शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान के लिए जाना जानेवाला हमारा भारतीय समाज आज स्वार्थ के वशीभूत होकर इतना कायर हो चला है कि बीच सड़क पर होनेवाली मारपीट जैसी घटनाओं को रोकने या पीड़ित को बचाने के लिए भीड़ में से कोई आगे तक नहीं आता।
आधुनिक तकनीक हमारी पारम्परिक दुनिया को तेज गति से बदल रही है। एक ओर जहां मानव बुद्धि लगातार नए-नए आविष्कार कर रही है, वहीं दूसरी ओर मानव जगत की सामूहिक एवं सामाजिक बुद्धिमत्ता में गिरावट भी देखी जा रही है। ज्ञान और सूचना संसाधनों की भरमार और सूचना-विश्लेषण के प्रगतिशील कृत्रिम संसाधनों के बावजूद मानव समुदाय में सामूहिक बुद्धि का अभाव है। परिवर्तन के दौरान वर्तमान में व्यक्ति समाज से अलग-थलग होता जा रहा है? मनुष्य को व्यक्ति-केंद्रित होना चाहिए या समाज केंद्रित? इस प्रश्न पर आज चर्चा भी नहीं होती, क्योंकि मनुष्य को सामाजिक बनाने के कर्मकांडीय ढांचे आज व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिवादी विचार के दौर में बेकार होते जा रहे हैं। समाज स्वयं भ्रमित है?
दिल्ली के ‘निर्भया’ केस के बाद दोषियों को सजा सुनाई गई। उसके बाद भी देश में कई छोटे-बड़े अन्याय और अत्याचार हो रहे हैं। लव-जिहाद के कारण श्रद्धा वारेकर की हत्या का मामला अभी भी कोर्ट में लटका हुआ है। दिल्ली के बाद अब बेंगलुरु में हिंदू महिला के मुस्लिम पति द्वारा हत्या के बाद 52 टुकड़े कर देने वाली घटना यही बता रही है कि ऐसे विकृत प्रवृत्ति के हत्यारे समाज में खुलेआम घूम रहे हैं।
शहर में भीड़भाड़ वाली जगह पर एक युवती अपनी जान बचाते हुए भाग रही थी, क्योंकि हाथ में हथियार लेकर एक व्यक्ति उसपर हमला करने के लिए उसके पीछे भाग रहा था। उस समय सड़क पर भीड़ थी लेकिन लोग वहां मूकदर्शक बन सब देख रहे थे। ऐसी कितनी ही घटनाएं हमारी आंखों के सामने घटती हैं, जहां एक युवक को सबके सामने चार-पांच लोग पीट रहे हैं और युवक सहायता की गुहार लगा रहा है। लेकिन भीड़ की हिम्मत नहीं होती को वो उन दो-चार गुंडों से भिड़ सके। जिस देश में देवी सर्वोच्च है, देवियों का उत्सव मनाया जाता है, वहीं महिला सुरक्षित नहीं है। कहते हैं कि भारत में हम सभी एक सामाजिक सूत्र से एक दूसरे से बंधे हुए हैं, लेकिन फिर भी मैं और मेरा परिवार इससे आगे सोचने को समाज तैयार नहीं हैं। समाज के इस उदासीन रवैये को देखकर एक नगमा याद आता है।
जब-जब मुझे लगा,
ऐ दुनिया, तू मेरे पास है,
तेरी बेरुखी ने समझा दिया
ये बस झूठी आस है।
नवी मुंबई में उरण के पास दर्शना पवार नामक युवती और मुंबई की धारावी में अरविंद वैश्य नाम के बजरंग दल के कार्यकर्ता की हत्या बीच रास्ते में सभी के सामने की गई थी। कोई न तो बचाने गया, न ही कोई आगे आया। उपस्थित सभी लोग घटना का वीडियो बनाते रहे। यदि इसे बदलना है, यदि सामाजिक स्थिरता चाहिए तो सरकार, प्रशासन, व्यवस्था पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। सिर्फ उन्हें ही दोष नहीं दिया जा सकता। यह भी समझना होगा कि सरकार, प्रशासन और व्यवस्था में काम करने वाले लोग ही होते हैं। इसलिए हमें अपनी आंखों के सामने घट रही घटनाओं पर प्रतिक्रिया देनी होगी। अगर हम बुरी चीजों को सिर्फ देखने की बजाय उसे रोकें तो हमारा समाज सुरक्षित होगा। हमारे समाज के लोग घटना के समय तो मूकदर्शक बने रहेंगे लेकिन बाद में अपना रोना रो कर दुख व्यक्त करेंगे, कैंडल मार्च निकालेंगे, दो-चार दिन उस पर चर्चा करेंगे और भूल जाएंगे। क्या समाज इतना असंवेदनशील हो गया है?
