मोदी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को तीन बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुंचाकर भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लक्ष्य के साथ अपने तीसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे कर लिए हैं। मोदी सरकार की 100 दिन की उपलब्धियां उल्लेखनीय रही हैं, लेकिन बदले हुए आंतरिक एवं बाहरी समीकरणों ने नई चुनौतियां प्रस्तुत की हैं। सरकार को इन चुनौतियों से निपटने के लिए समय रहते ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल के प्रथम 100 दिन पूरे कर चुकी है। ऐसे में सरकार की उपलब्धियों के साथ इसकी चुनौतियों की भी चर्चा बनती है। सरकार के 100 दिन पूरे होने पर इससे सम्बंधित विवरण विभिन्न मंत्रालयों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। इनका विचार करें तो पांच बातें ध्यान में आती हैं। सुशासन, महिला उत्थान, जनजाति एवं कमजोर वर्ग का विकास, लोक कल्याण तथा आधारभूत ढांचागत विकास इस सरकार की प्राथमिकताओं मेें दिखता है। लगातार 10 वर्षों तक शासन के बावजूद भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं हैं। यह भी इनकी एक बड़ी उपलब्धि है। प्रथम दो कार्यकालों के समान ही तीव्र गति से विकास इनकी सर्वोपरि प्राथमिकताओं मेें से एक है, जिसका परिणाम बुनियादी ढांचागत विकास के लिए करीब 3 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाओं की मंजूरी से समझा जा सकता है।
किंतु मजबूत एवं अराष्ट्रीय चरित्र वाला विपक्ष तथा गठबंधन सहयोगी सरकार के लिए हर कदम पर दुश्वारियों का सबब है। ऐसे सहयोगी दलों पर निर्भरता वाली सरकार को चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है। इसी नाते क्रीमीलेयर और लेटरल इंट्री के मुद्दे पर सरकार को पीछे हटना पड़ा। इसमें से क्रीमीलेयर आरक्षण के वास्तविक हकदारों के हित से सम्बंधित मामला था जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव आया था। जबकि लेटरल इंट्री एकल पदों पर अस्थायी नियुक्ति का मामला है। जिसके अंतर्गत सम्बंधित विषय के विशेषज्ञों की मंत्रालय विशेष में नियुक्ति होनी थी। ऐसे ही प्रसारण नियमावली से सम्बंधित ब्रॉडकास्टिंग बिल को भी वापस लेना पड़ा। इसके द्वारा डिजिटल कॉन्टेंट क्रिएटर्स के लिए दिशानिर्देश नियमावली बननी थी ताकि भ्रामक उत्तेजक एवं मिथ्या प्रचारों पर रोक लग सके।
यही नहीं वक्फ बोर्ड के मनमाने ढंग तथा संवैधानिक व्यवस्थाओं को चुनौती देने वाले तरीकों पर रोक हेतु वक्फ संशोधन बिल लाया गया। किंतु विपक्ष के विरोधी तेवर मंत्रिमंडल सहयोगियों के पुनर्विचार एवं व्यापक संवाद वाली सोच तथा कठमुल्लाओं के हंगामे के कारण इसे संयुक्त संसदीय समिति को भेजना पड़ा। इसी प्रकार एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे भी अभी तक लम्बित हैं। यह इस सरकार की सर्वाधिक प्राथमिकताओं मेें से एक है। किंतु अब तक सदन के पटल से दूर है। जबकि कई भाजपा शासित प्रांतों ने समान नागरिक कानून व्यवस्था को अपने यहां लागू किया है। ऐसे में आवश्यकता है कि केंद्र सरकार इस दिशा मे सधे कदम के साथ बढ़े। अगर ये प्रस्ताव मूर्तरूप नहीं ले पाए तो निश्चित ही एक मजबूत सरकार की छवि को नुकसान पहुंचेगा। किंतु कई दूसरी समस्याएं भी मुंह बाए खड़ी हैं। अगर इन सब पर समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो भारतीय लोकतंत्र एवं यहां की बहुलता वाली उदार संस्कृति को बड़ा संकट है। इन पर विचार करें तो इनमें अतिवादी धार्मिक विचार और इससे उत्पन्न आतंकवाद एक बड़ी चुनौती