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राजनीतिक हाशिए पर ‘मिथिला’

राजनीतिक हाशिए पर ‘मिथिला’

by आशीष अंशू
in नवम्बर २०२४, राजनीति
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समाज का कल्याण और क्षेत्र के विकास में राजनीति की प्रमुख भूमिका होती है, परंतु इस दृष्टि से राजनीतिक तौर पर मिथिला हाशिए पर धकेल दी गई। ब्राम्हण समाज का बिखराव और उनका राजनीतिक नेतृत्व धराशाई होने के कारण मिथिला विकास के मोर्चे पर पिछड़ गई।

धीरे-धीरे मिथिला क्षेत्र बदल रहा है। वहां की राजनीति बदल रही है, लेकिन नहीं बदला कुछ तो वहां का पिछड़ापन। मिथिला और मैथिली के नाम पर जो समाज एक दिखता था, अब दर्जनों दुकानें इस एक नाम पर खुल गईं हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि जो मैथिली 22 दिसम्बर 2003 को आठवीं अनुसूची में शामिल होकर संख्या में कम होने के बावजूद भोजपुरी से अधिक गौरवान्वित हुई, उसे भारत में शिक्षा, सरकार और अन्य आधिकारिक संदर्भों में प्रयोग करने का अधिकार मिला। मैथिली भाषियों को इस तरह यूपीएससी परीक्षा में भी एक वैकल्पिक पेपर मिला। वही मैथिली जब 21 साल बाद 6 भाषाओं के साथ कैबिनेट में क्लासिकल भाषा की श्रेणी में रखे जाने के लिए प्रस्तुत हुई तो उसे वह सम्मान प्राप्त नहीं हो पाया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मैथिली भाषा के साथ बिहार सरकार की संस्तुति नहीं थी, जिसके कारण वह क्लासिकल भाषाओं में शामिल होने से वंचित रह गई।

मैथिली भाषा के विद्वान लेखक गंगेश गुंजन के अनुसार बिहार सरकार की ओर से मैथिली के पक्ष में प्रस्ताव ना होने के कारण से इसे सूची से बाहर कर दिया गया। उसके बाद मणिपुरी पर विचार हुआ, लेकिन मणिपुरी के साथ भी राज्य सरकार की संस्तुति नहीं थी, तो वह भी क्लासिकल भाषाओं की श्रेणी से बाहर कर दी गई। दरभंगा के पॉश जीएम रोड़ क्षेत्र में जमीन विवाद में एक गर्भवती महिला को उसके 8 महीने के गर्भ के साथ पैट्रोल डालकर जिंदा जला दिया गया। पीड़ित परिवार के अनुसार वे लोग लगातार स्थानीय थाने में फोन मिलाते रहे, लेकिन थाने से कोई सहायता नहीं मिली। इतनी बड़ी घटना शहर में हुई और पूरा शहर सोता रहा। इस घटना के बाद भी मिथिला क्षेत्र में किसी पर कोई असर नहीं हुआ। यह समाचार बिहार के बाहर निकल कर जा भी नहीं पाया। जो मिथिला अपनी विद्वता और संस्कृति के लिए जाना जाता था, अब अपनी लाचारगी, बेचारगी और पिछड़ेपन के लिए जाना जाने लगा है। जिस क्षेत्र में इतनी बड़ी दुर्घटना बीच शहर में हो जाए, वह शहर यदि जागने का दावा करता है तो वहां के लोगों को शर्म से नींद नहीं आनी चाहिए थी कि उनके बीच से एक गर्भवती महिला को पैट्रोल डालकर जिंदा जला दिया गया। यदि इतनी बड़ी घटना के बाद मिथिला क्षेत्र में कोई हलचल नहीं हुई, तो फिर इस क्षेत्र की महान परम्परा की कहानियां अब इतिहास है। किसी बड़े परिवर्तन के लिए मिथिला तैयार है, यह लिखना कठिन है।

मिथिला को पहला एयरपोर्ट दरभंगा में मिला, इसकी खूब चर्चा हुई। इससे जुड़े समाचारों की कोई कमी गूगल पर नहीं हैं। प्रधान मंत्री करेंगे नए टर्मिनल भवन का शिलान्यास। इसके लिए 26 सितम्बर 2024 की तारीख गूगल में है, लेकिन शिलान्यास का समाचार गूगल नहीं दिखा रहा। अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनेगा एयरपोर्ट, यह समाचार गूगल पर मिलेगा, लेकिन एयरपोर्ट की स्थिति ऐसी है कि सुरक्षाकर्मियों के बैठने के लिए वहां जगह नहीं है। यात्रियों के लिए रखी गई प्लास्टिक की कुर्सियां एक समय सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। यहां से फ्लाइट इतनी संख्या में कैंसिल होती हैं कि यात्रियों को फ्लाइट के साथ रेल की टिकट भी कटा कर रखनी पड़ती है।