क्या कोई व्यक्ति केवल शिक्षित होने से ही अच्छा बन जाता है? इस सवाल का जवाब अकसर नहीं ही होता है। इसके साथ ही कुछ और सवाल भी खड़े होते हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति जितना अधिक पढ़ा-लिखा है, वह उतना ही बुद्धिमान होता है? हम ऐसे व्यक्ति को शिक्षित कहते हैं जो स्कूल-कॉलेज गया हो और उसके पास डिग्री हो, लेकिन वास्तविकता में वह शिक्षित नहीं बल्कि केवल साक्षर होता है। साक्षर और शिक्षित में बहुत बड़ा अंतर है। साक्षर वह है जिसने पढ़ना-लिखना सीख लिया, लेकिन शिक्षित का अर्थ है, जो व्यक्ति स्वयं के साथ-साथ समाज को भी बेहतर बनाना चाहता है।
जात-पात के नाम पर हजारों टुकड़ों में बंटे और बिखरे समाज को फिर से समरसता के सूत्र में बांधने की आवश्यकता है। परंतु इसके लिए प्रभावशाली वातावरण का अभी भी अभाव है। यदि प्रतिभाशाली लोग इस ओर ध्यान दें, तो बहुत कुछ किया जाना सम्भव है। इस दिशा में नए सृजन की गम्भीर आवश्यकता है। ऐसे अनेक कार्य हैं, जिससे व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। ऐसे रचनात्मक कार्यक्रमों को हाथ में लेने के लिए संगठित प्रयास किए जाएं तो सच्ची समाजसेवा हो सकती है। लेकिन इसे राजनीति की बजाय समाज सेवा के क्षेत्र में ही सक्रिय कार्य करके किया जाना चाहिए।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक अपने समय के सर्वमान्य राजनेता थे। वे अपने युग में राजनीति के शिखर पुरुष थे। तिलक से किसी ने पूछा था कि यदि इन कुछ वर्षों में स्वराज्य मिल गया तो आप भारत सरकार के किस पद को सम्भालना पसंद करेंगे? इस प्रश्न को पूछने वाले ने सोचा था कि तिलक अवश्य प्रधान मंत्री अथवा राष्ट्रपति बनने की इच्छा व्यक्त करेंगे, लेकिन उसे तो लोकमान्य तिलक का उत्तर सुनकर हैरानी हुई, क्योंकि उन्होंने कहा मैं तो देश के स्वाधीन होने के पश्चात स्कूल का अध्यापक होना पसंद करुंगा। इस पर प्रश्वनकर्ता ने पूछा ऐसा क्यों कह रहे हैं आप? तो उन्होंने उत्तर दिया स्वाधीनता के पश्चात देश को सबसे अधिक जरूरत अच्छे नागरिक एवं उन्नत व्यक्तित्वों की होगी। जिसे शिक्षा व समाजसेवा के द्वारा ही पूरा किया जाना सम्भव है।
लोकमान्य तिलक की यह बात आज भी सही प्रतीत होती है। देश को स्वतंत्र हुए अब 75 साल पूरे हो चुके हैं, फिर भी वर्तमान में चुनौती स्वराज्य को सुराज्य में बदलने की है। इसके लिए समाज की जड़ों में संस्कारों का पानी देना होगा। अच्छे व्यक्तित्व गढ़ने होंगे, जो न केवल राजनीति को दिशा दिखाएं, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्रीय व्यवस्था में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की तरह अपना सार्थक योगदान भी दें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शताब्दी के परिश्रम से समाज की प्रत्येक जरूरत को ध्यान में रखकर एक व्यापक व्यवस्था खड़ी की है। सच्ची सेवा, साधना के इच्छुक व्यक्ति यहां कार्यरत हैं। संघ की समूची संरचना भारतीय संस्कृति के अनुरूप होने से इसे सर्वत्र सराहना भी मिली है। इनमें लोकसेवा की भावनाएं प्राथमिक रही हैं। ऐसे लोग इस अभियान से जुड़कर लोकहित व आत्महित दोनों कार्य सिद्ध कर सकते हैं। आज के दौर में राजनीति से कहीं अधिक आवश्यक समाजसेवा है। समाज श्रेष्ठ होगा तो सरकारें स्वयं ही श्रेष्ठ बन जाएंगी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने राजनीति की तुलना बाथरूम से की है। बाथरूम चमकीले टाइल्स से बनाया जाता है लेकिन उस चमकीले बाथरूम में फिसल कर गिरने की संभावना 90% होती है। आज की राजनीति भी कुछ इसी प्रकार की है। इस आकर्षण से बचकर समाज निर्माण की प्रक्रिया हम पूरी कर सकते हैं। इसके लिए सक्षम सामाजिक व समाज प्रशिक्षण का अभियान रचना होगा।