है। इसी की परिणति मुस्लिम समुदाय विशेष के द्वारा देशभर के रेल पथों के साथ छेड़छाड़ के रूप में सामने हैं। इसपर अंकुश हेतु कठोर कानून को लाने की आवश्यकता है। इसके साथ हर मस्जिद व मदरसा पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। क्योंकि हर प्रकार के हिंसक एवं रोषपूर्ण प्रदर्शनों के पीछे यही होते हैं। कभी सीएए, कभी एनआरसी तो कभी फिलिस्तीन एवं लेबनान के मुद्दे पर बवाल काटते हैं। जबकि इनमें से एक भी मुद्दा भारत में इनके व्यक्तिगत अथवा सामुदायिक हित पर चोट से सम्बंधित नहीं हैं। इसके साथ ही आतंकी गतिविधि तथा हिंसक विचारों के पीछे भी इन्हीं मजहबी संस्थाओं का हाथ होता है। अतः इस दिशा में शासन द्वारा कुछ ठोस पहल होना चाहिए। वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधिकार तथा आवश्यकता पर भी शासन को सोचना चाहिए। आखिर एक देश में दो कानून तथा एक समानांतर व्यवस्था कैसे हो सकती है? पंजाब मे मुंह उठाता खालिस्तानी आतंकवाद तो कश्मीर में इनके प्रति सहानुभूति वाली भावनाओं पर भी रोक की आवश्यकता है। इस दिशा मे जहां सिख पंथ के विभिन्न समुदायों को आगे आकर देश एवं सर्वसमाज के हित में बात करने की जरूरत है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन की देन, अलगाववादी सोच से भरे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के भी वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन अथवा इस पर अंकुश की जरूरत है। वही एसजीपीसी की सरकार अथवा सर्वोच्च न्यायालय से बयान एवं दिशानिर्देश जारी करने के तौर तरीकों पर भी रोक लगनी चाहिए। ये केवल धार्मिक मामलों पर वो भी संविधान एवं कानून के दायरे में रह कर बयान जारी करें तभी सिखअलगाववाद, आतंकवाद एवं हिंदू समुदाय के साथ इनकी बैर भावना पर लगाम लगेगी।
बात कश्मीर की करे तो स्थानीय मस्जिदों द्वारा होने वाली विषाक्त वार्ता पर पूरी तरह रोक के साथ ही सरकार द्वारा केवल स्थानीय मुस्लिमों को लाभुक बनाने से सम्बंधित योजनाओं पर पुनर्विचार की जरूरत है। यहां आवश्यकता कश्मीरी हिंदुओं को पुनः बसाने, राज्य के हिंदू तीर्थ स्थानों के प्रचार एवं विकास की है। इसके साथ ही एक ऐसी शासकीय नीति लाने की भी है जिस नाते देशभर के नागरिक कश्मीर घाटी को अपने लिए एक विकल्प के तौर पर देखेें। वैसे इस दिशा में पूर्व सैन्यबलों के यहां बसने हेतु लाई गई कोई प्रोत्साहन योजना बेहद कारगर हो सकती हैं। यह आतंक की समाप्ति के साथ शांति स्थापित करने का एक बेहतरीन तरीका हो सकता है।
मणिपुर के आतंक की सोचें तो स्थिति वाकई चिंताजनक है। यह पूर्वोत्तर भारत में आतंक के लौटने का एक रास्ता हो सकता है। मणिपुर लुक ईस्ट ऐक्ट ईस्ट सोच के साथ पूर्वी एशियाई देशों तक सड़क रेल द्वारा जुड़ाव एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी है। अतएव यहां के घटनाक्रमों को सिर्फ दो जातियों का आपसी संघर्ष नहीं मानना चाहिए। इसे बाहरी घुसपैठ एवं ईसाई आतंकवादी गतिविधि मान कर निर्णय लेना चाहिए। यह पूर्वोत्तर भारत मेें पृथकतावाद नवीन ईसाई देश का भी उपक्रम है। अतएव यहां एनआरसी को लागू करना और अतिवादी संगठनों पर रोक की नितांत जरूरत है। इसके साथ ही यहां के आतंकी संगठनों के साथ हुए शांति समझौतों को रद्द कर इन पर कठोर कार्यवाई करनी चाहिए। इसके अलावा म्यांमार से आ रहे सभी कुकी लोगों की वापसी होनी चाहिए। जबकि स्थानीय सभी सामुदायिक संगठन एवं चर्चो की अराष्ट्रीय गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए तभी मणिपुर शांत होगा एवं भारत की समृद्धि का पूर्वाभिमुखी द्वार खुलेगा।
