रोप के विद्वान रॉबर्ट. एस. लिकिन कहते हैं कि अनेक वर्षों के पश्चात भी मूल सामाजिक, राजनीतिक अधिकारों के हनन तथा राज्य सभाओं में उनके समाज की निम्न स्थिति लक्षित होने से अनिश्चय और शंका की स्थिति भी मुस्लिम समाज के अंतर्द्वंदों का एक प्रमुख कारण है, परंतु वर्तमान स्थिति देखते हुए कई विद्वान इससे सहमत नहीं हैैं, क्योंकि यूरोप में शांति प्रदर्शन भी अपने अधिकारों की प्राप्ति का एक साधन रहा है, जिसमें अन्य देशवासियों के साथ आक्रामक, अशोभनीय तथा अमानवीय व्यवहार कोई शर्त नहीं है।
विश्व के वर्तमान परिदृश्य में अशांति का भाव जैसे अपने पंख फैलाकर उड़ने को तैयार है। रशिया-यूक्रेन और इजराइल-हमास युद्ध विश्व को जैसे एक तराजू बनाकर हर पलड़े में वजन बढ़ाकर या घटाकर एक अंतहीन सौदों का बाजार बना रहा है। इन नए शक्ति प्रदर्शनों के समीकरणों में पूरे विश्व के सभी देश इस या उस पलड़े में बैठने को तैयार हैं, लेकिन सब का ध्यान अब मुस्लिम देशों की अपने संख्या गणित और आक्रामक तथा धार्मिक आतंकवाद की राजनीति पर केंद्रित होता दिख रहा है। जिसमे प्रमुख हैं सम्पूर्ण यूरोप के इस्लाम धर्म के लोगों के बढ़ते प्रभुत्व के साथ उनका आतंकवादी सामजिक व्यवहार, जिसके स्पष्ट भविष्य से अब अमेरिका भी चिंतित दिखाई दे रहा है। क्योंकि इसमें उसके 32 यूरोपियन दोस्त जो उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन के सदस्य हैं। राजनीति के दलदली तालाब में गोता खाते दिख रहे हैं और उनके विरोधियों का मुख्य उद्देश्य इन सदस्य देशों की स्वतंत्रता और राजनीतिक स्थिरता पर अस्थिरता के घने बादलेें से वर्षा करना है। जिनका राजनीतिक और सामरिक महत्व अमेरिका के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
इतिहास हमें सिखाता है कि एकेश्वरवाद के कट्टर समर्थक इब्राहीम धर्म के तीन स्तम्भ इस्लाम, ईसाई और यहूदी। जब विभिन्न मान्यताओं के कारण अलग-अलग रास्तों पर चलने लगे तो इससे विश्व में अनेक राजनीतिक समीकरण बने। यूरोप और तदनंतर अमेरिका इसाई धर्मावलम्बियों का प्रमुख क्षेत्र रहा, लेकिन मुस्लिम धर्म की स्थापना और विस्तार नीति ने उनके लिए यूरोप को अपना घर बनाने का सपना सदैव उनके मन में रहा, जिसमें उन्होंने बहुत उत्साह भी दिखाया। 8वीं से 10वीं शताब्दी में एक अफ्रीकन जनजाति मूर ने दक्षिणी यूरोप में प्रवेश किया। स्पेन, पुर्तगाल, इटली में उनके प्रतिनिधि आज भी हैं। 14वीं -15वीं शताब्दी में ओटोमन साम्राज्य का विस्तार हुआ। 20वीं तथा 21वीं सदी में बड़ी संख्या में मुस्लिम पश्चिमी यूरोप में आकर बस गए। जिनकी वर्तमान पीढ़ियां ही इस अंतर्राष्ट्रीय वर्तमान समस्या की जड़ हैैं।
यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि द्वितीय युद्ध के पश्चात सम्पूर्ण यूरोप और अमेरिका में जो आर्थिक चमत्कार तथा यांत्रिक उन्नति हुई है, उसमें तत्कालीन यूरोपियन आव्रजन तथा शरणार्थी नीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। जिसके कारण इन रेगिस्तानी तथा उत्तरी अफ्रीका के पर्वतीय क्षेत्रों से आने वाले नागरिकों की संख्या का अधिकतम भाग मध्य एशिया के देश सीरिया, लेबनान तथा ईरान से रहा है। जिससे वे इन यूरोपियन देशों के रेल, सड़क तथा कोयला खदानों में कार्य कर यूरोप के आर्थिक विकास में भरपूर सहयोग के सूत्रधार रहे। इसमें ऐसे शरणार्थियों की संख्या भी बहुत अधिक थी, जिनके पास आव्रजन या शरणार्थी होने के कोई अधिकृत कागजात नहीं थे। इनमें से एक बड़ी संख्या लीबिया तथा अन्य समुद्री मार्गों से यूरोप में अपने समृद्ध जीवन के सपने देखते हुए आए थे। समय ने उन्हें उन देशों का निवासी बना दिया, क्योंकि उनके अपने देश में उनकी कोई पहचान अब नहीं रह गई थी।
काफी समय तक पुरानी पीढ़ी अपने काम से काम रखकर रोजी रोटी तक सीमित रही, लेकिन समय के साथ तथा नए ज्ञान से वर्तमान पीढ़ी और उनके सामाजिक व्यवहार में परिवार के सदस्यों में संख्या में अनियंत्रित वृद्धि होने से डेमोग्राफिक चेंज के कारण यहां के सामाजिक समीकरण बिगड़ कर इन देशो के नियंत्रण के बाहर हो गए।
यूरोप के विद्वान रॉबर्ट. एस. लिकिन कहते हैं कि अनेक वर्षों के पश्चात भी मूल सामाजिक, राजनीतिक अधिकारों के हनन तथा राज्य सभाओं में उनके समाज की निम्न स्थिति लक्षित होने से अनिश्चय और शंका की स्थिति भी मुस्लिम समाज के अंतर्द्वंदों का एक प्रमुख कारण है, परंतु वर्तमान स्थिति देखते हुए कई विद्वान इससे सहमत नहीं हैैं, क्योंकि यूरोप में शांति प्रदर्शन भी अपने अधिकारों की प्राप्ति का एक साधन रहा है, जिसमें अन्य देशवासियों के साथ आक्रामक, अशोभनीय तथा अमानवीय व्यवहार कोई शर्त नहीं है। इसमें भी सभी यूरोपीय देशों में स्थिति एक जैसी नहीं है। जैसे स्वीडेन ने एक समय बहुत उत्साह से तुर्की के शरणार्थियों को आश्रय दिया, जहां अब इनकी अनुमानित संख्या 22 प्रतिशत तक हो गई हैं।
फ्रांस और इंग्लैंड में सन 2050 तक यह 17 प्रतिशत, जर्मनी में 10 प्रतिशत, स्वीडेन में 32.4 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या हो जाएगी। पोलैंड में 2016 में मात्र 10,000 मुस्लिम थे जो अब 50,000 हैं। स्पेन 28 लाख, नार्वे 13 लाख जनसंख्या होने के अनुमान हैं। कारण यूरोपियन देशों में जनगणना में जाति, धर्म का कोई विशेष स्थान नहीं है। हंगरी ने 85,800 लोगों को राजनीतिक शरण दी, जो मोरक्को, पाकिस्तान, बांग्लादेश से आए थे, लेकिन इन शरणार्थियों के असामाजिक व्यवहार के कारणों से अब स्थितियां बदल गई हैं। यूरोप में अब हजारों ऐसे स्थान हैं जहां मस्जिदों की संख्या हजारों में है, जो कई गलियों के मोड़ पर हैं। जहां उस देश के सामान्य नागरिक जाने से भी डरते हैं तथा हर शहर में एक विशाल मस्जिद बनाने की तैयारी भी है।
नीदरलैंड की राजधानी एम्स्टर्डम जहां अब मुस्लिम धर्मावलम्बियों की संख्या चौथाई से थोड़ी ही कम है, 18 वर्ष के अधिकतर नागरिक मुस्लिम हैं। यूरोप के सभी शहरों में एक से एक सटे गरीब बस्तियों में महिलाओं के बिना परदे के जाने की मनाही है। फ्रांस के पेरिस में जिसे वे दार अल-इस्लाम यानी शांति का घर कहते हैं, इन बस्तियों में कोई भी आर्थिक गतिविधि नहीं हैं। यह शहर अब चारों तरफ से ऐसी ही बस्तियों से घिरा है, जहां सामान्य नागरिक तो दूर, पुलिस के जवान भी जाने से घबराते हैं। यहां के मूल निवासियों को पलायन के लिए मजबूर किया जाता है।