अपने देश में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए राजसत्ता उतनी सफल नहीं हो सकती, जितनी की सामाजिक क्षेत्र में की गई सेवा-साधना। समाज में फैली हुई अनगिनत बुराइयों के साथ नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक पिछड़ेपन को दूर किया जाना सबसे बड़ा काम है। इसे किसी राजनीति के द्वारा नहीं, बल्कि सामाजिक सत्प्रवृत्तियों के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। राजनीति की महिमा व महत्त्व सभी जानते हैं। आखिर देश चल तो इसी से रहा है। राजनीति में प्रवेश पाने के लिए काफी भीड़ है। जो भी इसमें एक प्रवेश करता है वो बाहर आता ही नहीं। अपने अस्थि-विसर्जन तक डटा रहता है। जहां तक समाज व्यवस्था की बात है, तो उस ओर राजनीति करने वालों का ध्यान ही नहीं है। शायद इसीलिए यह सामाजिक सेवा का क्षेत्र प्रायः उपेक्षित पड़ा है।
समाज तो व्यक्तित्व को गढ़े जाने का कारखाना है। यहां जितनी शुद्धता, संवेदनशीलता, उच्च जीवन मूल्य व उत्कृष्ट परम्पराएं होंगी, उतने ही उन्नत व्यक्तित्व यहां विकसित हो सकेंगे। यदि समाज में गुणवत्ता नहीं है तो गुणवान व्यक्तित्व की खोज भी मुश्किल हो जाएगा। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि निकृष्ट व्यक्तित्व कहीं भी रहे वे सदा निकृष्ट आचरण ही करते हैं। आज की आवश्यकता गुणवान व्यक्तियों की है और यह कार्य सामाजिक व्यवस्था के परिष्कार के बिना असम्भव है।
हाल की कुछ अप्रिय घटनाओं से सामाजिक सुधार की आवश्यकता पर पुनः बल दिया गया है। जैसे-जैसे समाज का एक वर्ग दुराचार और अपराध की ओर बढ़ता जा रहा है, उसके पीछे की कारणों की गहराई से पड़ताल करना भी उतना ही जरूरी है। कोलकाता में युवा महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और उसकी निर्मम हत्या, महाराष्ट्र के बदलापुर में 4 साल की दो बच्चियों के साथ स्कूल के चपरासी द्वारा अनैतिक कार्य करने, पुणे जैसे ज्ञान की नगरी में युवा गैंगस्टरों द्वारा सरेआम हो रही हत्याएं, अरबपतियों के युवा बच्चों की महंगी कारों के नीचे कुचलकर लोगों का मारा जाना, दिल्ली में बारिश के पानी में बिजली का करंट लगने से आईपीएस की परीक्षा की तैयारी करने वाले युवक की मौत, सबकुछ हृदय विदारक था। यदि स्कूलों में, शिक्षकों के भरोसे, बस ड्राइवर के भरोसे पर भी आपकी बेटियां सुरक्षित नहीं होंगी तो मुश्किल होगी। देश के कोने-कोने में महिलाओं और छोटी बच्चियों के उत्पीड़न की घटनाएं मानवीय नैतिकता को कलंकित कर रही हैं।
इसलिए इस तरह की घटनाओं का सिर्फ विरोध करने से ज्यादा इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि समाज में विश्वास का माहौल कैसे बनाया जाए? आज के समय में समाज सुधार की शुरुआत ऐसे ही विश्वास से होनी चाहिए। जब तक हमारे घरों, पड़ोसियों और समुदाय के सम्पर्क में आने वाले लोगों पर भरोसा है और इसमें कोई साजिश शामिल नहीं है, हम ऐसी घटनाओं से बच सकते हैं।
