यह बात सोच से परे है कि जो लोग संसद के मंदिर में जातीय गणना की मांग कर रहे हैं, वे अपनी जाति बताने में अपमान के अनुभव का ढोंग कर रहे हैं। जबकि यही राहुल देश में आम बजट पेश करने से पहले परंपरा बन चुके ‘हलवा उत्सव‘ के समय पूछ रहे थे कि इसमें शामिल अधिकारियों की जाति क्या है। यह भी कह रहे थे कि इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के अधिकारी शामिल थे या नहीं। जाति पूछने का जो सवाल राहुल को गाली लगा, क्या इन अधिकारियों को नहीं लगा होगा ?
समग्र भारतीय समाज की यह विडंबना रही है कि मुद्दा कोई भी हो जाति उभरकर आ जाती है। आजकल लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी अनर्गल प्रलाप करते हुए, जातीय विभाजन को हवा देने का काम कर रहे है। एक तरफ तो वे पुरजोरी से जातिगत गणना कराने की मांग कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ जब भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी का नाम लिए बिना कटाक्ष किया कि ‘जिनकी जाति का पता नहीं वे जातिगत जनगणना की बात करते है।‘ निशाने पर बैठे इस तीर ने ‘जाति‘ के मुद्दे पर राहुल को आहत कर दिया। अब वे और अखिलेश यादव पूछ रहे हैं कि ‘सदन में जाति कैसे पूछी गई ?‘ इसे अपमान की असंसदीय भाषा बता रहे है। यह बात सोच से परे है कि जो लोग संसद के मंदिर में जातीय गणना की मांग कर रहे हैं, वे अपनी जाति बताने में अपमान के अनुभव का ढोंग कर रहे हैं। जबकि यही राहुल देश में आम बजट पेश करने से पहले परंपरा बन चुके ‘हलवा उत्सव‘ के समय पूछ रहे थे कि इसमें शामिल अधिकारियों की जाति क्या है। यह भी कह रहे थे कि इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के अधिकारी शामिल थे या नहीं। जाति पूछने का जो सवाल राहुल को गाली लगा, क्या इन अधिकारियों को नहीं लगा होगा ? बहरहाल जातीय कुचक्र को बढ़ावा देने की संसद में यह स्थिति देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए बड़ा संकट बनकर पेश आ सकती है।
डॉ. आंबेडकर ने भारतीय समाज की इस भेदभाव से जुड़ी बुराई को पहले ही समझ लिया था। इसीलिए उन्होंने जातिवीहिन समाज के निर्माण की कल्पना की थी। डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी जाति तोड़ों अभियान चलाया था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भगवत को कहना पड़ा है कि ‘भेदभाव पैदा करने वाली ‘वर्ण‘ और ‘जाति‘ जैसी हर व्यवस्था निर्मूल करने की जरूरत है।‘ दरअसल सामाजिक समानता भारतीय परंपरा का हिस्सा रही है, लेकिन इसे भुला दिया गया। नतीजतन घातक परिणाम सामने आए। वर्ण और जाति व्यवस्था वैदिक कालखंड में जातीय भेदभाव से दूर थी। किंतु आजादी के 75 साल बाद वह कांग्रेस जो आजादी दिलाने में मुख्य भूमिका का निर्वहन करने का दावा करती है, वह अब जातीय विभाजन को हवा देकर देश की अखंडता को खतरा पैदा करने की बात कर रही है। हालांकि जाति के स्तर पर छुआछूत तेजी से खत्म हुआ है। स्त्रियों में आर्थिक स्वावलंबन बढ़ने से अंतरजातीय विवाह भी बढ़े हैं। उच्च वर्ण के माने जाने वाले ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य की संतानें पिछड़े, दलित और जनजाति की संतानों से विवाह-बंधन में बंध रहे हैं। इन विवाहों को सामाजिक स्वीकार्यता मिलने लगी है। आमंत्रण-पत्र में छोटी या बड़ी जाति को प्रस्तुत करने का भेद खत्म हो गया है। अलबत्ता कई क्षेत्रों में आरक्षण के लाभ की सुविधा के चलते जाति व्यवस्था कमजोर होने के बाबजूद कायम है।
जाति तो नहीं लेकिन वर्ण की पहचान ऋग्वेद की कतिपय ऋचाओं में मिलती है। हालांकि इसे प्रकृति और पुरुष में समानता का दर्जा देते हुए उल्लेखित किया गया है। कहा है, अखिल ब्रह्मांड एक महामानव अथवा विराट पुरुष है। इस पुरुष का नेत्र सूर्य, मन चंद्रमा, कान और प्राण वायु हैं, मुख अग्नि, नाभि अंतरिक्ष, मस्तक आसमान और उसके पैर पृथ्वी हैं। कालांतर में इसी विराट पुरुष को चार मुख्य श्रेणियों में विभाजित कर दिया। अर्थात मुख से ब्रह्मांड, बाजुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्रोँ की उत्पत्ति मान ली गई। इन्हें ही चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का आधार मान लिया। साफ है, ऋग्वेद में जाति कहीं नहीं है। अतएव बृहत्तर हिन्दू समाज (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का दुष्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्यवस्था कैसे आई, इसकी तह में जाना मुश्किल है। इसीलिए संत रविदास के यह कहने के बावजूद कि ‘ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन, पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीण‘।