90 के दशक तक मिथिला में मधुबनी पेंटिंग, पान, मछली, मखाना और यहां का ब्राह्मण नेतृत्व ही इस क्षेत्र की पहचान थी। आज बेरोजगारी और पलायन की यहां सबसे अधिक चर्चा है। उत्तराखंड की यह कहावत ‘पहाड़ की जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं आई’ अब मिथिला पर चरितार्थ हो रही है। यहां की जवानी कभी इस क्षेत्र के काम नहीं आई। प्रशासन से लेकर शिक्षा, साहित्य, कला, विज्ञान, प्रोद्योगिकी, उद्योग कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां मिथिला क्षेत्र के लोगों ने ऊंची सफलता प्राप्त न की हो। मिथिला मिरर चलाने वाले ललित नारायण झा जब अपने यूट्यूब चैनल के लिए महत्वपूर्ण मैथिल हस्ताक्षरों का साक्षात्कार ले रहे थे तो उन्होंने बताया कि गुजरात, महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर तक मैथिल परिवेश की धूम है। इतना ही नहीं, देश के बाहर भी ऐसे मैथिल युवा अनगिनत हैं जो दूसरे देशों में भारत के नाम का डंका बजा रहे हैं।

मिथिला में ललित नारायण मिश्रा, हरिनाथ मिश्रा, जगन्नाथ मिश्रा, भोगेंद्र झा, चतुरानन मिश्र, संजय झा जैसे नेता हुए। उसके बाद भी यह क्षेत्र अपनी दुर्दशा से उबर नहीं पाया। यहां के लोग जिन्होंने मिथिला में रहकर या मिथिला क्षेत्र से बाहर जाकर सफलता पाई, दोनों ने इस क्षेत्र को हमेशा अपने हाल पर ही छोड़े रखा।

यहां की राजनीति की बात की जाए तो उसे दो हिस्सों में बांटा जा सकता है, 90 से पहले और 90 के बाद। जब बिहार के मुख्य मंत्री लालू प्रसाद यादव बने, उसके बाद इस पूरे क्षेत्र की राजनीति बदल गई। इनके सत्ता में आने के बाद ब्राह्मण नेतृत्व में लगातार गिरावट आई। जगन्नाथ मिश्रा जैसे कद्दावर नेता का कद लगातार गिरता गया। ब्राह्मणों का टिकट सभी राजनीतिक दलों में कटता गया। इसे कुछ लोग लालू यादव के बिहार की राजनीति में उभार से जोड़कर देखते हैं, जबकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इसके पीछे सौराठ सभा का समाप्त होना है। अब तो सौराठ सभा में उंगलियों पर गिने जाने भर लोग पहुंचते हैं।

सौराठ सभा मैथिल ब्राह्मणों का एक ऐसा सभा स्थल हुआ करता था, जहां बिना किसी प्रचार, प्रसार और संगठन के पर्चा-पोस्टर के लाखों ब्राह्मण एकत्रित हुआ करते थे। मिथिला में शास्त्रार्थ की समृद्ध परम्परा रही है। सौराठ में एकत्रित होकर ये विद्वान मैथिल शास्त्रार्थ करते थे। उस शास्त्रार्थ से अपने ज्ञान के बल पर उपाधि अर्जित करते थे, लेकिन यह परम्परा धीरे-धीरे सौराठ से खत्म हो गई। इस जगह की पहचान एक वैवाहिक स्थली बनकर रह गई। जहां प्रत्येक वर्ष एक लाख जोड़ों का विवाह हो जाया करता था। यहां जब हजारों-लाखों की संख्या में ब्राम्हण एकत्रित होते थे, कहते हैं वहां मौजूद बरगद का पेड़ लहलहा उठता था। अब तो विवाह के लिए रिश्ते की खोज में भी ब्राम्हणों ने वहां जाना बंद कर दिया। राजनीतिक विश्लेषक यही कहते हैं कि सौराठ सभा जैसे-जैसे कमजोर हुआ, वहां ब्राम्हणों ने एकत्रित होना बंद कर दिया, वैसे-वैसे मिथिला में ब्राह्मण एकता और राजनीतिक मजबूती कमजोर हुई और 90 का दशक आते-आते ब्राह्मण नेतृत्व समाप्त हो गया। इसका प्रभाव मिथिला की संस्कृति और राजनीति पर साफ दिखाई दिया।

भाजपा से जुड़े दो बड़े नेता डॉ. संजय पासवान और प्रभात झा, दोनों मिथिला क्षेत्र से हैं। भारतीय राजनीति में दोनों ने बड़ी सफलता प्राप्त की, लेकिन एक ओर जहां इन्होंने अपनी पूरी राजनीति में मिथिला क्षेत्र को केंद्र में नहीं आने दिया। वहीं दूसरी ओर दोनों नेताओं ने मिथिला की माटी से अपना प्रेम छुपाया भी नहीं।

प्रभात झा का पूरा राजनीतिक जीवन मध्य प्रदेश को समर्पित रहा, लेकिन उनके परिवार को यह स्पष्ट निर्देश था कि मृत्यु कहीं भी हो, उनका अंतिम संस्कार जन्मभूमि मिथिला की मिट्टी में ही होना चाहिए। इसीलिए 26 जुलाई को मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर को दिल्ली से उनके पैतृक गांव कोरियाही (सीतामढ़ी) लेकर आया गया। प्रभात झा की यह अंतिम इच्छा उनके बच्चों ने पूरी की। मिथिला की मिट्टी में जन्मे हर एक व्यक्ति को अपनी मिट्टी से इतना ही प्रेम है, लेकिन दुर्भाग्यवश यहां जन्म लेने वाला व्यक्ति अपनी मिट्टी के लिए अधिक कुछ कर नहीं पाता है।

 

 

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