समाज में हो रही हिंसक घटनाएं और गलत बातों के प्रति समाज का नकारात्मक दृष्टिकोण हमें दिखाई दे रहा है। ऐसा लगता है कि आज हम सभी एक अत्यधिक उन्नत समाज में रहते हैं लेकिन समाज अधिक से अधिक असहिष्णु हो गया है। ऐसे में हमारे पास विज्ञान की तीव्र प्रगति और आधुनिकता पर गर्व करने का कोई कारण नहीं है। इसके विपरीत इस विज्ञान की प्रगति से विभिन्न आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रश्न उठे हैं। उन सवालों का सामना करने के लिए, हमें सचेत रूप से अपने आप को तैयार करना होगा। अन्यथा, हम भविष्य में भटक ही जाएंगे। कारण हमारे यहां वैश्वीकरण और उसके बाद आधुनिकरण आया तब भारतीय मानसिकता वैश्वीकरण और आधुनिकता को हजम करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थी। आधुनिकता से जुड़ी अच्छाइयां और बुराइयां हमारे ऊपरी व्यवहार तक पहुंची है, लेकिन हमारे अंतर्मन में नए दर्शन और संगठित समाजशास्त्र ने आकार नहीं लिया। आधुनिकता में तथाकथित वैभव और संस्कृति का उपभोग लेने की कोशिश में हम एकाकी जरूर हो गए हैं। जो हमारे सामाजिक और मानसिक अंतर का एक बड़ा कारण है।
हमें व्यक्तिगत और सामाजिक सिद्धांतों में सुसंगत परिवर्तन करने होंगे। आज हम आधुनिकता का उपभोग करते हुए अपने समाज से बहुत पिछड़ रहे हैं। सशक्त भारत के लिए सभ्य समाज की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कहना है कि सशक्त भारत के निर्माण के लिए अनुशासित, चरित्रवान और सभ्य समाज का निर्माण करना होगा। अनुशासन, संस्कारित जीवन और चरित्र की मजबूती के बल पर ही विकसित और सशक्त भारत का निर्माण होगा। सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाने और आचरण में लाने के लिए समाज में जागरुकता पैदा करना महत्वपूर्ण है। जब मनुष्य सुधर जाता है तो समाज अपने आप बदल जाता है।
मोबाइल हर व्यक्ति के लिए ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है, शहर में किशोर छात्रों में फेसबुक, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन का क्रेज है। सर्वेक्षण में पाया गया कि ग्रामीण से लेकर अर्ध-शहरी और महानगरों के नागरिक मोबाइल का ‘स्मार्ट’ प्रयोग कर रहे हैं। उनकी स्मार्टनेस उनकी रुचि के विषयों तक ही सीमित है या अन्य बातें भी इससे जुड़ी हैं? इस बात पर किए गए एक सर्वेक्षण में आज के समाज का सत्य भी सामने आ रहा है। हमारे नागरिक कौन सी वेबसाइट पर जाते हैं, किस तरह के वीडियो देखते हैं इससे कई चौंकाने वाले निष्कर्ष निकलते हैं। कोलकाता में युवा महिला डॉक्टर की रेप की घटना घटने के बाद उस रेप का प्रत्यक्ष वीडियो देखने के लिए लाखों लोगों ने गूगल पर सर्च किया था। इस सर्वे के निष्कर्ष से हमारे समाज का घिनौना चेहरा सामने आया है।
हमारे चारों ओर ऐसी अनगिनत घटनाएं घटित हो रही हैं, जो अलगाव और सामूहिकता के बीच की खाई पैदा करती हैं। देश के अलग-अलग हिस्से में हिंदू समाज आतंक का शिकार हो रहा है। ऐसे में आज की प्रवृत्ति केवल दर्शक की भूमिका निभाकर ऐसी स्थितियों से अंतर बना कर रहने की कोशिश करने की नहीं है। कई स्थितियों में दर्शक की भूमिका भीड़ की तरह होती है। ऐसी भूमिका में हम अपने मूल व्यक्तित्व को भूल जाते हैं और हर कोई सहजता से भीड़ की मानसिकता में घुलमिल जाता है। यह सोच मजबूत हो जाती है कि हमारे बगल से कोई आगे आएगा इस घटना को रोकेगा और अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम फिर से उस दर्दनाक घटना को अपनी आंखों से ठंडे दिमाग से देखने वाली की भीड़ में शामिल हो जाते हैं। यह हमेशा होता रहा है। लेकिन हाल के दिनों में यह चलन जोर पकड़ रहा है।
