिशत थी। आज बचे-कुचे भारत में मुस्लिम आबादी पुनः 15-16 प्रतिशत के आस-पास पहुंच गई है। अगर अल्पसंख्यकवाद का मतलब अलगाववाद है तो आज का भारत इसे कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता। समाज और सरकार दोनों को मिल बैठकर इसका योग्य समाधान निकालना होगा। आज शक्तिशाली और विकसित भारत दुनिया की आवश्यकता है