बात विदेश नीति की करे तो इस मोर्चे पर भी सोचने की जरूरत है। पिछले दस वर्ष में राष्ट्र प्रथम वाली विदेश नीति का राष्ट्रीय हित में पालन होता रहा है। जिस नाते विभिन्न देशों संग द्विपक्षीय सम्बंध मजबूत एवं आपसी हितों पर आधारित बने हैैं। इससे भारत की वैश्विक साख एवं धाक भी बनी है। किंतु बांग्लादेश के सत्ता परिवर्तन ने इस विश्वास को जबरदस्त हानि पहुंचाई है। आस-पड़ोस मे चौतरफा भारत विरोधी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है। निकटवर्ती पड़ोसी किंतु प्रतिद्वंद्वी चीन तो इसके पीछे है ही किंतु स्वाभाविक मित्रता का दावा करने वाली वर्तमान अमेरिकी सरकार भी कही कम नहीं है। जब से अमेरिका में उदारवादी वामपंथी झुकाव वाली जो बाइडेन की सरकार आई है भारत के अड़ोस-पड़ोस में अमेरिकी प्रशासन द्वारा भारत विरोध गतिविधियों को खाद-पानी दिया जा रहा है। इसे म्यांमार में चल रहे संघर्ष एवं बांग्लादेश के तख्तापलट से समझा जा सकता है। ऐसी सब गतिविधियों का ही परिणाम पड़ोसी देशों में भारत विरोधी रुझान वाली सरकारों का आना है।
इसके साथ ही खलिस्तानी आतंकियों पर अमेरिकी कृपा तथा मणिपुर मे मिल रहे चीनी हथियार भी चौंकानें वाले हैं। ऐसे में चीन को जहां उसके वैचारिक विरोधियों संग मिलकर घेरा जा सकता है। वहीं चीन संग सीमा विवाद वाले देशों को भी भारत अपने इस मुहिम में जोड़ सकता है। चीन के साथ व्यापार को कम कर तथा विभिन्न बौद्ध देशों में दलाई लामा के दौरे के द्वारा भी चीन को उत्तर दिया जा सकता है। बात अमेरिका की करें तो भारत में मानवाधिकार हनन मुद्दे संग पड़ोसी देश से लेकर खालिस्तान एवं मणिपुर हर मुद्दे पर उसे चेतावनी देने की जरूरत है। अगर अमेरिकी प्रशासन ऐसा कुछ जारी रखता है तो उसे स्वाभाविक मित्रता एवं साझेदारी समाप्त करने का संदेश दिया जाए। वहीं विभिन्न देशों में आंतरिक हस्तक्षेप संग लोकतंत्र पर दोहरी नीति को भी मुद्दा बनाया जा सकता है। क्योंकि जो अमेरिका लोकतांत्रिक और बहुलतावाद की बात करता है उसके वैश्विक दृष्टिकोण मेें इसका सर्वथा अभाव दिखता है। वहीं दूसरे देशों की सांस्कृतिक विविधता पर चोट एवं ईसाई धर्म की प्रोत्साहक शक्ति की भी अमेरिकी नीति में झलक दिखती है। बात आतंकवाद की हो तो इस पर भी उसके दोहरे और संदेहपूर्ण आचरण देखने को मिलते हैं। ऐसे सभी मुद्दों को भी हर मंच से उठाने का संदेश अमेरिकी सरकार को देना चाहिए। म्यांमार में चल रहा संघर्ष भारत के भविष्यगत विकास योजनाओं पर तुषारापात की तरह है। यहां के विद्रोही गुटों के निशाने पर चीन ही नहीं केवल भारतीय निवेश योजनाएं हैं।
म्यांमार सम्पूर्ण पूर्व एशिया तक व्यापार एवं सांस्कृतिक आदान- प्रदान की बहुप्रतीक्षित योजना वर्तमान में अधर में लटकी हैं, जबकि पड़ोसी देशों के उपद्रव एवं सत्ता परिवर्तन भारत के लिए सुरक्षा दृष्टिकोण से भी सही नहीं हैं। ऐसे में बांग्लादेश शासन पर दबाव देना और हस्तक्षेप करना बहुत जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हिंदू उत्पीड़न भारत के लिए भी खतरे की आहट हो सकती है। जिसमें अतिवादी इस्लाम और मुस्लिम घुसपैठिए आग भड़काने के लिए ज्वलनशील पदार्थ की तरह हैैं। इसके अलावा भी कुछेक समस्याएं हैं जिनपर मोदी सरकार को सोचना और पहल करना चाहिए। इसमे धर्मांतरण, गोहत्या, जनसंख्या असंतुलन तथा हिंदू देवस्थानों पर सरकारी स्वामित्व अथवा गैर हिंदुओं के कब्जे का मुद्दा है। इन पुराने और बेहद उलझे हुए मामलों को भी सूझबूझ से निष्पादित करने की नितांत आवश्यकता है तभी यह देश शांति के साथ प्रगति के पथ पर बढ़ते हुए विश्वशक्ति विश्वगुरु बन पाएगा।