आप को जानकार आश्चर्य होगा कि बेल्जियम और डेनमार्क के कई सरकारी स्कूलों में अब केवल हलाल भोजन ही दिया जाता है। फ्रांस के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को सलाह दी जाती है कि वे वाल्टेयर, डेनिस डीडेरोट जो फ्रांस के जानेमाने लेखक, नाटककार, उपन्यास, दर्शनशास्त्री, निबंध लेखक थे, के बारे में छात्रों को न बताएं। यहां तक कि चार्ल्स रोबर्ट डार्विन जो विश्व प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री, प्रकृति वैज्ञानिक थे, उनके बारे में भी छात्रों को न बताया जाए, ऐसा आग्रह यहां के शिक्षकों से है। नहीं तो उन स्थानीय शिक्षकों को सामाजिक उत्पीड़न, जिसमें कभी-कभी अत्यंत क्रूर व्यवहार का सामना भी करना पड़ सकता है। मुस्लिम धर्मावलम्बियों के कारण शरिया न्यायालय इंग्लैंड शासकीय प्रणाली का एक नियमित हिस्सा बन गया है। यहां लोग उनके भूतपूर्व प्रधान मंत्री विस्टन चर्चिल को याद करते हैं, जिन्होंने कहा था कि मुस्लिम जमात एक विनाशकारी जाति समूह है।
सैंन डिएगो विश्व विद्यालय के अनुसार यूरोप में मुस्लिमों की जनसंख्या इस सदी के अंत तक 25 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। इंग्लैंड में पढ़ने वाले मुस्लिम छात्र पूरे विश्व में किसी खलीफा के राज्य का स्वप्न देखते हैं। फ्रांस में स्थानीय लोग मानते हैं कि इनकी आस्था फ्रांस से ज्यादा मुस्लिम धर्म में हैं। यह भी एक तथ्य है कि इन जेहादियों का जाल पोलैंड से पुर्तगाल तक फैला हुआ है, जिसके अंतर्गत यूरोप में कही भी जाने-आने का लाभ ये खूब उठाते हैं और ये सभी अनैतिक गतिविधियों में लिप्त है।
बर्मिंघम इंग्लैंड में शिफ्ट में चलने वाले मुस्लिम साहित्य की दुकानें इन कार्यक्रमों का एक हिस्सा है। पश्चिम यूरोप में आव्रजन तथा अन्य मार्गो से आए सूडान, अरब, लेंबनीस पूर्व से ही जिहादी प्रवृत्तियों के थे। अन्य यूरोपियन देश ग्रीस, बेल्जियम, क्रोशिया, ऑस्ट्रिया, नोर्वे, आयरलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया थोड़े या अधिक इस इस्लामीकरण के कष्टप्रद अनुभवो से त्रस्त हैं। जिसमें इस्टोनिया जैसे छोटे देश तथा पोलैंड शामिल हैं, जो वैसे ही रूस और युक्रेन युद्ध से आए हुए शरणार्थियों से आर्थिक संकट में हैं।
यूरोप में फैले इस मुस्लिम प्रभाव को यहां के नागरिक इनके उग्रवादी स्वभाव के कारण सहअस्तित्व के सिद्धांत के विरुद्ध मानते हैं तथा राष्ट्रीय पहचान, घरेलू सुरक्षा तथा सामाजिक तानेबाने के लिए विनाशकारी भी बताते हैं। सम्पूर्ण विश्व में वैसे भी हमास, हिजबुल तथा हूती की चर्चा है, जिसका इस विश्व के शांतिपथ पर निश्चित ही प्रभाव पड़ने वाला है। इन समस्याओं का हल इतना आसान भी नहीं है, इनके हल का उत्तर केवल समय के पास है।
– श्यामकांत देशपांडे