शहरों में, भले ही हम अपने आसपास अनगिनत लोगों को घूमते हुए देखते हैं। अगर हम पर कोई संकट आता है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यह भीड़ हमारा साथ देगी। क्योंकि इस भीड़ का कोई चेहरा नहीं है। इसलिए, भीड़ की भावनाओं को भी नहीं पहचाना जा सकता है। भीड़ की इस असंगठित एवं अव्यवस्थित मानसिकता को आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने ठीक तरह से समझ लिया है। इसी कारण जिसे हम समाज कहते हैं उसका डर आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को रहा नहीं है। कारण भीड़ सामूहिक शक्ति के प्रभाव को भूलने लगी है। हमारे आस-पास के कई लोग होते हुए भी, हम सभी अकेले ही होते हैं। भीड़-भाड़ वाली जगहों पर यात्रा करने के दौरान किसी को सीट मिलती है, तो वह जेब में रखा मोबाइल उठा लेता है, कान में ईयरफोन लगा लेता है और अपनी परेशानियों को भूलने की कोशिश में उसमें रखे संगीत या खेल की दुनिया में डूब जाता है। कुछ लोग अपना लैपटॉप खोलते हैं और अपने लिए जगह मिलते ही अपनी इंटरनेट की दुनिया में यात्रा करना शुरू कर देते हैं, जबकि अन्य लोग हाथ में टैबलेट से मनमोहक मनोरंजन की दुनिया का आनंद लेते हुए खुद को आसपास हो रही घटनाओं के अस्तित्व से अलग रखते हैं। जिस भारत देश में मानव सहजीवन के दर्शन का जन्म हुआ, वहीं वह टूटता नजर आ रहा है। समाज की संकीर्णता महसूस करते वक्त दो पंक्तियां याद आ रही है….
अपनी पहचान भीड़ में खो कर
खुद को कमरों में ढूंढते हैं लोग।
वर्तमान के उपस्थित प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ते समय इन कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। हम ऐसे क्यों हैं? हमारी असंगठित वृत्ति के कारण क्या हैं? हम कभी अपने आपसे यह पूछने का साहस नहीं करते कि समाज की इस अवस्था के लिए हम कितने दोषी हैं? बहुत सम्भव है आप कहें कि हमने न तो कभी कोई गलत काम किया है और न ही गलत का समर्थन किया है। तब हम दोषी क्यों? ऐसे में आपको अपने आपसे फिर एक प्रश्न पूछना चाहिए कि आपने गलत को सही नहीं कहा, लेकिन क्या आपने गलत को गलत कहा? अगर आपका उत्तर हां है तो आपका अभिनंदन। लेकिन अगर आप कहते हैं कि हम किस-किस को गलत कहेंगे तो आप अभिनंदन के पात्र नहीं हैैं।
एक दूसरे के सहयोग से ही व्यक्ति के स्वयं एवं सामुदायिक विकास का युग प्रारम्भ हुआ है। वर्तमान में आधुनिक समाज में ऐसे सहसम्बंध सामाजिक रूप में नहीं पाए जाते हैं? हमारी भूमिकाएं एक-दूसरे की भलाई के लिए महत्वपूर्ण हैं? हम ‘आधुनिकीकरण’ की व्याख्या स्वयं को समाज से अलग करने की प्रक्रिया के रूप में करते है? अपने आसपास के हालात बदलने हैं तो आज इस सोच को बदलना अत्यंत आवश्यक है।
दुनिया की भीड़ भाड़ में हम बिखर गए
यहां किसी का किसी से वास्ता नहीं होता।
कोशिश खुद ही करनी पड़ती है,
भीड़ में रास्ता नहीं होता।