बावजूद जातीय संरचना अपनी जगह हजारों साल से बदस्तूर है। मुस्लिम समाज में भी जाति-प्रथा पर पर्दा डला हुआ है। आभिजात्य मुस्लिम वर्ग यही स्थिति बनाए रखना चाहता है, जबकि मुसलमानों की सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना में भी पहचान का आधार धर्म और लिंग है। शायद इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘जाति ब्राह्मणवादी व्यवस्था का कुछ ऐसा दुष्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से छोटी जाति मिल जाती है। यह ब्राह्मणवाद नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी एक साइकिल है। अगर यह जातिचक्र एक सीधी रेखा में होता तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है। इसका कोई अंत नहीं है। इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।‘ वैसे भी धर्म के बीज-संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में, जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी नादान उम्र में उड़ेल दिए जाते हैं। इस तथ्य को एकाएक नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अब तक टूट गई होती। राहुल गांधी जैसे नेता इसकी गिरफ्त में न आते।
जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, ‘इस अनंत संसार में कामदेव अलंध्य हैं। कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए ? इसलिए संकीर्ण योनि होने से भी जातियां दुष्ट, दूषित या दोषग्रस्त ही हैं, इस कारण जाति एवं धर्म को छोड़कर स्वेच्छाचार का आचरण करो।’ गौतम बुद्ध ने जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्यवस्था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी, ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।‘ जातीयता को सर्वथा नकारते हुए संत रविदास ने कहा था कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।‘
म. गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर, उसे आचरण में आत्मसात किया। भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले ने जाति तोड़क अनेक प्रयत्न किए, लेकिन जाति है कि मजबूत होती चली गई। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई ? नहीं, क्योंकि कुलीन हिन्दू मानसिकता, जातितोड़क कोशिशों के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। इसी मूल की प्रतिच्छाया हम पिछड़ों और दलितों में देख सकते हैं। मुख्यधारा में आने के बाद न पिछड़ा, पिछड़ा रह जाता है और न दलित, दलित। वह उन्हीं ब्राह्मणवादी हथकंड़ों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगता है, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हजारों साल हथकंडे रहे हैं। नतीजतन जातीय संगठन और राजनीतिक दल भी अस्तित्व में आते रहे। मुलायम सिंह, लालू यादव और मायावती ने जातीय संगठनों की आग पर खूब रोटियां सेंक कर पकाई और खाईं। भविष्य में निर्मित होने वाली इन स्थितियों को डॉ. आम्बेडकर ने 1956 में ही भांप लिया था। गोया, उन्होंने आगरा में भावुक होते हुए कहा था कि ‘उन्हें सबसे ज्यादा उम्मीद दलितों में पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग से थी कि वे समाज को दिशा देंगे, लेकिन इस तबके ने हताश ही किया है।‘ दरअसल डॉ. आम्बेडकर का अंतिम लक्ष्य जातिविहीन समाज की स्थापना थी। जाति टूटती तो स्वाभाविक रूप से समरसता व्याप्त होने लग जाती। लेकिन देश की राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि नेता सवर्णं रहे हों या अवर्ण जाति और वर्ग भेद को ही आजादी के समय से सत्तारूढ़ होने का मुख्य हथियार बनाते रहे हैं। जाति का यह दुष्कर्म चरम पर दिखाई दे रहा है।
जो राहुल गांधी वर्तमान में जातीय जनगणना के पैरोकार बनकर हर समीति में पिछड़े अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की उपस्थिति की बात कर रहे हैं, वे यदि स्वयं के गिरेबान में झांके और कांग्रेस के अतीत को ही खंगाले तो पता चलेगा कि वास्तव में कांग्रेस की वस्तुस्थिति क्या थी। उनकी दादी प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने नारा दिया था, ‘जात पर न पांत पर, मोहर लगेगी हाथ पर‘ लेकिन यही इंदिरा गांधी काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट को दरकिनार कर देती हैं। राहुल के पिता राजीव गांधी ने पदोन्नति में आरक्षण का वैचारिक विरोध किया था। अतएव सोचने की जरूरत है कि जातीय जनगणना ही देश की उन्नति का आधार थी, तो इंदिरा, राजीव, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के केंद्रीय सत्ता में रहते हुए क्यों नहीं कराई गई ? मनमोहन सरकार के दौरान तो स्वयं राहुल गांधी सांसद थे, लेकिन उन्होंने संसद में एक भी बार जातीय जनगणना का प्रश्न नहीं उठाया ? राजीव गांधी फाउंडेशन और राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट के सदस्यों में से एक भी सदस्य एसी-एसटी से नहीं है। वे इनमें ही इन जातियों के सदस्यों को शामिल कर लें तो उनकी कथनी और करनी का अंतर दूर होगा ?
दरअसल लगता है कि कांग्रेस और इंडी गठबंधन जातिवादी विभाजन की राजनीति पर उतारू हो चुकी है, इसलिए जातीय विभाजन को हवा देने का काम पूरी ताकत से किया जा रहा है। कुछ जातीय आधारित वर्चस्ववादी नेता राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाने और बदस्तूर रखने के लिए जाति और धर्म के आधार पर विभाजन की रणनीति को आगे बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। जबकि देश में अब अमीर और गरीब दो ही जातियां हैं। इस विसंगति की खाई को पाटने का दायित्व प्रत्येक देशभक्त नेता का होना चाहिए